विपक्षी इंडिया गठबंधन की सबसे मजबूत कड़ी मानी जाने वाली दो पार्टियों समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच अब तनाव बढ़ता लग रहा है. चुनावों में सीट-शेयरिंग की व्यवस्था, गौतम अदाणी जैसे उद्योगपतियों के प्रति कांग्रेस का आक्रामक रुख और गठबंधन के भीतर सपा की भूमिका जैसे कई मुद्दों पर इन दोनों सहयोगियों बीच असहमतियां और असंतोष सतह पर आने लगा है.
यह असंतोष आगे चलकर गहरी दरारों के रूप में सामने आ सकता है और इसका नतीजा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के साथ आने वाले दूसरे चुनावों को भी प्रभावित कर सकता है.
सीट-शेयरिंग और संसद में चल रहे गतिरोध पर असंतोष
इस कलह की सबसे जरूरी वजहों में से एक चुनावों में सीट-शेयरिंग को लेकर चल रही असहमति है. कांग्रेस ने राज्य स्तर पर मध्य प्रदेश, झारखंड और महाराष्ट्र सहित कई विधानसभा चुनावों के दौरान गठबंधन में अपनी चलाई और सीटों का बड़ा हिस्सा अपने पास रखा. इंडिया टुडे में अवनीश मिश्रा की रिपोर्ट के मुताबिक, समाजवादी पार्टी इस प्रक्रिया में खुद को हाशिये पर महसूस करती है, खासकर उत्तर प्रदेश के बाहर के राज्यों में.
सपा नेताओं ने चिंता जताई है कि कांग्रेस अपने हितों को प्राथमिकता दे रही है और अन्य प्रमुख राज्यों में सपा सहित अपने सहयोगियों को दरकिनार कर रही है. किनारे हो जाने की इस बढ़ती भावना ने दोनों दलों के बीच रिश्तों में खटास पैदा की है.
हाल ही में एक और विवाद लोकसभा में बैठने की व्यवस्था में बदलाव के रूप में सामने आया. ऐतिहासिक रूप से विपक्षी खेमे में बैठने वाली सपा तब नाराज हो गई जब कांग्रेस के कथित प्रभाव के कारण उसे अगली पंक्ति वाली अपनी सीट खोनी पड़ी. बदलाव से पहले, सपा के नेता अखिलेश यादव और फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद विपक्षी सांसदों के साथ अगली बेंचों पर बैठते थे. यह एक तरह से विपक्षी खेमे में पार्टी के महत्व का प्रतीक था. हालांकि, नई बैठक व्यवस्था के बाद प्रसाद को दूसरी पंक्ति में जगह मिली.
इस नई व्यवस्था को विपक्ष के भीतर सपा के कद पर एक प्रतीकात्मक झटके के रूप में देखा गया. अखिलेश यादव ने इसका संकेत देते हुए संसदीय सत्र के दौरान विपक्षी बेंचों की पिछली पंक्तियों में बैठना चुना. जब पत्रकारों ने इस बदलाव के बारे में पूछा, तो उन्होंने रहस्यमयी ढंग से जवाब देते हुए कहा, "धन्यवाद कांग्रेस." अखिलेश की टिप्पणी को निराशा की एक तीखी अभिव्यक्ति के रूप में देखा गया, जो दोनों दलों के बीच बढ़ती दरारों का इशारा था.
कांग्रेस पर दलित प्रतिनिधित्व की अनदेखी करने का आरोप
सपा के भीतर असंतोष को इस धारणा ने और बढ़ा दिया कि कांग्रेस अपने सामाजिक न्याय के एजेंडे को पर्याप्त सम्मान नहीं दे रही, खासकर दलित प्रतिनिधित्व के मामले में. इंडिया टुडे से बातचीत में, नाम न बताने की शर्त पर एक सपा नेता ने कांग्रेस की ओर से चुनावों में जीते दलित सांसदों, खासकर बीजेपी को हराने वाले सांसदों को सम्मानित करने में विफलता पर चिंता व्यक्त की. नेता ने तर्क दिया कि कांग्रेस की हरकतें सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध पार्टी होने के उसके दावों के उलट लगती हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सामाजिक न्याय एकतरफा मामला नहीं हो सकता और इसे केवल कांग्रेस के दलित सांसदों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए. उन्होंने सवाल किया कि कांग्रेस सामाजिक न्याय का समर्थन करने का दावा कैसे कर सकती है, जबकि वह बीजेपी को हराने वाले सपा के एक दलित सांसद को प्रतीकात्मक मान्यता देने में भी विफल रही. नेता ने इस तरह के प्रतीकात्मक इशारों को प्राथमिकता न देने के लिए कांग्रेस की आलोचना की, और तर्क दिया कि एकजुट और न्यायसंगत गठबंधन बनाए रखने के लिए यह जरूरी था.
हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कांग्रेस के खराब चुनावी प्रदर्शन से यह निराशा और बढ़ गई. सपा नेता ने सुझाव दिया कि इन क्षेत्रों में कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन ने इंडिया ब्लॉक के भीतर पार्टी के नेतृत्व पर सवाल खड़े किए. उनका कहना था कि अगर कांग्रेस इन महत्वपूर्ण राज्यों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है, तो पार्टी के लिए विपक्षी गठबंधन के भीतर अपना प्रभुत्व कायम करना मुश्किल होगा. उनका इशारा खासतौर पर उत्तर प्रदेश की ओर था जो बीजेपी के लिए किसी भी तरह की विपक्षी चुनौती के लिहाज से अहम राज्य है.
गौतम अदाणी पर ध्यान और प्राथमिकताओं में बदलाव
सपा और कांग्रेस के बीच असहमति का एक और कारण उद्योगपति गौतम अदाणी पर कांग्रेस का ज्यादा फोकस है. कांग्रेस ने वित्तीय अनियमितता और सत्तारूढ़ बीजेपी से संबंधों के आरोपों के बाद अदाणी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को आक्रामक तरीके से उठाया है. कांग्रेस इसे कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार और पूंजीवाद में भाई-भतीजावाद के ऐसे मुद्दे के रूप में देखती है, जिससे पूरा देश प्रभावित हो रहा है वहां सपा का मानना है कि इसके बजाय पार्टी का ध्यान कहीं और होना चाहिए.
सपा नेता और अखिलेश यादव के एक अहम करीबी कहते हैं कि बीजेपी का सांप्रदायिक एजेंडा और सत्ता के दुरुपयोग से अल्पसंख्यकों को हाशिये पर रखने की कोशिश विपक्ष के लिए सबसे जरूरी मुद्दा है. उनके अनुसार, असली लड़ाई संभल में सांप्रदायिक हिंसा जैसे मुद्दों पर होनी चाहिए. वे कहते हैं, "अदाणी जैसी कॉर्पोरेट हस्तियों पर फोकस करने के बजाय, सपा का मानना है कि विपक्ष को अपनी ऊर्जा को बीजेपी की विभाजनकारी नीतियों और देश के अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लगानी चाहिए. बीजेपी देश की कई जांच एजेंसियों को नियंत्रित करती है, जिससे इस बात की संभावना बहुत कम है कि अदाणी जैसे लोगों के खिलाफ कोई वास्तविक कार्रवाई की जाएगी."
कांग्रेस ने तनाव को कमतर आंका
तनाव के बढ़ते संकेतों के बावजूद, कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रसाद सिंह ने दोनों दलों के बीच किसी भी तरह की खटपट या तनाव से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि लोकसभा में बैठने की व्यवस्था स्पीकर का फैसला था, कांग्रेस का नहीं, और इसलिए पार्टी को इन बदलावों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए. अखिलेश प्रसाद सिंह ने जोर देकर कहा कि सपा और कांग्रेस के बीच कोई खास मतभेद नहीं हैं और दोनों दल इंडिया ब्लॉक के भीतर अपने गठबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं.
तनाव को कमतर आंकने का यह प्रयास सपा की ओर से जताए जा रहे सीधे असंतोष के उलट है. कांग्रेस का कहना है कि कोई मतभेद नहीं है, लेकिन सपा और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के बीच बढ़ती नज़दीकियों ने लोगों का ध्यान खींचा है. दरअसल अब चर्चा चल रही है कि इंडिया गठबंधन की अगुवाई कांग्रेस के बदले टीएमसी प्रमुख और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी करें. उनको सपा का समर्थन मिलने से इंडिया गठबंधन के भीतर सुलग रही चिंगारी में घी डालने का काम किया है. यह घटनाक्रम बताता है कि सपा कांग्रेस के साथ अपनी मौजूदा साझेदारी के विकल्पों पर विचार कर सकती है.
2027 में यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं. यादवों और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच अपने मजबूत आधार के साथ सपा विपक्ष की चुनावी सफलता की तलाश में एक प्रमुख खिलाड़ी है. हालांकि, अगर दोनों दलों के बीच दरार गहरी होती है, तो यह बीजेपी के खिलाफ एकजुट मोर्चा पेश करने की उनकी क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है. सपा-कांग्रेस गठबंधन के भविष्य का न केवल उत्तर प्रदेश पर बल्कि विपक्षी गठबंधन की व्यापक रणनीति पर भी खासा असर होगा. अगर दोनों दल अपने मतभेदों को नहीं सुलझा पाते हैं तो इससे विपक्ष के बीजेपी को विश्वसनीय चुनौती देने के प्रयासों में बड़ी बाधा आ सकती है, खासकर उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में जहां बीजेपी ने ऐतिहासिक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है.