पिछली सदी के मध्य से ही अंतरिक्ष वैज्ञानिक अपनी इंसानी जिज्ञासा को शांत करने के लिए स्पेस में दूर-दूर तक यात्रा करते रहे हैं. जहां तक भारत की बात है, यह अगले साल स्पेस में अपने पहले मानवयुक्त मिशन की योजना बना रहा है. लेकिन इन सब रोशन बातों के बीच एक स्याह पक्ष भी है, जो अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बेहद परेशानी का सबब बनता है.
और न सिर्फ परेशानी, बल्कि यह कई बार घातक भी साबित हो सकता है. ब्रह्मांड में व्याप्त इस 'साइलेंट किलर' का नाम है - रेडिएशन. इसे हिंदी में विकिरण कहते हैं. अदृश्य, अजेय और संभावित रूप से घातक स्पेस रेडिएशन अंतरिक्ष की यात्रा के समय एस्ट्रोनॉट के सामने एक ऐसा दुश्मन बनकर उभरता है जिससे उन्हें लगातार दो-चार होना पड़ता है.
यह धरती के सुरक्षात्मक वातावरण से परे एक अलग वातावरण होता है, जहां खतरनाक रेडिएशन अपने संपर्क में आने पर इंसानों को गहरा नुकसान पहुंचा सकते हैं. हमारे ग्रह यानी धरती पर मैग्नेटिक फील्ड इंसानों को सबसे खतरनाक ब्रह्मांडीय किरणों से बचाता है. इसके विपरीत स्पेस में एस्ट्रोनॉट को सूर्य और गहरे अंतरिक्ष से आने वाले लगातार उच्च-ऊर्जा वाले आवेशित कणों के संपर्क में आना पड़ता है. ये इतने ज्यादा हाई एनर्जी वाले चार्ज्ड पार्टीकल होते हैं मानों बंदूक की अदृश्य गोलियां.
इनकी मारक क्षमता इतनी होती है कि ये इंसानी डीएनए को चीर सकती हैं, कैंसर को ट्रिगर कर सकती हैं, दिमाग को नुकसान पहुंचा सकती हैं और दिल को कमजोर कर सकती हैं. अगर इनसे पूरी तैयारी से न निपटा जाए तो ये चंद्रमा, मंगल और उससे आगे के किसी भी लंबी अवधि के मिशन को पूरा करने में सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकते हैं.
इस चुनौती की गंभीरता को समझते हुए भारत ने बड़े पैमाने पर कदम उठाए हैं. 27 फरवरी से 1 मार्च के बीच दिल्ली स्पेस रेडियोबायोलॉजी का ग्लोबल हब बना. यहां टॉप लेवल के साइंटिस्ट, रक्षा अधिकारी और मेडिकल एक्सपर्ट स्पेस रेडिएशन, हेवी आयन और ह्यूमन स्पेस मिशन के जैविक प्रभावों पर आयोजित इंटरनेशनल रेडियो बायोलॉजी कॉन्फ्रेंस में इकट्ठा हुए.
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) के परमाणु चिकित्सा एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान (INMAS) द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में नौ देशों के 35 से अधिक प्रमुख विशेषज्ञ शामिल हुए. इनमें अमेरिकी रक्षा विभाग (DoD), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) और शीर्ष वैश्विक अंतरिक्ष एजेंसियों के विशेषज्ञ शामिल थे.
उनका मिशन इसी बात का पता लगाना था कि अंतरिक्ष यात्रियों को रेडिएशन के घातक प्रभावों से कैसे बचाया जाए, और इस प्रक्रिया में धरती पर अत्याधुनिक कैंसर उपचार को कैसे और बेहतर बनाया जाए.
कार्यक्रम की शुरुआत भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार प्रो. अजय कुमार सूद ने की, जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत की ह्यूमन स्पेस मिशन की चाहत स्पेस रेडियोबायोलॉजी में महारत हासिल करने पर निर्भर करती है. DRDO के अध्यक्ष डॉ. समीर वी. कामथ ने साफ किया कि बायोमेडिकल उपाय के बिना डीप स्पेस मिशन एक खतरनाक दांव बने रहेंगे.
सशस्त्र सेना चिकित्सा सेवा (AFMS), ISRO और रक्षा अनुसंधान संस्थानों के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इस बात की जरूरत पर बल दिया, और रेडियोबायोलॉजी, भौतिकी, इंजीनियरिंग और चिकित्सा को मिलाकर एक इंटर-डिसिप्लेनरी प्रयास की जरूरत को पहचाना.
इस कॉन्फ्रेंस स्पेस रेडिएशन के छिपे खतरों और उनसे निपटने के लिए विकसित की जा रही नवीन तकनीकों पर गहन चर्चा की गई. रेडिएशन-प्रेरित डीएनए क्षति अनुसंधान में अमेरिका के अग्रणी विशेषज्ञ प्रोफेसर अल्बर्ट जे. फोरनेस जूनियर ने चेतावनी देते हुए कहा, "स्पेस रेडिएशन केवल एस्ट्रोनॉट के लिए ही खतरा नहीं है, यह उनकी बायोलॉजी को इस तरह से बदल देता है जिसे हम अभी समझना शुरू कर रहे हैं."
ISRO के डॉ. दिनेश के. सिंह ने ह्यूमन स्पेस मिशन में विकिरण से बचाव के लिए भारत के महत्वाकांक्षी रोडमैप की रूपरेखा प्रस्तुत की, जबकि अमेरिका के ईस्टर्न वर्जीनिया मेडिकल स्कूल के डॉ. रिचर्ड ए. ब्रिटन ने चर्चा को और गहराई से बताते हुए बताया कि कैसे रेडिएशन कॉग्नेटिव सिस्टम को खराब कर सकता है, जिससे एस्ट्रोनॉट को मेमोरी लॉस और अहम स्पेस मिशनों में फैसला लेने में कठिनाई हो सकती है.
सबसे बड़ा खुलासा हेवी-आयन रेडिएशन पर चर्चा से हुआ, जहां डॉ. गेल वोलोशक (अमेरिका) और डॉ. आंद्रेज वोजिक (स्वीडन) जैसे एक्सपर्ट्स ने गुणसूत्र म्यूटेशन और लॉन्ग टर्म कैंसर के जोखिमों के बारे में चौंकाने वाले निष्कर्षों का खुलासा किया.
डॉ. संतोष कुमार (अमेरिका) ने नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए. उन्होंने स्पेस रेडिएशन के संपर्क को आंतों की सेहत में गिरावट और ट्यूमर के बनने से जोड़ा, यह एक ऐसी चिंता है जो स्पेस में एस्ट्रोनॉट हेल्थ सर्विस को नया रूप दे सकती है.
एस्ट्रोनॉट की सुरक्षा के अलावा इस सम्मेलन ने धरती पर चिकित्सा संबंधी सफलताओं के द्वार खोले. प्रोटॉन और हेवी-आयन थेरेपी, जो पहले से ही कैंसर के उपचार में इस्तेमाल की जाती हैं, अब स्पेस रेडिएशन रिसर्च से मिली जानकारी का इस्तेमाल करके उसे बेहतर किया जा रहा है.
एक्सपर्ट्स ने हेवी-आयन चार्ज्ड पार्टिकल थेरेपी केंद्र स्थापित करने की भारत की क्षमता पर चर्चा की, जो स्वस्थ ऊतकों को कम से कम नुकसान पहुंचाते हुए ट्यूमर को सटीक रूप से टारगेट करके कैंसर के उपचार में क्रांति ला सकता है. जर्मनी के डॉ. मार्को दुरांटे ने इस बात पर जोर दिया कि भारत के पास हेवी-आयन थेरेपी में वैश्विक अग्रदूतों के साथ सहयोग करके इस चिकित्सा क्रांति में सबसे आगे रहने का मौका है.
कॉन्फ्रेंस का सबसे महत्वाकांक्षी नतीजा वैश्विक अंतरिक्ष एजेंसियों और अनुसंधान संस्थानों के साथ साझेदारी में DRDO के INMAS की अगुआई में भारत अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष रेडियोबायोलॉजी संघ बनाने का प्रस्ताव था.
इस पहल का उद्देश्य स्पेस रेडिएशन रिसर्च में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है, जिससे यह तय हो सके कि भारत डीप स्पेस ह्यूमन एक्सप्लोरेशन में एक प्रमुख खिलाड़ी बन जाए. हालांकि, विशेषज्ञों ने कुछ अहम कमियों की ओर भी इशारा किया जिन पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है, जैसे कि भारत में एक समर्पित हेवी-आयन एक्सेलेरेटर की कमी, सटीक विकिरण जोखिम मॉडल की आवश्यकता, और जेनेटिक प्रोफाइलिंग के आधार पर व्यक्तिगत अंतरिक्ष यात्री सुरक्षा रणनीतियों का महत्व.
INMAS के निदेशक और कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष, जाने-माने रेडियोबायोलॉजिस्ट डॉ. सुधीर चांदना ने भारत में एक समर्पित हेवी आयन चार्ज्ड पार्टीकल रिसर्च लेबोरेट्री की तत्काल जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने बताया कि दिल्ली के बुराड़ी में पहले से आवंटित डिफेंस लैंड पर देश का पहला प्रमुख CBRNE (रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल, परमाणु और विस्फोटक) सेंटर स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं.
INMAS के वैज्ञानिक और कार्यक्रम के आयोजन सचिव डॉ. कैलाश मंडा ने सम्मेलन के बाद इंडिया टुडे को बताया कि जर्मनी के डार्मस्टाट स्थित फेयर-जीएसआई से एक रिसर्च कोलैबरेशन ऑफर हासिल हुआ है, जिसमें चल रहे वैश्विक शोध में भागीदारी का निमंत्रण दिया गया है.
फैसिलिटी फॉर एंटीप्रोटॉन एंड आयन रिसर्च (फेयर) एक आगामी अंतरराष्ट्रीय एक्सीलेरेटर फैसिलिटी है जिसे फिजिक्स रिसर्च और एप्लीकेशन की एक विस्तृत शृंखला का समर्थन करने के लिए डिजाइन किया गया है. इसका एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्ष्य स्पेस रेडिएशन के जैविक प्रभावों का अनुकरण करने के लिए अपने पार्टीकल बीम का इस्तेमाल करना है. एक्सपोजर और टेस्टिंग के लिए एक समर्पित फैसिलिटी स्थापित की जा रही है.
भारत, जोकि तीसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता और 2010 से संस्थापक सदस्य है, इस बड़े पैमाने की सुविधा के विकास में सक्रिय रूप से शामिल रहा है. देश ने कई प्रमुख एक्सीलेरेटर घटकों का योगदान दिया है, जिनमें पावर कन्वर्टर्स, बीम स्टॉपर्स, वैक्यूम चैंबर और उन्नत डिटेक्टर सिस्टम शामिल हैं. हालांकि, ब्रह्मांडीय विकिरण के जैविक और स्वास्थ्य प्रभावों का अध्ययन करने में भागीदारी एक नई और महत्वपूर्ण पहल होगी.
कॉन्फ्रेंस के समापन पर एक बात साफ थी: भारत अब स्पेस रिसर्च में केवल भागीदार नहीं है, बल्कि स्पेस रेडियोबायोलॉजी में खुद को अग्रणी के रूप में स्थापित कर रहा है. चंद्रमा और मंगल पर मिशन के साथ, देश यह सुनिश्चित करने के लिए कमर कस रहा है कि उसके अंतरिक्ष यात्री दुनिया में सबसे सुरक्षित हैं. इससे भी बढ़कर, इस कार्यक्रम में चर्चा की गई विकिरण चिकित्सा में प्रगति जल्द ही धरती पर अनगिनत लोगों की जान बचा सकती है, जिससे स्पेस साइंस, अंतरिक्ष अन्वेषण और चिकित्सा नवाचार दोनों में एक गेम-चेंजर बन सकता है.
मजबूत वैश्विक सहयोग, अत्याधुनिक रिसर्च और भविष्य के लिए स्पष्ट रोडमैप के साथ भारत न केवल सितारों तक पहुंच रहा है, बल्कि यह तय कर रहा है कि उसके अंतरिक्ष यात्री और उसके लोग ब्रह्मांड की सबसे खतरनाक शक्तियों से सुरक्षित रहें. स्पेस फ्लाइट का भविष्य और शायद कैंसर के उपचार का भविष्य भी दिल्ली में इस सम्मेलन में चर्चा की गई सफलताओं से आकार ले सकता है.