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क्या था नरसिम्हा राव सरकार का रिश्वत कांड, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अब पलटा अपना फैसला

पीवी नरसिम्हा राव बनाम भारत सरकार केस में 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद या विधानमंडल में कोई भी सांसद-विधायक जो कहते हैं और जो भी करते हैं, उसे लेकर उन पर किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव
अपडेटेड 6 मार्च , 2024

सुप्रीम कोर्ट (SC) ने चार मार्च को अपने एक अहम फैसले में 'पीवी नरसिम्हा राव बनाम भारत गणराज्य' (1998) मामले में दिए गए निर्णय को पलट दिया. सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार से जुड़े इस मामले में SC की सात जजों की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संसद, विधानमंडल में भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेना सदन के विशेषाधिकार के दायरे में नहीं आएगा.

यानी अब अगर कोई सांसद या विधायक घूस लेकर सदन में भाषण देते हैं या वोट करते हैं तो उन पर कोर्ट में आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट का ये मौजूदा फैसला 1998 में नरसिम्हा राव मामले में दिए गए उसके निर्णय से जुदा है. तब SC की पांच जजों की बेंच ने 3-2 के बहुमत से इस मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा था कि विधायकों-सांसदों को संसद और विधानमंडल में अपने भाषण और वोटों के लिए रिश्वत लेने के मामले में आपराधिक मुकदमे से छूट होगी. ये उनका विशेषाधिकार है.

बहरहाल, आइए समझते हैं कि नरसिम्हा राव मामला क्या था? झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के सांसदों की इसमें क्या भूमिका थी? सुप्रीम कोर्ट में जब मामला पहुंचा तो जजों की इस पर क्या राय थी? ये सब शुरू कैसे हुआ और यहां तक इस मामले की पूरी यात्रा कैसी रही?

साल 1991 में जब राजीव गांधी की हत्या के बाद देश में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी. पार्टी के पास सबसे ज्यादा 232 लोकसभा सांसद थे हालांकि बहुमत वह काफी दूर रह गई थी. इन हालात में तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई में कांग्रेस को सरकार बनाने का न्यौता दिया. यह अल्पमत की सरकार थी. इस नई सरकार के सामने कई चुनौतियां थीं जिसमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक संकट था. उधर, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राम जन्मभूमि आंदोलन भी अपने चरम पर था, जिसकी परिणति 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने से हुई.

खैर, आर्थिक संकट और सांप्रदायिकता ये ही दो मुद्दे राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के प्रमुख कारण बने. 26 जुलाई, 1993 को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के सांसद अजॉय मुखोपाध्याय ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. तब लोकसभा में 528 सीटें थीं. यानी बहुमत के लिए 264 सांसदों की जरूरत थी. उस समय कांग्रेस के पास 251 सांसद थे यानी बहुमत से 13 कम.

तीन दिन तक चली बहस के बाद 28 जुलाई को इस अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई. नरसिम्हा राव की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार इस अविश्वास प्रस्ताव से खुद को बचा ले गई.  विपक्ष के 14 सांसदों ने कांग्रेस के समर्थन में वोट किया और यह प्रस्ताव 265 के मुकाबले 251 वोटों से गिर गया. लेकिन इस घटना के करीब एक साल बाद ऐसी खबरें आईं कि जेएमएम के सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने के लिए राव से मोटी रिश्वत ली.

इन आरोपों के सामने आने के बाद 1996 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने इस मामले की जांच शुरू की. सीबीआई ने जेएमएम के 6 सांसदों के खिलाफ घूस लेकर सरकार के पक्ष में वोट देने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया. इन नामों में सूरज मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, शैलेन्द्र महतो का नाम शामिल था. इसके अलावा सीबीआई ने अजीत सिंह के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज किया. सिंह तब जनता दल में थे. उन पर ये आरोप लगा कि उन्होंने घूस लेकर वोटिंग से दूर रहने का फैसला किया.

बहरहाल, अपने ऊपर लगे आरोपों के खिलाफ इन आरोपियों ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने मामला रद्द करने से इनकार कर दिया. इसके बाद पीवी नरसिम्हा राव और अन्य आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया. अब सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि क्या संसदीय विशेषाधिकार के तहत इन सांसदों को इस मामले में छूट दी जा सकती है. इसके लिए पांच जजों की बेंच गठित हुई.

सुप्रीम कोर्ट ने तब 3-2 के बहुमत से फैसला सुनाया जिसका सारांश यह था कि संसदीय विशेषाधिकार के तहत विधायकों-सांसदों को संसद और विधानमंडल में अपने भाषण और वोटों के लिए रिश्वत लेने के मामले में आपराधिक मुकदमे से छूट होगी. जस्टिस एसपी भरूचा ने जस्टिस राजेंद्र बाबू और जस्टिस जीएन राय के साथ मिलकर बहुमत का फैसला लिखा था.

जस्टिस भरूचा ने इसके लिए आर्टिकल 105 (2) का हवाला दिया था, जिसके मुताबिक, "संसद या राज्य के विधानमंडल का कोई भी सदस्य सदन में कही गई कोई बात, सदन में दिए गए वोट को लेकर किसी भी अदालत में जवाबदेह नहीं होगा. साथ ही संसद या विधानमंडल की किसी भी रिपोर्ट या पब्लिकेशन को लेकर भी किसी व्यक्ति की किसी भी अदालत में जवाबदेही नहीं होगी." आर्टिकल 105 (2) संसद के लिए प्रावधान करता है, वहीं 194 (2) राज्य विधानमंडलों के लिए होता है.

बहरहाल, जस्टिस एसपी भरूचा ने उस समय अपने फैसले में कहा था- "कथित रिश्वत लेने वालों ने जो किया है उनके अपराध की गंभीरता के प्रति हम पूरी तरह सचेत हैं. अगर यह सच है, तो उन्होंने उन लोगों के यकीन का सौदा किया है जिनका वो प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्होंने पैसे लेकर एक सरकार को बचाया है. लेकिन इसके बावजूद वो उस सुरक्षा के हकदार हैं जो संविधान उन्हें देता है, हमारे आक्रोश की भावना के कारण हमें संविधान की संकीर्ण व्याख्या नहीं करनी चाहिए जिससे संसदीय भागीदारी और बहस की सुरक्षा की गारंटी पर असर पड़े."

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अजीत सिंह को बाकी सांसदों की तरह ठीक वही सुरक्षा देने से इनकार कर दिया. क्योंकि अजीत ने न तो कोई भाषण दिया और न ही वोट डाला था. इसके अलावा अदालत ने रिश्वत देने वालों को भी सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था. इस मामले से जहां अजीत सिंह के करिअर को काफी नुकसान पहुंचा, वहीं नरसिम्हा राव और उनके कैबिनेट सहयोगी रहे सरदार बूटा सिंह को साल 2000 में एक ट्रायल कोर्ट ने तीन साल की सजा सुनाई. लेकिन इसके दो साल बाद 2002 में दिल्ली हाई कोर्ट ने यह कहते हुए राव और बूटा सिंह को बरी कर दिया कि शैलेंद्र महतो (झामुमो सांसद जो इस मामले में सरकारी गवाह थे) के बयान में विश्वसनीयता की कमी है. 

खैर, जिन दो जजों ने नरसिम्हा राव मामले में अल्पमत का फैसला लिखा, उनमें जस्टिस एससी अग्रवाल थे और जस्टिस एएस आनंद. तब जस्टिस अग्रवाल ने कहा था कि घूसखोरी के इन मामलों में आरोपों से छूट सांसदों और विधायकों को कानून के शासन से ऊपर रखेगी, जो अनुच्छेद 105(2) का उद्देश्य नहीं है. उन्होंने कहा था, "किसी ऐसे सांसद की रक्षा करना, जिसने घूस के बदले में अपने बोलने और वोट करने की स्वतंत्रता का हनन किया है. उसे इन आपराधिक मुकदमों से मुक्त रखने का मतलब होगा- उसे ऐसे भ्रष्ट आचरण में लिप्त होने के लिए लाइसेंस प्रदान करना."

दुबारा कैसे शुरू हुआ मामला?

दरअसल, नरसिम्हा राव मामले से ही मिलता-जुलता एक नया मामला तब सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट जेएमएम की विधायक सीता सोरेन के एक कथित घूसखोरी मामले की सुनवाई कर रहा था. सीता सोरेन पर आरोप था कि उन्होंने साल 2012 में राज्यसभा के चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार को वोट देने के लिए घूस ली. सोरेन की तरफ से इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के पीवी नरसिम्हा राव बनाम भारत सरकार केस (1998) के फैसले का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था कि संसद या विधानमंडल में कोई भी सांसद-विधायक जो कहते हैं और जो भी करते हैं, उसे लेकर उन पर किसी भी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.

साल 2019 में तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की और कहा कि नरसिम्हा राव मामले में दिया गया फैसला बिलकुल इसी तरह का है और वह यहां भी लागू होगा. हालांकि बेंच ने तब कहा था कि राव मामले (1998) में बहुत ही कम अंतर (पांच जजों के बीच 3:2 के बहुमत) से फैसला हुआ था इसलिए मुद्दे को "बड़ी बेंच" को सौंपना चाहिए.

सितंबर, 2023 में सात जजों की बेंच को यह मामला सौंपा गया. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में इस बेंच में जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा थे. इस बेंच ने 4 मार्च को इस पर फैसला सुनाया, जिसमें उसने 1998 के नरसिम्हा राव मामले में दिए अपने फैसले को पलट दिया. सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा- "विधायी विशेषाधिकारों का उद्देश्य सामूहिक रूप से सदन को विशेषाधिकार देना है. अनुच्छेद 105/194 सदस्यों के लिए एक भय मुक्त वातावरण बनाने के लिए है. भ्रष्टाचार और रिश्वत संसदीय लोकतंत्र को बर्बाद करने वाला है."

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