संभल में जब शाही जामा मस्जिद के सर्वे को लेकर जिला अदालत ने हामी भरी, तब मुस्लिम पक्ष ने पूजा स्थल कानून, 1991 की दुहाई देते हुए इसे रोकने की मांग की थी. इस मुद्दे पर संभल में हिंसा भी हुई जिसमें पांच लोगों की मौत हो गई. यह विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि राजस्थान स्थित अजमेर शरीफ दरगाह में भी ऐसे ही सर्वे को लेकर 'हिंदू सेना' नाम के एक संगठन ने याचिका दायर कर दी.
संभल और अजमेर जैसे और भी कुछ मामलों के विवाद के बीच अब पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के ज्ञानवापी वाले फैसले की आलोचना की जा रही है जिसमें पूजा स्थल कानून, 1991 को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे की इजाजत दी थी. उसी हवाले में चंद्रचूड़ पर निशाना साधते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू ने उन्हें अवसरवादी बताते हुए कहा है कि वे सीजेआई बनने के लिए कुछ गलत फैसले सुनाने को भी तैयार थे.
चंद्रचूड़ की आलोचना से पहले यह समझना जरूरी है कि किन मामलों में उनका ज्ञानवापी वाला फैसला घातक सिद्ध हो रहा है और क्या है पूजा स्थल कानून, 1991 जिससे इन ऐतिहासिक धार्मिक इमारतों को संरक्षण मिल रहा था.
19 नवंबर को विष्णु शंकर जैन की याचिका के बाद संभल में शाही जामा मस्जिद का अदालत की ओर से सर्वे करने का आदेश दिया गया. याचिका में कहा गया कि मस्जिद का निर्माण साल 1529 में हरिहर मंदिर को नष्ट करने के बाद किया गया था. याचिका में ब्रिटिश पुरातत्वविद् ए.सी.एल. कार्लाइल की 1879 की रिपोर्ट जैसे साक्ष्यों का हवाला दिया गया था. अदालत ने तब मुस्लिम पक्ष की दलीलों को दरकिनार करते हुए सर्वे का आदेश दिया.
पहला सर्वे तो जैसे-तैसे गुजरा मगर 24 नवंबर को जब दूसरी बार सर्वे की कोशिश की गई तब हिंसा भड़क उठी. मस्जिद में खुदाई को लेकर फैली गलत सूचना ने विरोध प्रदर्शन को जन्म दिया, जिसके बाद पुलिस के साथ झड़पें हुईं. एक नाबालिग सहित पांच मुस्लिम मारे गए, और कई अन्य घायल हो गए.
इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार कौशिक डेका का मानना है कि यह अशांति कानूनी कार्रवाइयों के माध्यम से ऐतिहासिक शिकायतों पर फिर से विचार करने के जोखिमों को उजागर करती है. बाबरी मस्जिद विवाद के बाद इस तरह के संघर्षों को रोकने के लिए 1991 में बनाए गए पूजा स्थल कानून, 1991 का उद्देश्य पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को उसी तरह संरक्षित करना था जैसा वे 15 अगस्त, 1947 को थे.
आलोचकों का तर्क है कि याचिका और सर्वे के आदेश को न्यायलय की ओर से जल्दबाजी में स्वीकार करने से इस कानून की भावना का उल्लंघन हुआ, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा.
कौशिक बताते हैं, "संभल और अजमेर की घटनाएं एक बड़े चलन का हिस्सा हैं. हाल के वर्षों में पूरे भारत की अदालतें इसी तरह की याचिकाओं पर विचार कर रही हैं. 2022 में, ज्ञानवापी मस्जिद मामले ने कथित तौर पर एक सर्वेक्षण में शिवलिंग जैसी संरचना पाए जाने के बाद पूरे देश का ध्यान खींचा. यह मामला भी अभी अदालत में ही है, जिसमें मुस्लिम प्रतिनिधियों का तर्क है कि संरचना एक फव्वारा है. ये कानूनी लड़ाइयां, जो अक्सर विवादित ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित होती हैं, भारत के धार्मिक स्थलों की यथास्थिति को चुनौती देने के बढ़ते प्रयास को दर्शाती हैं. इन विवादों का कानूनी आधार अक्सर पूजा स्थल कानून, 1991 पर निर्भर करता है, जो यह अनिवार्य करता है कि 1947 के अनुसार पूजा स्थलों का धार्मिक चरित्र अपरिवर्तित रहना चाहिए. हालांकि, यह कानून धार्मिक स्थलों की ऐतिहासिक उत्पत्ति की जांच को स्पष्ट रूप से नहीं रोकता, जिसका अब फायदा उठाया जा रहा है."
2022 में, मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी कि यह कानून किसी स्थल के "मूल चरित्र" के निर्धारण को नहीं रोकता. इस मामले पर पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज मार्कण्डेय काटजू ने पंजाब टुडे न्यूज़ पर एक लेख लिखा. उनका कहना था कि मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने बेईमानी से टिप्पणी की कि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 किसी संरचना के धार्मिक चरित्र का पता लगाने पर रोक नहीं लगाता. दूसरे शब्दों में, उन्होंने सुझाव दिया कि अदालतें किसी पूजा स्थल की ऐतिहासिक पहचान की जांच कर सकती हैं, भले ही ऐसी खोजों से उसकी वर्तमान स्थिति में कोई बदलाव न हो.
मार्कण्डेय काटजु ने लिखा, "अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 के बाद किसी संरचना के धार्मिक चरित्र को बदला नहीं जा सकता है. इस कानून का उद्देश्य धार्मिक संरचनाओं के बारे में विवादों को खत्म करना था. भले ही 1947 से पहले किसी हिंदू मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई हो, लेकिन कानून के तहत उसे फिर से हिंदू मंदिर में नहीं बदला जा सकता. चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी के कारण मस्जिदों पर सर्वे होने लगे, जिसमें साइट पर हिंदू मंदिरों के अवशेष खोजने के लिए खुदाई भी शामिल है. यह चंद्रचूड़ फैसले से फैला स्पष्ट भ्रम था और महाभारत में युधिष्ठिर के अस्पष्ट कथन - नरो वा, कुंजरो वा की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने झूठा दावा किया था कि अश्वत्थामा मर चुका है."
Chandrachud was a rank careerist throughout his judicial career. He was willing to give dishonest judgments whenever he thought that delivering an honest one might jeopardize his chance of becoming CJI. A typical example was his dishonest judgment in the Babri Masjid case.
— Markandey Katju (@mkatju) December 2, 2024
वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे और कॉलिन गोंजाल्विस सहित कानूनी विशेषज्ञों ने भी पूजा स्थल कानून, 1991 की इस व्याख्या की आलोचना की और चेतावनी दी कि इससे अदालतों को सांप्रदायिक विवादों के अखाड़े में बदलने का जोखिम है.
अपने लेख में काटजू सिर्फ इस व्याख्या तक नहीं रुके और उन्होंने यह भी बताया कि क्यों चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी केस में यह फैसला सुनाया. वे लिखते हैं, "जाहिर है, क्योंकि उस समय वे सीजेआई नहीं थे और वे इस पद को पाने की अपनी संभावनाओं को खतरे में नहीं डालना चाहते थे. उन्हें शायद डर था कि अगर उन्होंने इस मुकदमे को कानून के तहत अस्वीकार करार दिया, तो बीजेपी नाराज हो सकती है और उन्हें हटा सकती है."
आखिर में काटजू ने यह लिखकर अपनी बात ख़त्म की कि चंद्रचूड़ ने भारत को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है. वे बीजेपी के साथ खुद को खुश करने में लगे हैं, जो संभवतः उन्हें पुरस्कृत करेगी जैसा कि उसने एक अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के साथ किया था. उनके कामों ने खतरनाक मिसाल कायम की है जो सांप्रदायिक संघर्ष को और बढ़ा सकती है, और पहले से ही ध्रुवीकृत समाज में विभाजन और गहरा हो सकता है.
कांग्रेस पार्टी ने भी न्यायपालिका पर धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कमजोर करने का आरोप लगाते हुए कड़ा विरोध जताया है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश न्यायपालिका की आलोचना करते हुए कहते हैं कि उसने "भानुमती का पिटारा" खोल दिया है और पूजा स्थल कानून, 1991 के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराई है.
शाही जामा मस्जिद और इसी तरह के मामलों से जुड़ा विवाद सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने वाली कानूनी कार्रवाइयों की संभावना के बारे में चिंता पैदा करता है. आलोचकों का भी तर्क है कि ऐतिहासिक स्थलों की धार्मिक यथास्थिति को चुनौती देने वाले ऐसे प्रयास भारत के सामाजिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष नींव के लिए खतरा हैं. इन मामलों का नतीजा न केवल ऐतिहासिक स्मारकों के भाग्य का फैसला करेगा, बल्कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव के भविष्य को भी आकार देगा.

