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हर बार उम्मीद से बुरा प्रदर्शन! क्या राहुल-प्रियंका कांग्रेस की यह बीमारी ठीक कर पाएंगे?

कांग्रेस ने 19 फरवरी को अपने संगठन को मजबूती देने के लिए एक अहम बैठक की थी, लेकिन ऐसी बैठकें पहले भी होती रही हैं और उनका नतीजा सिफर ही निकला है

प्रियंका और राहुल गांधी/फाइल फोटो
प्रियंका और राहुल गांधी/फाइल फोटो
अपडेटेड 21 फ़रवरी , 2025

पिछले छह महीने में कांग्रेस को तीन बड़े राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार मिली. अक्टूबर 2024 में हरियाणा, नवंबर में महाराष्ट्र और अब फरवरी में हुए दिल्ली चुनावों में मिली पराजय के बाद पार्टी ने आखिरकार उस बात को स्वीकार किया है जिस पर उसके आलोचक लंबे समय से ध्यान दिलाते रहे हैं.

आलोचक कहते रहे हैं कि कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी सिर्फ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की चुनावी मशीनरी नहीं है, बल्कि उसका खुद का ढहता संगठन भी है. पार्टी ने इस बात की गंभीरता को माना है, और 19 फरवरी को इस मसले पर एक मीटिंग भी की. लेकिन पीछे देखें तो यह महज औपचारिकता ही साबित हुई है.

इस साल के अंत तक बिहार विधानसभा चुनाव के अलावा और कोई बड़ा चुनाव नहीं है. ऐसे में कांग्रेस इस अवधि का इस्तेमाल अपने संगठन के संरचनात्मक बदलाव के लिए करना चाहती है. इसी क्रम में, 19 फरवरी को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) के महासचिवों और राज्य प्रभारियों के साथ बैठक की. उसमें खड़गे ने साफ किया कि बयानबाजी का समय खत्म हो गया है. अब जवाबदेही लागू की जाएगी और संरचनात्मक बदलाव के केंद्र में जिला कांग्रेस समितियां (DCC) होंगी.

यह उस पार्टी के लिए विफलता की साफ स्वीकारोक्ति है, जो अपनी अखिल भारतीय मौजूदगी के लिए पीठ थपथपाती रही है. हालांकि अतीत में देखें तो इस तरह की स्वीकारोक्ति भी अक्सर औपचारिकता ही बनकर रह गई है. अब हरियाणा का ही उदाहरण लीजिए, जहां ज्यादातर चुनावी पंडितों ने कांग्रेस की आसान जीत की भविष्यवाणी की थी. लेकिन इसके बाद भी पार्टी को आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा.

बाद में पता चला कि हरियाणा में जिला कांग्रेस अध्यक्षों की नियुक्ति बरसों से नहीं की गई थी. इसके विपरीत बीजेपी ने अपने कैडर-बेस्ड नजरिए को चुनावी बाजीगरी में तब्दील कर डाला है, जो लीडर सेंट्रिक और 'टॉप हेवी' मॉडल पर काम करता है. इससे उसने कांग्रेस को लगातार पटखनी दी है.

19 फरवरी की बैठक में खड़गे ने चेतावनी दी कि अब महासचिवों और राज्य प्रभारियों को अपने-अपने राज्यों में चुनावी प्रदर्शन के लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा. लेकिन क्या यह नया संकल्प सार्थक संरचनात्मक बदलाव में तब्दील होगा? या यह भी 2022 में उदयपुर चिंतन शिविर और 2023 में रायपुर प्लेनरी की तरह महज दिखावे की कवायद ही बनकर रह जाएगा, जहां बड़े-बड़े प्रस्ताव पारित किए गए लेकिन कभी लागू नहीं किए गए?

2022 में उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस ने पार्टी के संरचनात्मक सुधारों की एक सीरीज का वादा किया था, जिनमें DCC का पुनरुद्धार, 'एक व्यक्ति, एक पद' नियम, पार्टी पदाधिकारियों के लिए निश्चित कार्यकाल और वंशवादी राजनीति के बजाय जमीनी कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने की बातें शामिल थीं. अगले साल रायपुर में भी कमोबेश यही बातें दोहराई गईं, बल्कि इस मीटिंग में एक नई चीज भी जोड़ी गई - जाति आधारित जनगणना की मांग और सामाजिक न्याय पर ज्यादा फोकस.

हालांकि, तब से लेकर अब तक टॉर्च लेकर ढूंढ़ने पर भी इनमें से कोई भी उपाय रोशनी में आता नहीं दिखता. इसके बजाय, पार्टी ने नए पदों पर उन्हीं पुराने चेहरों को फिर से बिठाने की अपनी पुरानी परंपरा को जारी रखा है.

19 फरवरी की बैठक से पहले कांग्रेस ने कई नई नियुक्तियां कीं. छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, जो प्रियंका गांधी वाड्रा के वफादार माने जाते हैं, उन्हें देवेंद्र यादव की जगह पंजाब का प्रभारी AICC महासचिव बनाया गया. बघेल प्रियंका के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक हैं, जिन्होंने 2023 में छत्तीसगढ़ चुनावों के दौरान उनके साथ मिलकर काम किया था. प्रियंका के वफादार और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व प्रमुख अजय कुमार लल्लू को ओडिशा भेजा गया, जहां गांधी परिवार के वफादार भक्त चरण दास ने प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाला.

खड़गे का दफ्तर संभालने वाले सैयद नसीर हुसैन को जम्मू-कश्मीर का प्रभारी महासचिव नियुक्त किया गया है, जिससे तकनीकी रूप से वे फेरबदल में अकेले गैर-गांधी व्यक्ति बन गए हैं. हालांकि, उनके प्रमोशन के लिए भी गांधी भाई-बहनों, खासकर प्रियंका के समर्थन का श्रेय जाता है.

खड़गे का दफ्तर संभालने वाले सैयद नसीर हुसैन को जम्मू-कश्मीर का प्रभारी महासचिव नियुक्त किया गया है. इस फेरबदल में तकनीकी रूप से वे एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्हें राहुल गांधी या प्रियंका का सीधे तौर पर वफादार नहीं कहा जा सकता. हालांकि, उनके इस प्रमोशन का श्रेय भी गांधी भाई-बहनों, खासकर प्रियंका के समर्थन को जाता है.

राहुल गांधी के भी कई करीबी लोगों को पार्टी के जिम्मेदार पदों पर तैनाती मिली है. जैसे राहुल के पूर्व ऑफिस हेड के. राजू, जिन्हें कांग्रेस के एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समर्थकों के बीच अपनी पहुंच के लिए जाना जाता है, उन्हें झारखंड का प्रभार दिया गया है. यह सामाजिक न्याय के लिए राहुल के प्रयासों को बताता है. इसी तरह मीनाक्षी नटराजन, जो अपने यूथ कांग्रेस के दिनों से ही राहुल की विश्वासपात्र रही हैं, उन्हें तेलंगाना का प्रभारी बनाया गया है. राहुल के एक अन्य करीबी सहयोगी कृष्णा अल्लावरु को बिहार का प्रभार सौंपा गया है जो राज्य में होने वाले चुनाव से पहले एक अहम संकेत है.

इनमें से ज्यादातर नियुक्तियों के राहुल या प्रियंका से गहरे संबंध हैं. इससे यह धारणा मजबूत होती है कि अगर किसी व्यक्ति को कांग्रेस के पावर स्ट्रक्चर में जगह बनानी हो तो उसकी राहुल या प्रियंका से निकटता अहम और निर्णायक फैक्टर हो सकता है. हुसैन की नियुक्ति आंतरिक पावर डायनेमिक्स में बदलाव के बजाय एक समझौता ज्यादा लगता है, जिसे मानना राहुल-प्रियंका के लिए जरूरी है.

खड़गे ने संकेत दिया है कि और भी बदलाव आने वाले हैं, लेकिन कांग्रेस को सिर्फ कुछ नए नामों की जरूरत नहीं है, बल्कि लीडरशिप और जवाबदेही के लिए एक बिल्कुल नए दृष्टिकोण की जरूरत है. अगर पार्टी वाकई संरचनात्मक फेरबदल करना चाहती है, तो उसे कुछ बुनियादी मुद्दों से निपटते हुए शुरुआत करनी होगी.

पहली और सबसे जरूरी प्राथमिकता DCC को वास्तविक अधिकार प्रदान करना है. इन समितियों को केवल सजावटी ढांचे के रूप में दिखाने की जरूरत नहीं है, बल्कि पोल कैंडिडेंट के चयन, कैंपेन स्ट्रेट्जी और जमीनी स्तर पर लोगों की लामबंदी में इसे सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए. अगर कांग्रेस जिला स्तर पर अपनी मजबूत स्थिति नहीं बनाती, तो वह बीजेपी की अच्छी तरह से तैयार चुनावी मशीनरी के सामने लड़खड़ाती ही रहेगी.

दूसरा, केवल बयानबाजी से काम नहीं चलने वाला, बल्कि जवाबदेही भी जरूरी है. जबकि खड़गे ने इस बात पर जोर दिया है कि महासचिवों और प्रभारियों को चुनावी नतीजों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा, पर असली परीक्षा इस बात पर निर्भर करती है कि पार्टी वास्तव में इन मानकों को लागू करेगी या नहीं. अगर नेताओं को उनके निष्क्रिय प्रदर्शन के लिए, कार्रवाई के बिना बस फेरबदल किया जाता है, तो यह एक खोखली धमकी बनकर रह जाएगी.

एक और बड़ा मुद्दा यह है कि पार्टी योग्यता से ज्यादा वफादारी पर लगातार भरोसा करती रही है. हाल ही में हुए फेरबदल ने एक बार फिर इस बात को उजागर किया कि राहुल और प्रियंका के करीबी लोगों को अहम भूमिकाएं दी गईं जबकि उनके दायरे से बाहर के लोगों को दरकिनार कर दिया गया. इस अलगाववादी दृष्टिकोण ने जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को अलग-थलग कर दिया है जो नेतृत्व से अलगाव महसूस करते हैं. अगर कांग्रेस वास्तव में चुनावी ताकत हासिल करना चाहती है, तो उसे आंतरिक लोकतंत्र को अपनाना होगा और आलाकमान से निकटता के बजाय प्रदर्शन के आधार पर नेताओं को बढ़ावा देना होगा.

इसके अलावा, पार्टी स्ट्रक्चर के भीतर लोगों की भूमिकाएं साफ तौर पर परिभाषित नहीं हैं. इस कमी ने संगठन के भीतर अक्षमता पैदा की है. विभिन्न AICC पदाधिकारियों की जिम्मेदारियां अक्सर ओवरलैप होती हैं, जिससे फैसला लेने में भ्रम और देरी होती है. संचालन को अच्छी तरह व्यवस्थित करने के लिए कांग्रेस को यह तय करना चाहिए कि प्रत्येक नेता के पास मापने योग्य उद्देश्यों के साथ एक खास और अच्छी तरह से परिभाषित भूमिका हो. यह कुछ ऐसा है जो अब पार्टी की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर है, लेकिन कांग्रेस नौकरशाही में ब्लूप्रिंट और उसके वास्तविक कार्यान्वयन के बीच हमेशा एक बड़ा अंतर रहा है.

आखिर में, पार्टी को पुराने नामों को फिर से इस्तेमाल करने से दूर रहना चाहिए और इसके बजाय परफॉर्मेंस-बेस्ड प्रमोशन पर फोकस करना चाहिए. जिन नेताओं ने चुनावों में प्रभावशीलता दिखाई है खासकर जमीनी स्तर पर, उन्हें प्रमुख पदों के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए. इस बदलाव के बिना कांग्रेस में स्थिरता नहीं आ सकती, क्योंकि ऐसे में पार्टी अपने कार्यकर्ताओं या वोटरों के बीच विश्वास जगाने में असमर्थ ही होगी.

इन संरचनात्मक सुधारों के बिना कांग्रेस का 'पुनर्निर्माण' एक दिखावटी कवायद से ज्यादा कुछ नहीं होगा. उसके पास एक मौका है. बिहार तक कोई बड़ा चुनाव नहीं है. ऐसे में पार्टी अपने काम को व्यवस्थित कर सकती है. अगर कांग्रेस इस बार भी चूक जाती है, तो पार्टी अपनी पिछली गलतियों को दोहराने और एक और बड़ा मौका हाथ से जाते देख सकती है.

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