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RSS की ट्रेड यूनियन मोदी सरकार के लेबर कोड पर कुछ शर्तों के साथ सहमत, इस जुगलबंदी से क्या बदलेगा?

RSS की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ (BMS) के केंद्रीय कार्यसमिति की हालिया बैठक मोदी सरकार के लिए एक मोर्चे पर राहत लेकर आई है

सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 28 अगस्त , 2025

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की ट्रेड यूनियन शाखा भारतीय मजदूर संघ (BMS) ने जब भोपाल में 22 से 24 अगस्त को अपनी केंद्रीय कार्य समिति की 159वीं बैठक खत्म की, तो कम ही लोगों ने उम्मीद की थी कि यह बैठक भारत के ठप पड़े श्रम सुधारों पर बातचीत को नया तेवर दे देगी.

फिर भी वेतन संहिता (wage code) और सामाजिक सुरक्षा संहिता को तत्काल लागू करने की मांग और साथ ही इंडस्ट्रियल रिलेशंस और व्यवसायगत सुरक्षा संहिताओं के प्रावधानों का विरोध करते हुए पारित उसके प्रस्ताव ने ठीक यही किया. चरणबद्ध तरीके और हितधारकों के साथ सलाह-मशविरे का समर्थन करके BMS ने अपने को नरेंद्र मोदी सरकार की सहयोगी और आलोचक दोनों स्थितियों में रख लिया है.

मोदी सरकार के लिए BMS का यह फैसला नाजुक मौके पर आया है. सरकार पहले ही वस्तु और सेवा कर (GST) में सुधारों की राह बना रही है और मैन्यूफैक्चरिंग में तेजी लाने की राह खोज रही है. श्रम सुधारों पर जोर देने से मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के उत्साह और खुशी में इजाफा होगा. संसद में 2019 और 2020 के बीच पारित चार श्रम संहिताओं को आजादी के बाद भारत की श्रम व्यवस्था में सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कहकर सराहा गया था. 29 केंद्रीय कानून को चार व्यापक ढांचों में समाहित करके सरकार ने उद्योग जगत पर इनको लागू करने का बोझ कम करने और अनौपचारिक तथा गिग इकॉनॉमी के लाखों कर्मियों को सुरक्षा देने का वादा किया.

फिर भी पांच साल हो चुके हैं, और संहिताएं अधर में लटकी हैं. मसौदा नियम बना लिए गए और राज्यों ने अपने सुझाव भी दे दिए, लेकिन पूरे अमल को बार-बार टाल दिया गया. इस देरी से श्रम से जुड़े मुद्दों पर राजनैतिक संवेदनशीलता और भारत के संघीय ढांचे की पेचीदगियों, दोनों की झलक मिलती है. इस संघीय ढांचे में अनुपूरक नियम राज्यों को तय करने होते हैं. विपक्षी पार्टियां केंद्र पर बहुत ज्यादा केंद्रीयकरण करने का आरोप लगाती हैं, तो बीजेपी की अगुआई वाले राज्य ज्यादा विवादास्पद प्रावधानों को लागू करके तीव्र प्रतिक्रिया का जोखिम मोल लेने से हिचकते हैं. BMS का प्रस्ताव ठीक इसी गतिरोध में दखल देता है.

RSS का श्रम संगठन और देश की सबसे बड़ी केंद्रीय ट्रेड यूनियन होने के नाते BMS का रुख मायने रखता है. वाम-समर्थित यूनियनों ने चारों सहिताएं खारिज कर दीं, जबकि उद्योग से जुड़े संघों ने इन्हें तत्काल लागू करने की मांग की. दोनों के उलट BMS ने बीच का रास्ता अपनाया है. यह सुधार के सिद्धांत को तो मानती है, लेकिन इसे क्रमबद्ध ढंग से अपनाने पर जोर देती है. उसकी राय में कामगारों के अनुकूल प्रावधान अभी लागू किए जाने चाहिए, जिनमें गिग कर्मियों के लिए न्यूनतम वेतन, भविष्य निधि, मातृत्व लाभ, ग्रेज्युटी और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है. साथ ही जिन प्रावधानों को वह श्रमिक-विरोधी मानती है, जैसे छंटनी के नियमों में ढील या कमजोर सुरक्षा मानदंड, उनकी फिर से जांच होनी चाहिए.

यह फर्क बेहद अहम है. सरकार सालों से इस बात पर जोर देती रही है कि ये संहिताएं एकीकृत पैकेज का हिस्सा हैं और इन्हें बांटा नहीं जा सकता. इस दलील की वजह से गतिरोध पैदा हो गया : जब तक चारों संहिताओं पर आम सहमति नहीं बन जाती, किसी एक पर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. इस पुलिंदे को तोड़कर BMS ने सरकार को राजनैतिक रूप से व्यवहारिक विकल्प दिया है. वेतन संहिता और सामाजिक सुरक्षा संहिता को तत्काल लागू किया जा सकता है, जिससे सरकार प्रगति और श्रमिक-केंद्रित मंशा का दावा कर पाएगी. इस बीच इंडस्ट्रियल रिलेशंस और व्यवसायगत सुरक्षा संहिताओं को संशोधित किया या टाला जा सकता है, जिससे सलाह-मशविरे और बातचीत के लिए वक्त मिल जाएगा.

यह तरीका राजनैतिक कवच प्रदान करता है. दो “सकारात्मक” संहिताओं को लागू करके सरकार राज्यों के अहम चुनावों से पहले श्रमिकों को मिलने वाले फायदे पेश कर पाएगी. इससे वह श्रम-विरोधी करार दिए जाने से बचेगी, जबकि उद्योग जगत को भरोसा दिलाएगी कि सुधारों पर काम जारी है. कामगारों के लिए तात्कालिक असर ठोस होगा- बेहतर न्यूनतम वेतन और ज्यादा व्यापक सामाजिक सुरक्षा जाल. नियोक्ताओं के लिए आंशिक सुधार भले आदर्श से कम हों लेकिन लंबी खिंचने वाली अनिश्चतता से फिर भी बेहतर होंगे.

भारतीय श्रम सम्मेलन (ILC) को फिर जिंदा करने का BMS का आह्वान भी इतना ही अहम है. ILC सरकार, नियोक्ताओं और यूनियनों का त्रिपक्षीय मंच है, जिसकी बैठक 2015 से नहीं हुई है. इसे लटकाने की यह कहकर चौतरफा आलोचना की जाती रही है कि यह हितधारकों के साथ बातचीत करने की सरकार की अनिच्छा को दर्शाता है. ILC को पुनर्जीवित करने की मांग करके BMS ने इस बात पर जोर दिया है कि सलाह-मशविरा कोई रुकावट नहीं बल्कि वैधता की बुनियाद है. इससे यह संकेत दिया गया है कि श्रम सुधार ऊपर से नीचे थोपे गए आदेश से कामयाब नहीं हो सकते, इसके बजाय वे आम सहमति से उभरने चाहिए. जहां तक संघ की बात है, इससे उसका यह उद्देश्य भी सधता है कि वह यूनियन और सरकार को अलग-अलग रखता है, जिससे कामगारों के समक्ष यह साबित कर पाता है कि BMS कोई रबर स्टैंप नहीं है, जबकि बीजेपी को याद दिलाता है कि संवाद से सुधार कमजोर नहीं मजबूत होते हैं.

श्रम सुधार के सिलसिले में रखकर देखें, तो यह प्रस्ताव निर्णायक मोड़ है. संसद में चार संहिताओं के पारित होने के साथ 2019-20 में तबाड़तोड़ कानून बनाए गए. महामारी, संघीय खटपट और राजनैतिक एहतियात की वजह से 2020 और 2024 के बीच अमल ठप पड़ गया. अब 2025 में कदम उठाने के लिए दबाव बढ़ रहा है, निवेशकों, रेटिंग एजेंसियों और नियोक्ताओं की तरफ से भी, जो भारत की प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता के लिए श्रम कानून को सरल बनाना अनिवार्य मानते हैं. BMS का प्रस्ताव संभावित समाधान की तरफ इशारा करता है : चरणबद्ध और सलाहकारी तरीका, जो प्रतिरोध को उकसाए बिना गतिरोध को टाल देता है.

इस रुख से संघ परिवार के भीतर विचाराधारात्मक संतुलन साधने की भी झलक मिलती है. BMS दशकों से बीजेपी से अपने स्वतंत्र होने पर गर्व करता रहा है. कभी-कभी तो उसने सरकार को असहज करने वाले रुख भी अपनाए हैं. इस स्वतंत्रता को तब और साख मिल जाती है जब वह, अभी की तरह, वेतन और सामाजिक सुरक्षा संहिताओं का समर्थन करने की पेशकश करता है. साथ ही यह नौकरी की सुरक्षा को तहस-नहस करने वाली या सुरक्षा नियमों को कमजोर करने वाली धाराओं का विरोध करके संगठन को कॉरपोरेट-समर्थक करार दिए जाने से भी बचाता है. नतीजा नपा-तुला दखल है जो सरकार के एजेंडे को न तो रोकता है और न ही आंख मूंदकर उसका अनुमोदन करता है, बल्कि नए सिरे से उसकी राह तय करता है.

इसके बड़े असर दूरगामी हैं. अगर सरकार BMS के अनुक्रम को अपनाती है, तो यह भारत में सुधार के मॉडल को धमाके के साथ कानून बनाने से धीरे-धीरे लागू करने तक नए सिरे से परिभाषित कर सकता है. इसमें मिली कामयाबी कृषि, ऊर्जा या कराधान सरीखे क्षेत्रों में दूसरे विवादास्पद सुधारों से निपटने के लिए सांचा मुहैया कर सकती है. इसके उलट अगर सरकार ‘सभी या एक भी नहीं’ पर अड़ी रहती है, तो ये संहिताएं ठप पड़ी रह सकती हैं. इस तरह इस दिशा में की गई राजनीतिक जद्दोजगद बेकार जा सकती है. 

दांव पर इन चार कानूनों के भविष्य से कहीं ज्यादा है. यह खुद भारत की सुधार प्रक्रिया की साख है. श्रम कानून वृद्धि, समानता और राजनीति के चौराहे पर खड़े हैं. दुनिया भर में प्रतिस्पर्धा कर पाने के लिए नियोक्ता लचीलेपन की मांग करते हैं; कामगार सुरक्षा की मांग करते हैं, खासकर उस अर्थव्यवस्था में जहां औपचारिक नौकरियां बहुत कम हैं; और सरकारें अशांति से बचते हुए दोनों के बीच संतुलन साधने की कोशिश करती हैं. BMS का दखल इस जटिलता को पहचानता है और बीच के रास्ते की पेशकश करता है, जो अधूरा भले हो लेकिन व्यावहारिक है.

अंत में केंद्रीय कार्य समिति का प्रस्ताव महज एक ट्रेड यूनियन का नीतिगत बयान भर नहीं है बल्कि मोदी सरकार को राजनैतिक इशारा है. यह कहता है कि सुधार मुमकिन है, लेकिन अंधाधुंध हुक्मनामों के जरिए नहीं. यह चरणबद्ध, बातचीत से और साफ तौर पर निष्पक्ष होना चाहिए. 

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