प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस की अपनी दो दिवसीय यात्रा के दौरान 11 फरवरी को दक्षिणी शहर मार्सिले का दौरा किया. यहां पर उन्होंने फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रॉन के साथ भारत के नए कॉन्सुलेट का उद्घाटन किया. जहां एम्बेसी किसी विदेशी देश की राजधानी में प्राथमिक राजनयिक मिशन होता है, वहीं कॉन्सुलेट किसी प्रमुख शहर में एक छोटा मिशन होता है.
मार्सिले में उतरने के बाद, पीएम मोदी ने स्वतंत्रता सेनानी और हिंदुत्व के प्रतीक विनायक दामोदर सावरकर को श्रद्धांजलि भी अर्पित की. सावरकर ने 1910 में मार्सिले में आजादी के आंदोलन के दौरान एक ब्रिटिश जहाज से भागने की कोशिश की थी.
पीएम मोदी ने अपने ट्वीट में लिखा, "अभी मार्सिले पहुंचा हूं. भारत की आजादी के आंदोलन से इस शहर का गहरा नाता है. यहीं पर महान वीर सावरकर ने साहसपूर्वक भागने का प्रयास किया था. मैं मार्सिले के लोगों और उस समय के फ्रांसीसी कार्यकर्ताओं को भी धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने मांग की थी कि उन्हें ब्रिटिश हिरासत में न सौंपा जाए. वीर सावरकर की बहादुरी पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी!" अंग्रेजों की जेल से भागने के लिए एक जहाज से छलांग लगाकर सावरकर मार्सिले पहुंचे थे मगर इस शहर से निकलते ही 25 साल की जेल उनका इंतजार कर रही थी.
Landed in Marseille. In India’s quest for freedom, this city holds special significance. It was here that the great Veer Savarkar attempted a courageous escape. I also want to thank the people of Marseille and the French activists of that time who demanded that he not be handed…
— Narendra Modi (@narendramodi) February 11, 2025
क्या है सावरकर की मार्सिले से जुड़ी कहानी?
तारीख थी 21 दिसंबर 1909. नासिक के विजयानंद थियेटर में मराठी नाटक 'शारदा' का मंचन हो रहा था. दरअसल नासिक के क्लेक्टर जैक्सन की विदाई की हो रही थी. उन्हीं को सम्मान देने के लिए इस नाटक का मंचन हो रहा था. ये नाटक एक तरह से उसकी फेयरवेल पार्टी थी.
जैक्सन नाटक देख ही रहा था कि तभी मौका पाकर 18 साल के एक आंदोलनकारी अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने अपनी पिस्टल से कलेक्टर जैक्सन के सीने में चार गोलियां दाग दी. अंग्रेजों ने अपनी जांच में पाया कि जिस पिस्टल से कन्हारे ने जैक्सन को गोली मारी थी उसे लंदन से सावरकर ने ही भेजा था. इसी बिना पर ब्रिटिश पुलिस ने 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया.
इधर लंदन में सावरकर कानून की पढ़ाई कर रहे थे. इससे पहले लंदन में उनपर कभी कोई केस दर्ज नहीं हुआ था. लेकिन इस बार उनपर "हथियारों की खरीद और वितरण, राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने और देशद्रोही भाषण देने" का आरोप लगा. ब्रिटिश मजिस्ट्रेट ने सावरकर को मुकदमे का सामना करने के लिए ब्रिटेन से बंबई भेजने का आदेश दिया.
जब दूसरी बार मार्सिले पहुंचे सावरकर
1906 में इंग्लैंड पहुंचने से पहले, सावरकर ने मार्सिले का दौरा किया था. इस शहर के बारे में विक्रम संपत अपनी किताब सावरकर में लिखते हैं, "विनायक (सावरकर) के लिए यह शहर विशेष रूप से आकर्षक था क्योंकि उनके इतालवी क्रांतिकारी नायक, मात्सिनी ने उत्पीड़न के दौरान यहीं शरण ली थी."
लंदन के पश्चिम में टेम्स नदी पर स्थित टिलबरी डॉक्स से रवाना होकर, सावरकर को लेकर एसएस मोरिया जहाज 7 जुलाई को मार्सिले पहुंचा. उस समय, फ्रांस, विशेषकर मार्सिले, भारतीय क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था. श्यामजी कृष्ण वर्मा, मैडम भीकाजी कामा, सरदार सिंह राणा और वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जैसे प्रमुख भारतीय क्रांतिकारी फ्रांस में सक्रिय रूप से काम कर रहे थे.
इसके अलावा 1914 में हुए पहले विश्वयुद्ध में फ्रांस के मार्सिले में करीब एक लाख से ज्यादा भारतीय सैनिकों ने जंग लड़ी और हजारों शहीद भी हुए थे. दरअसल भारतीय सैनिक फ्रांस की तरफ से जर्मनी से लड़ रहे थे, जिसने फ्रांस के कुछ हिस्सों पर आक्रमण कर दिया था. पहले विश्व युद्ध के दौरान, भारत, जो उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था, ने अधिक राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त करने की आशा में अंग्रेजों का साथ दिया था.
फ्रांस में अंग्रेजों का समर्थन करने के लिए दो भारतीय डिवीजन, लाहौर और मेरठ को जुटाया गया था. भारतीय सैनिकों को कठोर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, शुष्क, गर्म जलवायु से लेकर गीली, कीचड़ भरी खाइयों तक में ढलना पड़ा, जिसके कारण कई लोग बीमारी से हताहत हुए. इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने नुवे-चैपल, गिवेंची-लेस-ला-बासी और लूस जैसी लड़ाइयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. खुदादाद खान और दरवान सिंह सहित कुछ सैनिकों को बहादुरी के लिए विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया.
More than 100,000 Indians fought for France in 1914. Ten thousand never returned. They set foot on the soil of Marseille before fighting in the mud of the trenches, unaware that they were marching to their deaths.
— Emmanuel Macron (@EmmanuelMacron) February 12, 2025
Their sacrifice binds France and India forever. pic.twitter.com/lmjbawDCdh
विक्रम संपत ने अपनी 2019 किताब, 'सावरकर, इकोज़ फ्रॉम ए फॉरगॉटन पास्ट, 1883-1924' में बताया कि सावरकर को ब्रिटिश अधिकारी पावर और पार्कर के साथ दो भारतीय हेड कांस्टेबल, पूना पुलिस से मुहम्मद सिद्दीक और नासिक पुलिस से अमरसिंह सखारामसिंह के साथ ले जाया गया था. सावरकर की सुरक्षा के लिए भारत से विशेष रूप से भेजे गए तीसरे अधिकारी उस्मान खान की जून 1910 में इंग्लैंड में मृत्यु हो गई, जिसके बाद पावर ने सिद्दीक और अमरसिंह को उनकी ड्यूटी सौंप दी.
जब जहाज रवाना हुआ तो सावरकर पर लगातार नजर रखी गई. चाहे वे शौचालय का उपयोग कर रहे हों, व्यायाम कर रहे हों या टहल रहे हों, एक सुरक्षाकर्मी हमेशा उनके साथ रहता था.
संपत ने सावरकर की जीवनी में लिखा, "8 जुलाई की सुबह, विनायक ने सुबह 6.15 बजे ही शौचालय जाने का असामान्य अनुरोध किया... विनायक ने शौचालय का दरवाजा बंद कर लिया. उन्होंने पाया कि शौचालय में पोर्टहोल खुला था और पार्कर ने उसे बंद करने या क्लैंप करने की जहमत नहीं उठाई थी. यह वह क्षण था जिसका उन्हें बेसब्री से इंतजार था. अपनी पूरी हिम्मत जुटाते हुए, उन्होंने बारह इंच व्यास वाले पोर्टहोल से अपने दुबले शरीर को उसमें से बाहर निकाला और स्वतंत्रता और न्याय की उम्मीद करते हुए समुद्र में एक बड़ा गोता लगाया. वे किनारे तक पहुंचने के लिए कुछ दूर तैरे."
जल्द ही कांस्टेबलों को पता चल गया कि सावरकर भाग गये हैं. दोनों कांस्टेबलों ने शोर मचाया और विनायक को बचाने के लिए डेक पर दौड़े, जो तब तक किनारे पर पहुंच चुके थे और भागने लगे थे. कांस्टेबलों ने 'चोर! चोर!' 'उसे पकड़ो!' 'उसे पकड़ो!' चिल्लाते हुए उनका पीछा किया और जहाज के कुछ चालक दल के सदस्य भी उनके साथ शामिल हो गए. सावरकर लगभग 200 गज आगे थे मगर काफी थक चुके थे. जब वे हांफकर मार्सिले शहर में दाखिल हुए तो उनके बदन पर नाममात्र के कपड़े थे. मार्सिले शहर में ट्रामें और कारें दौड़ रही थीं. उन्होंने टैक्सी के लिए भी आवाज लगाई लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि उनके पास पैसे नहीं हैं.
आशुतोष देशमुख की किताब 'ब्रेवहार्ट सावरकर' के मुताबिक, अचानक एक पुलिसवाला सावरकर को दिखाई दिया. फ्रेंच न जानने वाले सावरकर ने अंग्रेजी में फ्रेंस पुलिसवाले से कहा, "मुझे राजनीतिक शरण चाहिए, मुझे मजिस्ट्रेट के पास ले चलो."
लंदन में कानून पढ़ रहे सावरकर जानते थे कि उन्होंने फ्रांस की जमीन पर कोई अपराध नहीं किया है, लिहाजा पुलिस हड़बड़ी में उन्हें भले ही गिरफ्तार कर लेती लेकिन उनपर कोई केस नहीं बनेगा.
यह बहस चल ही रही थी कि सावरकर का पीछा कर रहे सिपाही वहां पहुंच गए. सावरकर ने बहुत विरोध जताया लेकिन अंग्रेज सिपाहियों ने सावरकर को गिरफ्तार कर ही लिया. पकड़े जाने के बाद सावरकर को जहाज पर वापस लाया गया, जहां उनके साथ गाली-गलौज की गई और उन्हें तुरंत हथकड़ी लगा दी गई.
मोरिया 9 जुलाई को मार्सिले से रवाना हुआ और 17 जुलाई को अदन पहुंचा. यहां से सावरकर को दूसरे जहाज 'साल्सेट' में बिठा दिया गया, जो 22 जुलाई 1910 को बम्बई पहुंचा.
सावरकर के पकड़े जाने के बाद मार्सिले में हुआ बवाल
फ्रांस में सावरकर को पकड़कर अंग्रेजों को सौंपे जाने की घटना से लोगों में आक्रोश फैल गया और फ्रांसीसी प्रेस के एक वर्ग ने इसे 'नेशनल स्कैंडल' बताया. यह घटना विशेष रूप से विवादास्पद थी, क्योंकि फ्रांस ने लंबे समय से स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्शों को कायम रखा था.
विक्रम संपत की किताब के मुताबिक, फ्रांसीसी पत्रकारों ने तर्क दिया कि फ्रांस की धरती पर पहुंचे एक राजनीतिक कैदी को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ले जाने की अनुमति देना फ्रांसीसी संप्रभुता का अपमान था. बात बढ़ गई और अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल पीसीए तक जा पहुंची. अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के सामने मुद्दा यह था कि क्या अंग्रेजों को सावरकर को फ्रांस को सौंपना चाहिए.
नीदरलैंड के हेग शहर में स्थित परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (पीसीए) की वेबसाइट पर मामले के रिकॉर्ड में मिलता है कि फ्रांस सरकार ने सावरकर को ब्रिटिश हिरासत में वापस भेजने के तरीके को स्वीकार नहीं किया और फ्रांस को उनकी वापसी की मांग की. फ्रांस सरकार की मांग इस आधार पर टिकी थी कि ब्रिटिश अधिकारियों को सावरकर की सुपुर्दगी एक दोषपूर्ण प्रत्यर्पण के बराबर है. ब्रिटिश सरकार ने तर्क दिया कि जहाज के बंदरगाह में रहने के दौरान कैदी की सुरक्षा के लिए किए गए इंतजामों के अनुसार, फ्रांसीसी अधिकारियों को उसे भागने को रोकना था.
इस मामले का फैसला 24 फरवरी, 1911 को हुआ. पीसीए ने निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटिश सरकार को सावरकर को फ्रांसीसी सरकार को सौंपने की जरूरत नहीं है. वेबसाइट के मुताबिक, "ट्रिब्यूनल ने पाया कि घटना में शामिल सभी एजेंटों ने सद्भावना का परिचय दिया था. ट्रिब्यूनल ने निष्कर्ष निकाला कि सावरकर की गिरफ़्तारी में अनियमितता के बावजूद, ब्रिटिश सरकार पर सावरकर को फ़्रांसीसी सरकार को वापस सौंपने की कोई जरूरत नहीं है."
सावरकर को भारत लाया गया और उन पर मुकदमा चला. उन्हें दिसंबर 1910 और जनवरी 1911 में बॉम्बे हाई कोर्ट की ओर से 25-25 साल की दो आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई. 4 जुलाई 1911 को उन्हें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई. हालांकि, ब्रिटिश सरकार को कई दया याचिकाएं भेजने के बाद उन्हें अंततः 1924 में रिहा कर दिया गया.