हरियाणा के बाद अब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिली हार ने एक बार फिर देश के राजनीतिक पटल पर और इंडिया ब्लॉक के भीतर कांग्रेस की कमजोर स्थिति को उजागर कर दिया है. इस साल जून में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अपेक्षाकृत सफलता मिली थी जहां इसने कुल 99 सीटें हासिल कीं. यह एक ऐसा आंकड़ा था जिस पर कांग्रेस खेमा अपने पिछले एक दशक के प्रदर्शन को देखते हुए खुश था. हालांकि, पार्टी की बढ़त मुख्य रूप से उन इलाकों तक ही सीमित रही, जहां इसने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए मजबूत सहयोगियों पर बहुत अधिक निर्भरता दिखाई.
इन 99 में से 36 सीटें उन राज्यों में मिलीं, जहां कांग्रेस क्षेत्रीय सहयोगियों की अगुआई में काम कर रही थी. इससे उसे वोट ट्रांसफर से काफी फायदा पहुंचा. हालांकि, उन सीटों पर जहां कांग्रेस ने चाहे सीधे तौर पर या फिर किसी तीसरे पक्ष की मौजूदगी में बीजेपी का सामना किया, उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा. ऐसी स्थिति में लड़ी गई 168 सीटों में से कांग्रेस महज 30 सीटें ही निकाल पाई. केरल, पंजाब, तेलंगाना, नागालैंड, मेघालय, लक्षद्वीप और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी को अतिरिक्त जीत मिली, जहां बीजेपी की मौजूदगी मामूली है या जहां उसके सहयोगी दलों ने मुकाबले में बढ़त बनाई है.
बहरहाल, लोकसभा चुनावों में बीजेपी को बहुमत न मिलने पर कांग्रेस की खुशी के सामने ये छोटी लेकिन अहम बातें दब गईं, जो मई के बाद हुए विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान सामने आईं. आम चुनावों के बाद से कांग्रेस को कई चुनावी झटके लगे हैं. पार्टी को पहले हरियाणा में हार मिली, जम्मू-कश्मीर में प्रदर्शन खराब रहा और अब महाराष्ट्र में मिली हार ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया है. महाराष्ट्र में पार्टी का 16 फीसद का बेहद खराब स्ट्राइक रेट रहा है. महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन के तहत उसने जिन 101 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से सिर्फ 16 पर ही जीत हासिल की. यह उसके घटते प्रभाव को बताता है.
इसके अलावा महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और वरिष्ठ नेता बालासाहेब थोराट सहित कई हाई-प्रोफाइल नेताओं की हार ने कांग्रेस की पराजय को और भी जटिल बनाने का काम किया है. यहां तक कि राज्य कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले भी बमुश्किल 200 से ज्यादा वोटों के अंतर से ही चुनाव जीत पाए. यह लोकसभा चुनावों के दौरान हासिल किए गए 76 फीसद के स्ट्राइक रेट के बिल्कुल उलट है, जहां कांग्रेस ने महाराष्ट्र में 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 13 सीटें जीती थीं.
कांग्रेस के लिए व्यापक चुनावी तस्वीर भी कम चिंताजनक नहीं है. पार्टी ने अलग-अलग राज्यों के विधानसभा उपचुनावों में भी संघर्ष किया है, बीजेपी के मुकाबले उसका प्रदर्शन खराब रहा और उसने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और आम आदमी पार्टी (आप) जैसे इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों से भी कमतर प्रदर्शन किया. कर्नाटक में तीनों सीटें जीतने और मध्य प्रदेश में एक सीट बरकरार रखने के अलावा राजस्थान, असम, पंजाब और गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन फीका रहा. इस तरह, पार्टी के लिए एक और चुनावी कैलेंडर वर्ष का समापन हुआ जिसमें जश्न मनाने के लिए कुछ खास नहीं था.
असम में खासतौर पर पार्टी को एक सांकेतिक झटका लगा, जब उसे सामगुरी विधानसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा. साल 2001 से ही यह सीट वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री रकीबुल हुसैन के पास थी. इस साल की शुरुआत में रकीबुल ने ऐतिहासिक जीत के साथ लोकसभा में पदार्पण किया. उन्होंने धुबरी में ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल को 10 लाख वोटों के रिकॉर्ड अंतर से हराया, जो पूरे देश में सबसे अधिक है.
हालांकि, हाल ही में संपन्न उपचुनाव में पार्टी को अप्रत्याशित रूप से हार का सामना करना पड़ा है. यह सीट मुस्लिम बहुल है और इस सीट से चुनाव लड़ रहे रकीबुल के बेटे को बीजेपी के एक ब्राह्मण उम्मीदवार ने 27,000 वोटों के बड़े अंतर से हराया. एक अन्य झटके में कांग्रेस नेता गौरव गोगोई ने राज्य कांग्रेस नेतृत्व और सहयोगी दलों की आपत्तियों को खारिज करते हुए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र में एक नए कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन किया. लेकिन वह उम्मीदवार भी 9,000 से अधिक वोटों से हार गया.
इधर, झारखंड में इंडिया ब्लॉक की जीत का श्रेय मुख्य रूप से झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को गया, जिसने 79 फीसद की स्ट्राइक रेट के साथ 43 सीटों में से 34 सीटें जीतीं. दूसरी ओर, कांग्रेस सिर्फ 53 फीसद स्ट्राइक रेट ही हासिल कर सकी. उसने लड़ी गई कुल 30 में से 16 सीटें जीतीं. इंडिया ब्लॉक की एक अन्य सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने भी कांग्रेस को पछाड़ दिया, उसने अपनी सभी चार सीटों पर जीत हासिल की.
ये सभी नतीजे बीजेपी की मुश्किल से भेदे जाने वाले चुनावी मशीनरी को चुनौती देने की कांग्रेस की क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं. महाराष्ट्र में छह प्रमुख दलों में से कांग्रेस को सिर्फ 16 सीटें मिलीं, जो 12.42 फीसद के दूसरे सबसे ज्यादा वोट शेयर के बावजूद पांचवें स्थान पर रही. यहां बीजेपी को 27 फीसद वोट शेयर हासिल हुए यानी कांग्रेस से करीब दोगुने से अधिक. लगभग समान वोट शेयर के साथ शिवसेना ने 57 सीटें जीतीं, जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने सिर्फ नौ फीसद वोट शेयर के साथ 41 सीटें हासिल कीं.
जीत की यह असमानता सहयोगियों के साथ सीट के बंटवारे की बातचीत में कांग्रेस की कमियों, गलत टिकट वितरण, कमजोर चुनाव प्रबंधन और इसकी असमान क्षेत्रीय लोकप्रियता को सामने लाती है. महाराष्ट्र जैसे रणनीतिक रूप से अहम राज्य में हार न सिर्फ कांग्रेस की चुनावी हसरतों के लिए बल्कि इंडिया ब्लॉक के एंकर के रूप में इसकी भूमिका के लिए भी एक बड़ा झटका है. पार्टी के फीके प्रदर्शन ने गठबंधन के भीतर की दरारों को और उजागर कर दिया है, क्योंकि ममता बनर्जी की टीएमसी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी (एसपी) जैसे क्षेत्रीय दिग्गज खुद के दम पर बीजेपी को चुनौती देने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल के उपचुनावों में टीएमसी ने सभी छह सीटें जीतीं और अपनी जीत का अंतर बढ़ाया. इसने मजबूत क्षेत्रीय दलों वाले राज्यों में कांग्रेस की घटती प्रासंगिकता को बताया. बंगाल के नतीजों ने यह भी संकेत दिया कि आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर की बलात्कार-हत्या और भ्रष्टाचार के आरोपों जैसे मुद्दे, जिन पर विपक्ष ने चुनाव अभियान के दौरान काफी भरोसा किया था, उसका नतीजों पर बहुत कम प्रभाव पड़ा.
बहरहाल, आगे की ओर देखें तो आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव इंडिया ब्लॉक के भीतर कांग्रेस के लिए एक लिटमस टेस्ट की तरह होगा. कांग्रेस और 'आप' दोनों ने गठबंधन से इनकार कर दिया है. इस मुकाबले से पता चलेगा कि क्या कांग्रेस खुद को बीजेपी विरोधी राजनीति की धुरी के रूप में पेश कर सकती है या फिर गठबंधन के लिए एक बोझ बनी रहेगी.
महाराष्ट्र के नतीजों पर कांग्रेस ने बीजेपी द्वारा चुनावी धांधली के आरोपों पर लोगों का ध्यान केंद्रित करने का एक ठोस प्रयास किया. हरियाणा की तरह यहां भी पार्टी ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यूबीटी) के साथ मिलकर जनादेश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इसके बजाय, कांग्रेस मुख्यालय ने दिन भर प्रियंका गांधी वाड्रा की वायनाड की सुरक्षित सीट से पहली चुनावी जीत पर प्रकाश डाला. हालांकि, लंबे समय में ऐसी कवायदें पर्याप्त नहीं होंगी. एक व्यक्ति की जीत को पार्टी के लिए समर्थन बताना, सत्ता-विरोधी भावना और तात्कालिक मुद्दों पर पार्टी की निर्भरता, जनता के समर्थन को चुनावी जीत में बदलने में सक्षम मजबूत संगठनात्मक ढांचे की गैरमौजूदगी में नाकाफी साबित हुई है.
आत्ममंथन की जरूरत को समझते हुए कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद बड़े पैमाने पर संगठनात्मक बदलाव करने का फैसला किया है. 2022 में उदयपुर चिंतन शिविर और 2023 में रायपुर के पूर्ण अधिवेशन में कांग्रेस ने अपने सामने आने वाली चुनौतियों और उसके संभावित हल की स्पष्ट समझ दिखाई. पार्टी के पारंपरिक ढांचे में जड़ से बदलाव करके उन विचार-विमर्शों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चल रहा पुनर्गठन कथित तौर पर अपने अंतिम चरण में है.
ऐसे में यह देखना अभी बाकी है कि क्या यह कांग्रेस के लिए एक निर्णायक मोड़ है या उसके दीर्घकालिक पतन का एक और अध्याय मात्र है. फिलहाल, पार्टी एक चौराहे पर खड़ी है और बीजेपी के खिलाफ एक विश्वसनीय विपक्ष के रूप में उसकी भूमिका अधर में लटकी हुई है.