भारत के 705 जिलों में कुल 730 आदिवासी समुदायों में से केवल दो समुदायों में महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलता है. मेघालय की ‘गारो’ और ‘खासी’ जनजातियों में संपत्ति और उत्तराधिकार महिलाओं के माध्यम से स्थानांतरित होता है. लेकिन अब बाकी आदिवासी समुदाय की महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण चमकी है.
बीते 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में मध्य प्रदेश की एक आदिवासी महिला को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने का फैसला दिया. यह फैसला इसलिए मील का पत्थर साबित होने जा रहा है कि क्योंकि देशभर के आदिवासी समुदायों में महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता. देशभर के अनुसूचित क्षेत्रों में में प्रथागत कानून चलते हैं, जिनमें रूढ़ीवादी व्यवस्था को मान्यता मिली हुई है.
याचिकाकर्ता अनुसूचित जनजाति की महिला धैया के कानूनी उत्तराधिकारी उनके ननिहाल की संपत्ति में हिस्सा मांग रहे थे. लेकिन परिवार के पुरुष सदस्यों ने आदिवासी परंपराओं का हवाला देते हुए दावा किया कि महिलाओं को विरासत में कोई अधिकार नहीं है.
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि भले ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी महिलाओं को स्वतः ही विरासत से बाहर कर दिया जाए.
कोर्ट ने कहा, “अगर कोई ऐसा रिवाज है भी, तो उसे समय के साथ विकसित होना चाहिए. रिवाज भी कानून की तरह समय में जमे नहीं रह सकते और किसी को यह अनुमति नहीं दी जा सकती कि वो ऐसे रिवाजों की आड़ लेकर दूसरों के अधिकारों से उन्हें वंचित कर दे.”
कोर्ट के इस फैसले के बाद देशभर की 5.25 करोड़ (2011 जनगणना के मुताबिक) से अधिक आदिवासी महिलाओं में पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी मिलने को लेकर एक उम्मीद जगी है. हालांकि इस फैसले पर झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा सहित पूर्वोत्तर भारत में एक बहस भी चल पड़ी है.
क्या कह रही है आदिवासी महिलाएं
प्रसिद्ध कवियित्री और झारखंड की रहनेवाली जसिंता केरकेट्टा कहती हैं, ‘’आदिवासी समाज में स्त्रियां खेत-खलिहान, गांव-घर सबकुछ संभाल रही हैं. ज़मीन बचाने के आंदोलनों में सबसे अधिक आदिवासी स्त्रियों की भागीदारी रहती है. पर जब ज़मीन बेचने की बात आती है तो बिना स्त्रियों से बातचीत किए, समाज से पूछे पुरुष बिचौलिया बनकर धड़ल्ले से ज़मीन बेचने का काम करते हैं.’’
वो आगे कहती हैं, “ऐसे समाज में जब स्त्रियों को पैतृक संपत्ति जैसे ज़मीन पर अधिकार देने की बात होती है तो पुरुष भड़क उठते हैं. उनका भय है कि स्त्रियां दिकुओं (गैर-आदिवासी) के पास चली जाएंगी और सारा ज़मीन लुट जाएगी. इस विषय पर आदिवासी पुरुषों से कठोरता और तर्क के साथ यह पूछा जाना चाहिए कि ज़मीन का अधिकार तो इतने वर्षों से पुरुषों के हाथ में ही है, फिर झारखंड की डेमोग्राफी कैसे बदल गई?’’
वहीं कांग्रेस नेता और झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव जसिंता से इतर मत रखती हैं. वो कहती हैं, “पूरा समाज सदियों से कस्टमरी लॉ (प्रथागत कानून) से गाइड होता रहा है. अभी जो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है, वो व्यक्तिगत मामलों में दिया फैसला हो सकता है, इसे पूरे समाज पर लागू नहीं किया जा सकता. मेरा मानना है कि शादी के बाद महिलाओं को उनके पति की संपत्ति में हिस्सा होना चाहिए, वो भी लिखित में. ना कि पिता या भाई की संपत्ति में.’’
गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी विभाग की प्रोफेसर अंजली दयमारी अलग व्यवस्था की बात कर रही हैं. वो कहती हैं, ‘’असम के बोडो समुदाय जहां से मैं ताल्लुक रखती हूं, वहां कस्टमरी लॉ है, लेकिन प्रैक्टिस में नहीं है. अगर कोई बोडो अभिभावक अपनी बेटी को संपत्ति में हिस्सा देना चाहते हैं तो वो दे सकते हैं.’’
वहीं मध्य प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री और आदिवासी नेता निर्मला भूरिया भी मानती हैं कि आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार मिलना चाहिए. लेकिन उनका कहना है, ‘’ये कोर्ट के रास्ते नहीं, समाज अगर खुद पहल करे तो उसकी स्वीकार्यता अधिक होगी.’’
निर्मला भूरिया की बात को आगे बढ़ाते हुए छत्तीसगढ़ के कोंडागांव की एमएलए और बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लता उसेंडी कहती हैं, “दो बातें हैं. पहली ये कि देशभर का आदिवासी समाज अपने कस्टमरी लॉ से चलता है. दूसरी तरफ ये भी है कि किसी अन्य समुदाय से ज्यादा समानता का अधिकार आदिवासी महिलाओं के पास है. जहां तक बात पैतृक संपत्ति में हिस्से का है, वो भी अब मिल जाना चाहिए.’’
आदिवासी पुरूषों की क्या है राय
हालांकि पुरुष कोर्ट के फैसले को गलत ठहरा रहे हैं. उनका कहना है कि आदिवासी समुदाय अपने कस्टमरी लॉ से संचालित होता है. जिसमें महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है. अगर ऐसा हुआ तो आदिवासियों की जमीन लूट संवैधानिक रूप से बढ़ जाएगी. कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए.
झारखंड के सरना धर्मगुरू बंधन तिग्गा कहते हैं, “वही महिलाएं आवाज उठा रही हैं जिन्होंने किसी गैर-आदिवासी से शादी कर ली है या फिर धर्म परिवर्तन कर लिया है. उसमें भी जो धर्म परिवर्तन के बाद दूसरे समाज या धर्म से सताई गई महिलाएं हैं, वो पैतृक संपत्ति में अधिकार मांग रही है. जो महिलाएं आज भी सरना आदिवासी हैं, वो अपनी परंपरा के अनुसार ही चल रही है. हमलोग सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को देख समझ रहे हैं, इसपर समाज में भी विस्तार से चर्चा हो रही है.’’
छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेता, इंदिरा गांधी और नरिसंहा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे अरविंद नेताम इसके पक्षधर नहीं हैं. वो कहते हैं, “कस्टमरी लॉ में आमतौर पर बदलाव नहीं होता. अगर होता भी है तो समाज करता है. कोर्ट के फैसले के आधार पर बदलाव का पक्षधर नहीं हूं. कस्टरमी लॉ देश के सामान्य कानून से बड़ा है. संविधान ने भी यही माना है, अगर दोनों में विवाद हो तो कस्टमरी लॉ बड़ा है.’’
वो आगे कहते हैं, “माननीय न्यायालय इस बात को जानता है. कोर्ट में कस्टरमी लॉ की सही से व्याख्या हुई नहीं. प्रॉपर्टी ऐसा मसला है, जहां झगड़ा होना ही है. हम अध्ययन कर रहे हैं, रिविजन पिटिशन की बात सामने आ रही है. इससे हमको एक शंका बढ़ रही गैर जरूरी विवाद की स्थिति पैदा होगी. देश में भू-माफिया सक्रिय हो जाएंगे. आदिवासियों का जमीन नहीं रहेगी. इस मुकदमे के पीछे भी भू-माफिया गैंग है.’’
ओडिशा कांग्रेस के प्रदेश सचिव और आदिवासी नेता लक्ष्मीधर सिंह तिउ महिलाओं को अधिकार देने के पक्ष में हैं. वे कहते हैं, “पहले भी अविवाहित आदिवासी महिलाओं को उनको गुजारा करने लायक मिलता था. अभी रूढ़ी के नाम पर किसी को उसके अधिकार से बेदखल नहीं किया जा सकता. नॉन ट्राइबल के पास जमीन का अधिकार चला गया तो समाज के लिए मुश्किल होगी. लेकिन महिलाओं को अधिकार देते हुए इसे कैसे रोका जाए, इसपर बहस होनी चाहिए.’’
कोर्ट ने अपने फैसले में और क्या कहा है
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि लिंग आधारित विरासत से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है. केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को संपत्ति देने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है.
इसके साथ ही, कोर्ट ने कहा कि जब तक कोई विशेष आदिवासी रिवाज या संहिताबद्ध कानून महिलाओं के अधिकारों को नहीं रोकता, तब तक न्याय, समता और सद्विवेक के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए.
अन्यथा, “महिलाओं (या उनकी संतानों) को संपत्ति से वंचित करना लिंग आधारित विभाजन और भेदभाव को और गहरा करेगा, जिसे कानून को समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिए.”
बहरहाल. अधिकार देश की संसद को देना है, समाज को देना है. जमीन की रक्षा और आदिवासी महिलाओं के अधिकार के बीच सुरक्षा और असुरक्षा की भावनाओं, शंकाओ को समाज और संसद दोनों को मिलकर दूर करना है. इन सब के बीच ये बात सर्वविदित है कि आदिवासियों की जमीन वैध और अवैध, दोनों तरीके से गैर-आदिवासियों द्वारा ली जा रही है.