पांच साल होने को आए, जब 2020 की गर्मियों में लद्दाख के पूर्वी हिस्से में चीनी सेना की घुसपैठ और गलवान घाटी में उसकी भारतीय सेना के साथ हिंसक झड़प हुई थी. इस टकराव के बाद से भारत और चीन के बीच संबंध खराब हो गए थे.
अब जबकि इन दोनों देशों के बीच रिश्तों को सुधारने की कोशिश हो रही है, तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के उत्तराधिकार का मुद्दा इस हिमालयी क्षेत्र में पुराने घावों को फिर से ताजा कर सकता है.
अभी तेनजिन ग्यात्सो 14वें दलाई लामा हैं, जो दुनिया भर में एक सम्मानित नाम हैं. हालांकि वे लंबे समय से चीन की आंखों में खटक रहे हैं. इस 6 जुलाई को वे 90 साल के हो जाएंगे. हालांकि यह उनका कोई खास जन्मदिन नहीं है, जिसकी वजह से वे चर्चा में हैं.
चीन के जानकारों का मानना है कि दलाई लामा 2 जुलाई को कोई ऐसा महत्वपूर्ण बयान देंगे, जो तिब्बत के राजनीतिक और आध्यात्मिक भविष्य को बदल सकता है. इसके साथ ही यह भारत-चीन संबंधों में पहले से मौजूद कई खामियों को और बिगाड़ सकता है, जिनमें से एक भारत द्वारा दलाई लामा को शरण देना भी है.
14वें दलाई लामा मार्च 1959 में तिब्बत से भागकर भारत आए थे, और तब से वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित मैक्लॉयडगंज में रहते हैं.
चीनी जानकारों का मानना है कि दलाई लामा के जन्मदिन पर होने वाली तिब्बती धार्मिक नेताओं की बैठक तिब्बती बौद्ध धर्म के भविष्य को बदल सकती है, और इस दौरान उत्तराधिकार पर होने वाली चर्चा पर पूरी दुनिया की नजर रहेगी.
निर्वासित तिब्बती सरकार की बैठक के बाद एक बड़ा सम्मेलन होगा, जिसमें नेता और अनुयायी मिलकर तिब्बती आध्यात्मिकता और संस्कृति के संरक्षण पर सामूहिक फैसले लेंगे. दलाई लामा के भाषण से उत्तराधिकार की परंपरा के लिए मार्गदर्शन और भविष्य की दिशा मिलने की उम्मीद है.
दलाई लामा को तिब्बती पहचान और प्रतिरोध का जीवंत प्रतीक माना जाता है, जिसे चीन दशकों से नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है. दलाई लामा का पुनर्जन्म एक जटिल विषय है: तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार, वे एक 'तुल्कु' हैं, जो अपनी इच्छा से पुनर्जन्म चुनते हैं ताकि आध्यात्मिक कार्य जारी रख सकें.
हालांकि तिब्बत को अपना अभिन्न अंग मानने वाला चीन दलाई लामा की चयन प्रक्रिया पर अधिकार का दावा करता है. चीन इस बात पर जोर देता है कि उसके देश के बाहर पैदा हुआ दलाई लामा का कोई भी उत्तराधिकारी अवैध होगा.
चीन पुनर्जन्म को मंजूरी देने के लिए ऐतिहासिक अधिकारों का हवाला देता है, लेकिन इस रुख का इस्तेमाल वो तिब्बत पर अपने कब्जे को वैध ठहराने और दलाई लामा के प्रभाव को कम करने के लिए करता है.
इससे तिब्बती आध्यात्मिक परंपरा और चीन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है. चीन की सख्त रणनीति 1995 में दिखी, जब उसने दलाई लामा द्वारा मान्यता प्राप्त 11वें पंचेन लामा, गेधुन चोएक्यी न्यिमा को हिरासत में लिया और अपने चुने हुए व्यक्ति को नियुक्त किया.
पंचेन लामा को तिब्बती बौद्ध धर्म में दलाई लामा के बाद दूसरा सबसे बड़ा आध्यात्मिक नेता माना जाता है. 1995 में गेधुन चोएक्यी न्यिमा की हिरासत ने चीन के खिलाफ तिब्बतियों के गुस्से को और भड़काना जारी रखा है.
अब, जबकि 14वें दलाई लामा के उत्तराधिकार को लेकर अटकलें तेज हैं, भारत के लिए दांव ऊंचे हैं. तिब्बत भारत के लिए कूटनीतिक रूप से एक मुश्किल रास्ता बना हुआ है. 1959 में चीन से निकले दलाई लामा और हजारों तिब्बती शरणार्थियों को शरण देने के बाद भारत अनजाने में तिब्बत-चीन के खेल में शामिल हो गया.
हालांकि भारत का चीन के साथ संबंध काफी हद तक तनावपूर्ण रहे हैं, लेकिन 2020 में चीनी घुसपैठ और गलवान घाटी झड़प के बाद की घटनाओं ने उन्हें दशकों में सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दिया है, जिसके कारण भारत विवादास्पद सीमा, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अपनी स्थिति को दोबारा संतुलित कर रहा है और पश्चिम के साथ रणनीतिक साझेदारी को गहरा कर रहा है.
हालांकि, बीते कुछ महीनों में भारत और चीन के बीच सावधानी भरे कूटनीतिक रिश्तों की शुरुआत दिखी है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की इस हफ्ते शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक के लिए किंगदाओ यात्रा 2020 के बाद पहली बड़ी भारतीय मंत्रिस्तरीय यात्रा थी. यह दिखाता है कि दोनों देश कम से कम सतह पर रिश्तों को बेहतर करना चाहते हैं.
इसके अलावा, 23 जून को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने बीजिंग में SCO सुरक्षा परिषद सचिवों की 20वीं बैठक के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत की. उन्होंने दोनों देशों के रिश्तों की समीक्षा की और समग्र संबंधों को बेहतर करने और लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने के महत्व पर जोर दिया.
राजनाथ सिंह और डोभाल की यात्रा जून के मध्य में तिब्बत में स्थित एक अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थस्थल कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए भारतीय तीर्थयात्रियों के आगमन के साथ मेल खाती है. कोविड-19 महामारी के बाद कई वर्षों की शांति के बाद इस गर्मी में यात्रा फिर से शुरू हुई.
फिर भी, तिब्बत एक ऐसा अनकहा मुद्दा है जो भारत-चीन के नाजुक रिश्तों को आसानी से बिगाड़ सकता है. दलाई लामा ने साफ कहा है कि उनका पुनर्जन्म "मुक्त दुनिया" में होगा, जो चीन के नियंत्रण से बाहर है. उनकी नई किताब 'वॉयस फॉर द वॉयसलेस' में उन्होंने चीन के उत्तराधिकार पर नियंत्रण के दावे को साफ तौर पर खारिज किया है. धर्मशाला में स्थित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA) भी उनके इस रुख का समर्थन करता है.
तिब्बत की निर्वासित सरकार ने 2025 को 'करुणा वर्ष' घोषित किया है. इसमें दलाई लामा की विरासत को सम्मानित करने के लिए दुनिया भर में कार्यक्रम और सांस्कृतिक आयोजन किए जाएंगे, जिसकी शुरुआत 5 जुलाई को धर्मशाला में दीर्घायु प्रार्थना समारोह (लॉन्ग लाइफ प्रेयर सेरेमनी) से होगी. लेकिन इस आध्यात्मिक संदेश के पीछे एक राजनीतिक मकसद भी छिपा है - तिब्बती पहचान को मजबूत करना और चीन की दखलअंदाजी का विरोध करना.
भारत के लिए यह एक कूटनीतिक उलझन है. नई दिल्ली अब तक दलाई लामा के उत्तराधिकारी से जुड़े मुद्दों में खुलकर शामिल होने से बचती रही है, ताकि चीन को और नाराज न किया जाए. लेकिन जैसे-जैसे 14वें दलाई लामा की सेहत और उनके उत्तराधिकारी को लेकर चर्चा बढ़ रही है, भारत में तिब्बती नेतृत्व की मेजबानी और संभवतः चीन द्वारा मान्यता न पाए उत्तराधिकारी का समर्थन चीन की चिंता बढ़ा सकता है.
फिर भी, जोखिमों के बावजूद भारत के कुछ रणनीतिक जानकार तिब्बत को चीन से निपटने के लिए एक शांत लेकिन असरदार हथियार मानते हैं. गलवान झड़प के बाद भारत का रुख सख्त हुआ है. एलएसी पर बुनियादी ढांचे को मजबूत किया गया है और अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान व भारत वाले क्वाड समूह से रिश्ते और गहरे हुए हैं.
ऐसे में तिब्बत का मुद्दा, जिसे अब तक संवेदनशील लेकिन शांत समझा जाता था, दोबारा एक सौदेबाजी का जरिया बन सकता है. खासकर अगर चीन गलवान के बाद सैनिकों की वापसी में अड़चन डालता रहे या इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी दादागिरी दिखाता रहे.
जैसे-जैसे 'करुणा वर्ष' की शुरुआत हो रही है और दुनिया 2 जुलाई को दलाई लामा के संदेश का इंतजार कर रही है, भारत एक बार फिर पुरानी कसौटी पर खड़ा है - तिब्बत से जुड़ी अपनी विरासत को संभालना और साथ ही चीन के साथ नाजुक रिश्तों को संतुलन में बनाए रखना.
दलाई लामा का आध्यात्मिक मिशन, जो करुणा और अहिंसा पर आधारित है, भले ही सख्त भू-राजनीति से अलग लगता हो, लेकिन जानकारों का कहना है कि चीन के लिए पुनर्जन्म की बहस आस्था नहीं, बल्कि नियंत्रण का मुद्दा है. और भारत के लिए यह एक और याद दिलाने वाली बात है कि हिमालय में अध्यात्म और स्ट्रैट्जी एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं.