इन दिनों जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के आला नेता राष्ट्रवाद का नारा लगाने, अपनी ताकत दिखाने और 'ऑपरेशन सिंदूर' की चर्चा को बढ़ावा देने में व्यस्त हैं, वहीं केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान कुछ बिलकुल अलग कर रहे हैं - वे पदयात्रा कर रहे हैं.
मध्य प्रदेश के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान अब केंद्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्री हैं. उन्होंने 25 मई को अपने गृह जिले सीहोर से जमीनी स्तर की पदयात्रा शुरू की. आधिकारिक तौर पर उनकी यह यात्रा विकसित भारत संकल्प यात्रा का हिस्सा है.
लेकिन राजनीतिक रूप से यह एक संकेत है - दिल्ली के सत्ता के गलियारों में खुद को फिर से स्थापित करने का एक बारीक और व्यवस्थित प्रयास, क्योंकि बीजेपी नेतृत्व 2029 के बाद की बड़ी चुनौती का सामना करने की तैयारी कर रहा है.
यह सामान्य अर्थों में निजी ब्रांडिंग का प्रयास नहीं है. चौहान न तो डिजिटल छवि गढ़ रहे हैं और न ही आक्रामक राष्ट्रवाद का दिखावा कर रहे हैं. इसके बजाय, वे उस पुराने राजनीतिक अंदाज की ओर लौट रहे हैं जो आज की बीजेपी में लगभग पुराना सा लगता है. पार्टी की पुरानी शैली में लोगों से आमने-सामने की बातचीत, भावनात्मक जुड़ाव और स्थानीय भाषा का इस्तेमाल शामिल होता था, जो आज के सोशल मीडिया और दिल्ली के रसूखदार गलियारों की गूंज के बरक्स काफी अलग है.
एक ऐसे राजनीतिक माहौल में, जहां अब 'कमांड और कंट्रोलिंग मैसेजिंग' और राष्ट्रवादी जोश हावी है, चौहान बीजेपी के नरम और अधिक सहानुभूतिपूर्ण चेहरे की भूमिका निभा रहे हैं. एक ऐसा चेहरा जो जान-पहचान के जरिए चुपके से जनता का विश्वास जीतता है.
यह कदम बीजेपी के भीतर छोटे लेकिन अहम बदलाव के समय उठाया गया है. जे.पी. नड्डा का राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में विस्तारित कार्यकाल प्रभावी रूप से समाप्त हो चुका है, और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उत्तराधिकारी के नामकरण में देरी कर रहा है. यह देरी जानबूझकर की गई है. नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी इस बात से पूरी तरह वाकिफ है कि जो भी अगला अध्यक्ष बनेगा, वह 2029 के बाद के राजनीतिक गठबंधनों का केंद्र बिंदु बन सकता है. पार्टी के भीतर सत्ता के किसी भी समानांतर केंद्र को प्रोत्साहित करने की कोई इच्छा नहीं है, फिर भी यह शून्य हमेशा के लिए खाली नहीं रह सकता.
इसी शून्य में चौहान अपना कदम बढ़ा रहे हैं, अपने बिना टकराव वाले, लगभग सादगी भरे अंदाज में. उनकी उम्मीदवारी को प्रेस ब्रीफिंग या टेलीविजन बहसों के जरिए आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है. इसके बजाय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक बड़े वर्ग द्वारा इसे चुपके से आगे बढ़ाया जा रहा है, जो उनमें वैचारिक मेल-मिलाप, राजनीतिक संयम और जन स्वीकार्यता का दुर्लभ संयोजन देखता है.
आरएसएस और बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नई लीडरशिप की तलाश में है जो बीजेपी की देश के अलग-अलग भौगोलिक और विविध आबादी वाले क्षेत्रों में विस्तार की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ा सके. क्या अगला अध्यक्ष उनकी अपनी शैली का होगा, युवा वर्ग से, संघ का कट्टर वैचारिक व्यक्ति, या कोई ऐसा जो गठबंधन बनाने या जातिगत समीकरणों और भौगोलिक समीकरणों के साथ प्रयोग करने की क्षमता रखता हो? इस पर बहस जारी है.
ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि में बीजेपी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष की तलाश और प्रदेश अध्यक्षों के चुनाव को कुछ समय के लिए रोक दिया था. अब तक पार्टी 29 में से 15 प्रदेश अध्यक्षों का चुनाव कर चुकी है. नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए कम से कम 19 प्रदेश अध्यक्षों का चुना जाना जरूरी है.
राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के इच्छुक कुछ नए नेताओं के विपरीत, चौहान संघ की संगठनात्मक संस्कृति में गहराई से जुड़े हुए हैं. वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के जरिए आगे बढ़े हैं, वरिष्ठ प्रचारकों के साथ सक्रिय संपर्क बनाए हुए हैं और संघ के व्यापक सामाजिक एजेंडे से कभी विचलित नहीं हुए हैं.
मध्य प्रदेश में उनका ट्रैक रिकॉर्ड एक और अहम बिंदु है. लगभग दो दशक तक मुख्यमंत्री के रूप में चौहान ने हिंदुत्व को समावेशिता के साथ मिलाकर एक कल्याण-प्रधान, सांस्कृतिक रूप से निहित शासन मॉडल विकसित किया. उन्होंने महिलाओं, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और किसानों के बीच एक मजबूत समर्थन आधार बनाया. संघ का मानना है कि यह त्रिकोणीय आधार बीजेपी की वर्तमान ऊपरी जाति के शहरी मतदाताओं और आक्रामक राष्ट्रवाद पर निर्भरता के लिए एक उपयोगी संतुलन हो सकता है.
नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में यह धारणा तेजी से बढ़ रही है कि अगर बीजेपी को मोदी-शाह युग से आगे के भविष्य के लिए तैयार होना है, तो उसे एक ऐसे नेता की जरूरत है जो न सिर्फ संगठनात्मक रूप से मजबूत हो, बल्कि राजनीतिक रूप से भी सहानुभूति और सामाजिक सामंजस्य में निपुण हो. चौहान इस मापदंड के लिए फिट बैठते हैं.
हालांकि, चौहान का उदय भी चुनौतियों से रहित नहीं है. मध्य प्रदेश में उनके उत्तराधिकारी, मुख्यमंत्री मोहन यादव के साथ उनके रिश्ते स्पष्ट रूप से तनावपूर्ण हैं. 2023 में बीजेपी की सत्ता में वापसी के बाद कार्यभार संभालने के बाद से, यादव ने चौहान की कई प्रमुख योजनाओं को व्यवस्थित रूप से खत्म कर दिया है और उनकी जगह अपनी एक नई प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के साथ खुद के नैरेटिव को पेश किया है.
हालांकि चौहान ने सोची-समझी चुप्पी बनाए रखी है, लेकिन हकीकत साफ है कि भोपाल में मौजूदा सरकार की तुलना में उन्हें जनता का ज्यादा प्यार और राजनीतिक माइलेज हासिल है. राज्य इकाई में मतभेद बना हुआ है और बीजेपी अभी तक मध्य प्रदेश में नए प्रदेश अध्यक्ष का नाम तय नहीं कर पाई है, जो अतीत और वर्तमान के बीच चल रही रस्साकशी का संकेत है.
यह अनसुलझा तनाव राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखाई देता है. केंद्रीय नेतृत्व चौहान की जन अपील का सम्मान करता है, लेकिन उनकी स्वायत्तता को लेकर भी सतर्क है. मौजूदा बीजेपी इकोसिस्टम में कई अन्य लोगों के विपरीत, वे दिल्ली की राजनीतिक इंजीनियरिंग की उपज नहीं हैं. वे कभी भी मोदी-शाह के अंदरूनी घेरे का हिस्सा नहीं रहे हैं, और उनकी राजनीतिक पूंजी सीधे जनता से जुड़ाव में निहित है, न कि गुटीय वफादारी में.
पिछले साल जब चौहान को राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसमें उन्हें झारखंड विधानसभा चुनावों के लिए बीजेपी के अभियान का प्रबंधन करना था, तो उनका वो गंभीर प्रयास शर्मिंदगी भरे नतीजे के रूप में खत्म हुआ. पार्टी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, गुटबाजी को अनसुलझा छोड़ दिया गया और चौहान के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद राज्य मशीनरी निष्क्रिय रही. यह मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में पहला चुनावी धब्बा था, और इसने चौहान की पैन-इंडियन रणनीतिकार के रूप में छवि को चोट पहुंचाई.
इसने दिल्ली में कुछ लोगों की धारणा को भी मजबूत किया कि उनकी राजनीतिक उपयोगिता मध्य भारत तक सीमित हो सकती है, और उनके पास महाराष्ट्र, ओडिशा या तमिलनाडु जैसे राज्यों में राष्ट्रीय प्रभाव डालने की 'ऑपरेशनल रीच' या ब्रांड इक्विटी की कमी है.
यह आलोचना निराधार नहीं है. चौहान का देहाती आकर्षण और ग्रामीण मुहावरे हमेशा शहरी या महानगरीय राजनीतिक मंचों में अच्छी तरह से कम्युनिकेट नहीं हो पाते. वे डिजिटल गवर्नेंस या भू-राजनीतिक रणनीति की भाषा धाराप्रवाह नहीं बोलते हैं. मध्य प्रदेश के बाहर उनकी नीतिगत पहुंच सीमित है, और उनकी प्रशासनिक शैली 'भावनाओं पर भारी, मेट्रिक्स पर कम' बीजेपी के मौजूदा डैशबोर्ड, डेटा और अनुशासन के प्रति जुनून के साथ तालमेल रखती.
फिर भी, तकनीकी कौशल की कमी की भरपाई चौहान भावनात्मक पूंजी से करते हैं. जहां अन्य लोग बातचीत के लिए प्वॉइंटर्स का अभ्यास करते हैं, वे स्मृति, किस्सों के जरिए सहजता से बोलते हैं. उनकी पदयात्रा इसी सहजता का प्रतिबिंब है, एक अधिक अंतरंग, भावनात्मक रूप से गूंजने वाली राजनीति शैली की ओर वापसी जो कभी बीजेपी की पहचान हुआ करती थी.
हाइपर-सेंट्रलाइज्ड मैसेजिंग और ध्रुवीकरण करने वाले नैरेटिव के इस युग में उनकी मौजूदगी बीजेपी के पुराने आदर्शों - सेवा, विनम्रता और शांत संकल्प - की याद दिलाती है.
फिर भी, आगे की राह अभी भी साफ नहीं है. चौहान की शैली संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं को पसंद आ सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि यह उस पावर स्ट्रक्चर से मेल खाए जो अब बीजेपी पर हावी है. केंद्रीय नेतृत्व वैकल्पिक सत्ता केंद्र बनाने से सावधान है और अपने स्वतंत्र जनाधार वाले नेता को आगे बढ़ाने की जल्दी में नहीं है. फिलहाल, उनकी भूमिका दिल्ली और नागपुर के बीच संगठन और कैडर के बीच एक सेतु की तरह ही बनी रह सकती है.
लेकिन राजनीति में समय भी मायने रखता है. चूंकि बीजेपी एक मजबूत लेकिन उम्रदराज नेतृत्व के तहत अगले पांच साल के शासन की ओर देख रही है, इसलिए एक ऐसे व्यक्ति की तलाश तेज हो गई है जो बदलाव के इस दौर में कारगर साबित हो. कोई ऐसा व्यक्ति जो बिना किसी खतरे के सभी गुटों के बीच सम्मान प्राप्त कर सके. शिवराज मोदी-शाह युग के स्वाभाविक उत्तराधिकारी नहीं हो सकते, लेकिन उन्हें तेजी से एक जरूरी बफर के रूप में देखा जा रहा है, कोई ऐसा व्यक्ति जो जहाज को स्थिर कर सके, पदाधिकारियों और क्षत्रपों को शांत कर सके और बीजेपी को समय दे सके.
मध्य प्रदेश के खेतों और गांवों में चौहान की पदयात्रा सिर्फ प्रासंगिकता का प्रदर्शन नहीं है. यह याद दिलाता है कि एक बार ईमानदारी से कमाई गई राजनीतिक पूंजी कभी खत्म नहीं होती. यह पीछे हट सकती है, लेकिन वापस भी आ सकती है. कभी चुपचाप तो कभी, जैसा कि चौहान उम्मीद करते हैं, कदम दर कदम.