19 अगस्त को जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ऑनलाइन गेमिंग संवर्धन एवं विरेगूलेशन विधेयक, 2025 को मंजूरी दी तो साफ था कि सरकार इस पर कितनी तेजी से आगे बढ़ना चाहती है. 24 घंटे के भीतर इसका मसौदा संसद में पेश कर दिए जाने से ये और भी स्पष्ट हो गया कि नरेंद्र मोदी सरकार भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था में सबसे महत्वाकांक्षी नियामक सुधारों में से एक को जल्द से जल्द लागू करना चाहती है.
उपभोक्ता संरक्षण और युवा कल्याण के नाम पर लाए गए इस बिल के पीछे राजनीतिक समीकरण, सामाजिक दबाव और आर्थिक व्यवधान की एक लंबी गाथा छिपी है, जिसका असर गेमिंग से इतर तमाम उद्योगों पर भी पड़ सकता है. कई लोग इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से पिछले साल स्वतंत्रता दिवस पर की गई उस घोषणा से एकदम उलट मान रहे हैं जिसमें उन्होंने भारत को वैश्विक गेमिंग बाजार में अग्रणी बनाने की आकांक्षा जताई थी.
तब मोदी ने कहा था कि भारत को अपनी समृद्ध प्राचीन विरासत और साहित्य का लाभ उठाकर मेड इन इंडिया गेमिंग उत्पाद बनाने चाहिए. यही नहीं, उन्होंने भारतीय पेशेवरों से न सिर्फ खेलने बल्कि गेम तैयार करने में भी वैश्विक गेमिंग बाजार का नेतृत्व करने का आह्वान किया था.
सरकार में बैठे लोगों का तर्क है कि अब असली पैसे लगाकर गेम खेलने पर नकेल कसने के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है. महीनों से सरकार पर असली पैसे वाले गेमिंग यानी एक तरह से जुआं खेलने से जुड़ी त्रासद घटनाओँ की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के लिए दबाव बढ़ रहा था.
कई माता-पिता शिकायत कर रहे थे कि टीनएजर डिजिटल वॉलेट पर उधार लेकर कर्ज के जाल में फंस रहे हैं; युवा पेशेवर कुछ ही समय में ज्यादा दांव वाले खेल में पैसे लगाकर अपनी पूरी तनख्वाह गंवा रहे हैं; और छोटे शहरों में, ऑनलाइन जुएं में हार से जुड़ी आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाएं भी लगातार चिंताएं बढ़ा रही थीं. लोगों में ये भावना बढ़ रही थी कि शराब या ड्रग्स की लत की तरह गेमिंग प्लेटफॉर्म भी एक सामाजिक खतरा बनते जा रहे हैं.
राज्य सरकारों, खासकर दक्षिण में, ने प्रतिबंध की कोशिश की थी लेकिन अदालतों ने उन्हें खारिज कर दिया. ऐसे में केंद्र की तरफ से कोई दखल न किया जाना यही दिखा रहा वो इस मुद्दे की अनदेखी कर रहा है. ऐसे में संघ परिवार के पदाधिकारियों ने कदम आगे बढ़ाए और सरकार पर वैचारिक दबाव डाला. खासकर स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) ने ऑनलाइन गेमिंग को नैतिक अर्थव्यवस्था का मुद्दा बनाया और इसे घरेलू बचत और पारंपरिक मूल्यों के लिए खतरा बताया.
इस तर्क की गूंज बीजेपी के भीतर भी सुनाई दी- सट्टा आधारित खेल उत्पादक पूंजी पैदा नहीं कर रहे बल्कि परिवारों को बर्बाद कर रहे है, और सबसे बुरी बात तो ये है कि भारतीय युवा इसके जाल में उलझते जा रहे हैं. बंद कमरों में विचार-विमर्श के दौरान संघ पदाधिकारियों ने औपनिवेशिक काल के अफीम और शराब के व्यापार से इसकी तुलना की, जिसके बारे में उन्होंने कहा कि इसने समुदायों को भीतर से कमज़ोर कर दिया. जब तक कैबिनेट नोट सर्कुलेट होता तब तक संघ की तरफ से बढ़ाए गए दबाव को नजरअंदाज करना असंभव हो चुका था.
विधेयक अपने आप में काफी व्यापक है. और असली पैसे वाले गेम पूरी तरह प्रतिबंधित करता है. यही नहीं, मशहूर हस्तियों, एथलीट और सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर्स की तरफ से किए जाने वाले प्रचार को इसमें अपराध की श्रेणी में रखा गया है. यह नियामकों को असाधारण शक्तियां प्रदान करता है, जिसमें बिना वारंट तलाशी और जब्ती शामिल है. इसमें अधिकारियों को तलाशी के लिए किसी परिसर में प्रवेश करने, सर्वर जब्त करने और बिना किसी पूर्व न्यायिक निगरानी के खाते फ्रीज करने तक की अनुमति दी गई है. करोड़ों का जुर्माना, बार-बार अपराध दोहराने पर जेल की सजा का भी प्रावधान किया गया है. वर्षों से नियामकीय अस्पष्टता के बीच फलते-फूलते रहे गेमिंग क्षेत्र के लिए ये सब कुछ पूरी तरह से बदल देने वाला है.
भारत की सेलिब्रिटी इकोनॉमी पर इसका असर तुरंत दिखाई देगा. पिछले तीन वर्षों में गेमिंग प्लेटफॉर्मों के विज्ञापन क्रिकेटरों, बॉलीवुड सितारों और डिजिटल इनफ्लूएंसर्स के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत बन गए थे. उनकी कमाई का ये स्रोत रातो-रात बंद हो जाएगा, और टैलेंट एजेंसियों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. सबसे बड़े विकासशील बाजारों में से एक भारत में कमाई की अच्छी संभावनाएं देखकर वेंचर-आधारित कई कंपनी वैश्विक पूंजी के साथ इस क्षेत्र में सक्रिय थीं.
फैंटेसी स्पोर्ट्स, पोकर, रमी जैसे तमाम प्लेटफॉर्म पूरी तरह खत्म होने के कगार पर पहुंच गए हैं, जो असली पैसे लगाकर खेले जाने वाले गेम में सक्रिय थे. निवेशकों ने इस क्षेत्र में अरबों डॉलर लगाए थे, क्योंकि उन्हें भरोसा था कि भारत की अदालतें स्किल-बेस्ड गेमिंग को पूर्ण प्रतिबंधों से बचाएंगी. लेकिन यह दांव उल्टा पड़ गया है.
कैबिनेट के फैसले के बाद भारतीय बाजारों की प्रतिक्रिया काफी विरोधाभासी दिखी और कई सूचीबद्ध तकनीकी और गेमिंग कंपनियों के शेयरों में उछाल दर्ज किया गया. इसकी वजह निवेशकों का ये अनुमान ही रहा है कि ग्रे-जोन वाली प्रतिस्पर्धा खत्म होने से उन क्षेत्रों में अवसर मजबूत होंगे जिन्हें सरकार अनुमति योग्य मानती है-मसलन कैजुअल, स्किल-बेस्ड और एजुकेशन गेमिंग. कुछ लोगों का अनुमान है कि अनिश्चितता से घबराकर ग्लोबल स्टूडियो अपने कदम पीछे खींच लेंगे और घरेलू कंपनियों को इस क्षेत्र में अपना दबदबा स्थापित करने का पूरा मौका मिलेगा. इस लिहाज से रेगूलेशन से लाभ उठाने के लिए पूंजी पहले ही अलग दिशा में मोड़ी जाने लगी थी, जिससे सैकड़ों स्टार्ट-अप के सामने अस्तित्व का खतरा मंडराने लगा है.
बीजेपी को दिखा राजनीतिक फायदा
मोदी सरकार का गणित एकदम सीधा है- राजनीतिक लाभ आर्थिक लागत से कहीं ज्यादा बढ़कर है. घातक साबित होने वाले उद्योगों के खिलाफ अपनी भूमिका को परिवार के संरक्षक के तौर पर सामने रखना जाति, वर्ग और क्षेत्र की राजनीति से कहीं ज्यादा मायने रखता है. अर्ध-शहरी और ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में ऑनलाइन गेमिंग की लत के शिकार युवाओँ के कर्ज के जाल में फंसने और घर-परिवार के गहने तक गिरवी रखने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं.
दक्षिणी राज्यों, जहां अदालतों ने राज्य-स्तरीय प्रतिबंधों को पलट दिया था, केंद्र के निर्णायक दखल से बीजेपी को इस मुद्दे पर बढ़त हासिल करने का मौका मिल गया है जिसमें क्षेत्रीय दल नाकाम रहे थे. ये रेगूलेशन को केंद्रीकृत करके सरकार ने न केवल एक जटिल संघीय मुद्दा सुलझा रही है बल्कि एक ऐसे डिजिटल क्षेत्र पर केंद्र के अधिकार को भी स्थापित करती है जिसे कभी पारंपरिक शासन से परे माना जाता था.
प्रतीकवाद तो इससे भी कहीं आगे निकल जाता है. दुनियाभर में सरकारें ऑनलाइन गेमिंग की ज्यादतियों के खिलाफ कदम उठा रही हैं. चीन ने युवाओं के खेलने पर सख्त प्रतिबंध लगा रखा है, यूरोप जुएं से जुड़े नियम कड़े कर रहा है, और अमेरिका में भी सरकार के स्तर पर कार्रवाई हुई है. ऐसे में भारत में इसकी अनुमति देने वाला रुख दुनियाभर से अलग ही नजर आ रहा था.
यह विधेयक लाकर सरकार ने खुद को वैश्विक रुख के साथ तो जोड़ा ही है, ये संकेत भी दे दिया है कि उसकी डिजिटल अर्थव्यवस्था किसी स्थिति में सरकारी दखल से परे नहीं है, बल्कि नैतिक और राजनीतिक निगरानी के अधीन है. जैसा, वर्षों इस क्षेत्र में काम करने वाले एक अर्थशास्त्री का कहना है, “इस हथियार की धार कुंद भले हो लेकिन इसका होना बेहद जरूरी है. जब बाजार सेल्फ-रेगूलेशन में विफल होते हैं और समाज को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है, ऐसे में सरकार को भी अपनी भूमिका निभानी पड़ती है.”
हालांकि लंबे वक्त में क्या होगा, ये कहना मुश्किल है. भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था वैश्विक निवेशकों का भरोसा बढ़ने के कारण फली-फूली है, और अचानक व्यापक प्रतिबंधों से पूर्वानुमान की ये धारणा कमजोर पड़ने का जोखिम है. वेंचर कैपिटल फंड्स भारतीय स्टार्ट-अप्स के प्रति अपनी दिलचस्पी को लेकर फिर सोच-विचार करने लगे हैं. उन्हें चिंता है कि कहीं अन्य हाई-ग्रोथ क्षेत्रों में इसी तरह की कार्रवाई का सामना न करना पड़ जाए. कहीं अनुमति प्राप्त श्रेणियों में आने वाली कंपनियों को भी अनुपालन लागतों और वारंट रहित शक्तियों से लैस रेगूलेटरों का सामना न करना पड़ जाए. उद्यमियों के लिए यह विधेयक इस बात को संकेत है कि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में सामाजिक स्थिरता नवाचार पर भारी पड़ सकती है.
बहरहाल, सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए इसके राजनीतिक लाभ भी बेहद आकर्षक हैं. ये विधेयक पार्टी के समाज में नैतिकता के संरक्षण होने के उसके नैरेटिव से बखूबी मेल खाता है: युवाओं की सुरक्षा, परिवारों की सुरक्षा और आधुनिकता की होड़ में मूल्यों को नुकसान पहुंचाने वाली चीजों पर अंकुश लगाना आदि. अब, चुनावी रैलियों में इस विधेयक का जिक्र इस तरह सुनने के लिए तैयार रहें कि मोदी सरकार ‘डिजिटल लत’ के कारण घरों को बर्बाद नहीं होने देगी. कैबिनेट की मंजूरी के तुरंत बाद इसे संसद में पेश किया जाना, सिर्फ नियामक उपाय से बढ़कर इसके राजनीतिक निहितार्थों को भी रेखांकित करता है.
पूंजी और संस्कृति के बीच संघर्ष में सरकार ने संस्कृति को चुनना बेहतर समझा. राज्य सरकारों और अदालतों में रस्साकशी जारी रहने के बीच केंद्र की तरफ से उठाए गए इस कदम ने केंद्रीय सत्ता को फिर से स्थापित किया है. नवाचार और नैतिकता के बीच संतुलन में इसने पूरी दृढ़ता के साथ नैतिकता का पक्ष लिया. ऑनलाइन गेमिंग विधेयक भविष्य में डिजिटल विरेगूलेशन के लिए एक आदर्श बनेगा या सिर्फ अनावश्यक दखल की वजह, ये तो इसके कार्यान्वयन पर निर्भर करेगा. फिलहाल, तो एक ही बात कही जा सकती है कि सरकार न सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि समाज के नैतिक ताने-बाने पर निगरानी रखने के अपने अधिकार पर दावा जता रही है.
इसलिए, ऑनलाइन गेमिंग विधेयक एक कानून से कहीं आगे बढ़कर है. ये आमतौर पर किसी भी फैसले के नतीजों के आधार पर फूंक-फूंककर कदम रखने वाली सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचायक है. निवेशकों के लिए संदेश साफ है: सामाजिक व्यवस्था की कीमत पर कोई मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता. इसमें मतदाताओं के लिए भी एक संदेश छिपा है कि जरूरत पड़ने पर सरकार आक्रामक तरीके से हस्तक्षेप करेगा, ताकि परिवारों को उन त्रासदियों से बचाया जा सके, जो उनके लिए बेहद पीड़ाकारी साबित हो सकती हैं. सियासी दाव-पेंचों के इस दौर में यह विधेयक नीति और राजनीति दोनों बन गया है. ये दर्शाता है कि मोदी सरकार विकास, नैतिकता और नियंत्रण के बीच संतुलन को किस नजरिए से देखती है.