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डॉलर के खिलाफ एकजुट हो रहे BRICS में भारत की दुविधा क्या है?

ब्राजील में हुई BRICS देशों की बैठक में डॉलर को किसी वैकल्पिक करेंसी से बदलने पर सहमति बन गई है ताकि दुनिया की वित्तीय प्रणाली पर से अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के दबदबे को घटाया जा सके

ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में ब्रिक्स 2025 की बैठक हुई
ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में ब्रिक्स 2025 की बैठक हुई
अपडेटेड 11 जुलाई , 2025

हाल में जब BRICS देशों के नेता ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में मिले, तो आमतौर पर होने वाले बहुपक्षीय सम्मेलनों की रस्में - जैसे हाथ मिलाना, घोषणाएं करना, वैश्विक शासन में सुधार की बातें, इस बार ज्यादा गंभीर और जरूरी लग रही थीं.

इन औपचारिकताओं के पीछे असली मुद्दा था कि दुनिया की वित्तीय व्यवस्था की कमान किसके हाथ में होगी, और दुनिया आखिर कब तक अमेरिकी डॉलर पर निर्भर रह सकती है? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि BRICS वैश्विक जीडीपी का करीब 29 फीसद हिस्सा रखता है.

पिछले दो दशकों से ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका से बना BRICS खुद को वैश्विक संस्थाओं में पश्चिमी दबदबे के मुकाबले के रूप में पेश करता रहा है. लेकिन अब तक इसका बहुध्रुवीयता (मल्टी पोलारिटी) का दावा ज्यादातर सिर्फ बातों तक ही सीमित था. हालांकि अब इसमें बदलाव आने लगा है.

रियो सम्मेलन ने डॉलर पर निर्भरता घटाने की BRICS की मुहिम को नई रफ्तार दी. इसमें ब्लॉकचेन आधारित डिजिटल पेमेंट सिस्टम 'BRICS Pay' का खाका पेश किया गया. नेताओं ने BRICS के लिए एक अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली (क्लियरिंग प्लेटफॉर्म) बनाने के प्रस्ताव का समर्थन किया और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार के रास्ते खोलने की योजना रखी, जिसमें मिस्र, इंडोनेशिया, इथियोपिया, बांग्लादेश और यूएई जैसे नए BRICS+ सदस्य भी शामिल होंगे.

रूस और ब्राजील ने यह भी जोर दिया कि बातचीत में डी-डॉलराइजेशन (डॉलर से मुक्ति), मौद्रिक स्वतंत्रता और उस अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर भी खुलकर बात होनी चाहिए जिसमें एक ही देश की मुद्रा (डॉलर) ग्लोबल रिजर्व करेंसी बनी हुई है.

भारत यहां हमेशा की तरह सावधानी बरत रहा था. अभी केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन के साथ अहम व्यापार समझौते पर गहरी बातचीत कर रहे हैं. BRICS के साझेदार रूस और चीन के मुकाबले, भारत के अमेरिका से राजनीतिक और आर्थिक संबंध कहीं बेहतर हैं.

भारत ने सैद्धांतिक रूप में BRICS समूह का साथ दिया, लेकिन हर बात पर नहीं. विदेश मंत्री एस. जयशंकर और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फिर से यह दोहराया कि भारत ऐसी वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्थाओं का समर्थन करता है जो ज्यादा समावेशी हों, राजनीतिक दबाव से सुरक्षित हों और विविध हों.

वहीं देश के अंदर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ा संगठन स्वदेशी जागरण मंच इस मुद्दे पर और भी साफ और सख्त रुख अपना रहा था.

स्वदेशी जागरण मंच के अर्थशास्त्री और राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने साफ कहा, "भारत BRICS की साझा मुद्रा का समर्थन नहीं करता. वह डॉलर की जगह युआन (चीन की मुद्रा) को हावी नहीं देखना चाहता और न ही अपनी मौद्रिक स्वतंत्रता किसी ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्था को सौंपना चाहता है, जिसकी पारदर्शिता और नियंत्रण पर अभी भी सवाल उठते हैं."

भारत जो फर्क बता रहा है, वह सूझबूझ भरा और रणनीतिक है. अश्विनी महाजन ने समझाया, "हम डॉलर के खिलाफ नहीं हैं, हम डॉलर के हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ हैं." और भारत अपनी अर्थव्यवस्था को अमेरिका से आने वाले संभावित झटकों से बचाने के लिए कई तरह की योजनाओं पर काम कर रहा है - कुछ शांत तरीके से, तो कुछ बड़े स्तर पर. लेकिन साथ ही, वह डॉलर की जो सुविधाएं अभी मिल रही हैं, उन्हें भी पूरी तरह छोड़ना नहीं चाहता.

पिछले कुछ सालों में इस मुद्दे की गंभीरता और जरूरी होने का एहसास तेजी से बढ़ा है. यूक्रेन पर हमले के बाद रूस के सेंट्रल बैंक के रिजर्व को पश्चिमी देशों ने फ्रीज कर दिया था. इसके अलावा ईरान और वेनेजुएला पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए. साथ ही, चीन को इस बात का डर है कि उसे वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से अलग किया जा सकता है.

इन सब बातों ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जब वित्तीय व्यवस्था को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है तब क्या कोई देश वाकई सुरक्षित है.

भारत के लिए भी अब यह सवाल सिर्फ कल्पना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि रणनीति का हिस्सा बन गया है. अगर भविष्य में भारत को किसी सीमा विवाद या कूटनीतिक संकट का सामना करना पड़े, और उस समय डॉलर बाजार, पेमेंट सिस्टम या क्रेडिट रेटिंग के जरिए उस पर दबाव डाला जाए, तो उसका हल क्या होगा?

ऐसी ही चेतावनी भरी बातें RSS से जुड़े कई संगठन अलग-अलग मंचों पर उठा रहे हैं.

भारत के नजरिए से इसका हल डॉलर सिस्टम को तोड़ना नहीं, बल्कि साथ में मजबूत और भरोसेमंद विकल्प तैयार करना है. 2022 से, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 30 से ज्यादा देशों के साथ "स्पेशल रुपया वोस्ट्रो अकाउंट्स" की शुरुआत की. इन खातों के जरिए विदेशी बैंक रुपये रख सकते हैं, जिससे वे भारत के साथ सीधा व्यापार कर सकें.

रूस, श्रीलंका और मॉरीशस जैसे देश इसमें शामिल हो चुके हैं. हालांकि यह व्यवस्था पूरी तरह आसान नहीं है क्योंकि कई देशों को अब भी तीसरे देशों के साथ व्यापार के लिए डॉलर की जरूरत पड़ती है, या रुपये को दूसरी मुद्राओं में बदलने में दिक्कत होती है. फिर भी इसने भारत को एक नया मॉडल बनाने में मदद की है.

भारत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बीच का समझौता और भी ज्यादा उम्मीद वाला है. 2023 में, रुपये और दिरहम में भुगतान की एक आधिकारिक व्यवस्था शुरू की गई. इसके साथ ही, भारत के यूपीआई और यूएई के इंस्टेंट पेमेंट सिस्टम (आईपीपी) को आपस में जोड़ने पर भी समझौता हुआ, जिससे दोनों देशों के बीच रियल-टाइम लेनदेन संभव हो गया.

यह सिर्फ सांकेतिक कदम नहीं है, बल्कि इससे बड़ा बदलाव शुरू हो सकता है. यूएई न सिर्फ भारत का एक प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता है, बल्कि एक बड़ा व्यापारिक साझेदार और वित्तीय केंद्र भी है. अगर तेल का व्यापार बिना डॉलर के या कम से कम आंशिक रूप से होने लगे, तो यह एक अहम बदलाव का संकेत होगा.

ध्यान देने की बात है कि आज डॉलर को जो ताकत मिलती है, उसका एक बड़ा कारण है उसका "पेट्रोडॉलर" के रूप में इस्तेमाल. इसका मतलब है तेल के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इस्तेमाल होने वाला अमेरिकी डॉलर. 1973 में, अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका और सऊदी अरब के बीच एक समझौते के तहत पेट्रोडॉलर प्रणाली शुरू की गई थी, जिसे बाद में OPEC (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) देशों तक बढ़ा दिया गया.

आज करीब 80 फीसद तेल का व्यापार अमेरिकी डॉलर में होता है. इस वजह से दुनिया के ज्यादातर देशों को अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर रखना पड़ता है, ताकि वे तेल खरीदने की जरूरत पूरी कर सकें. इसके अलावा मौजूदा समय में करीब 60 फीसद अमेरिकी डॉलर बिल का लेनदेन अमेरिका और उसके अधीनस्थ क्षेत्रों के बाहर होता है.

BRICS+ समूह दुनिया की करीब आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है और करीब 29 फीसद वैश्विक जीडीपी को नियंत्रित करता है. अगर इसमें थोड़ा भी बदलाव आता है, तो अमेरिका की आर्थिक स्थिति और उसका दबदबा प्रभावित हो सकता है. इसी वजह से डोनाल्ड ट्रंप BRICS देशों और उनके साझेदारों पर 10 फीसद अतिरिक्त टैक्स (टैरिफ) लगाने की धमकी दे रहे हैं.

इस बीच, BRICS देश अमेरिका की ओर से एकतरफा लगाए गए टैरिफ की निंदा कर रहे हैं और ऐसे विकल्प तैयार करने के लिए जरूरी ढांचा बनाने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं. भारत भी डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर को मौद्रिक सुरक्षा का एक साधन मानकर आगे बढ़ा रहा है. इसका UPI (यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस), जिसे घरेलू डिजिटल भुगतान में क्रांति माना गया है, अब दूसरे देशों को एक मानक के रूप में निर्यात किया जा रहा है.

सिंगापुर, मॉरीशस, भूटान, फ्रांस और यूएई ने भारत के साथ यूपीआई को जोड़ने के समझौते किए हैं. फिलहाल इनका इस्तेमाल खरीदारी और पर्यटन जैसे छोटे लेन-देन में हो रहा है, लेकिन ये आगे बड़े स्तर की व्यवस्था की नींव तैयार कर रहे हैं. इसी के साथ, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) भी डिजिटल रुपया की टेस्टिंग कर रहा है, और भविष्य में इसे अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में इस्तेमाल करने की योजना है - जैसे mBridge प्रोजेक्ट, जो चीन, थाईलैंड और यूएई जैसे देशों के साथ मिलकर केंद्रीय बैंकों की डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) पर काम कर रहा है.

रियो सम्मेलन में भारत ने 'BRICS Pay' की घोषणा का समर्थन किया, लेकिन कुछ जरूरी शर्तें भी जोड़ दीं. भारत ने कहा कि ऐसी कोई भी प्रणाली देश की मौजूदा भुगतान प्रणालियों से जुड़ने लायक होनी चाहिए, न कि उन पर थोप दी जाए. यह व्यवस्था स्वैच्छिक भागीदारी पर आधारित होनी चाहिए और इसमें डेटा सुरक्षा और राष्ट्रीय संप्रभुता के मानकों का पालन किया जाना चाहिए. साथ ही, भारत ने साझा BRICS मुद्रा के प्रस्ताव का भी विरोध किया.

भारतीय अधिकारियों ने अनौपचारिक रूप से बताया कि रूस और ब्राजील बार-बार 'कॉमन करेंसी' (साझा मुद्रा) की बात करते रहे हैं, लेकिन यह प्रस्ताव व्यवहारिक रूप से कई समस्याओं से भरा हुआ है. जब तक देशों के बीच एक जैसी मौद्रिक नीति, साझा आर्थिक नीति और भरोसेमंद शासन व्यवस्था नहीं होती, तब तक यह विचार आर्थिक रूप से जल्दबाजी और राजनीतिक रूप से जोखिम भरा होगा.

भारत के लिए यह प्रस्ताव इसलिए भी अस्वीकार्य है, क्योंकि इससे युआन के प्रभाव में आने का खतरा बढ़ जाता है, जो भारत नहीं चाहता.

अब BRICS बैंक या न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह क्षेत्रीय मुद्रा भंडार और भुगतान निपटान केंद्र (क्लियरिंगहाउस) के लिए एक रूपरेखा तैयार करे. भारत का रुख साफ है कि वह वैश्विक वित्तीय ढांचे में सुधार का समर्थन करता है, लेकिन यह भी चाहता है कि इससे किसी प्रकार की गुटबंदी या टकराव न पैदा हो.

अब सभी की नजर नवंबर में जोहान्सबर्ग में होने वाली BRICS+ वित्त मंत्रियों की बैठक पर है, जहां BRICS Pay के संचालन नियमों, स्थानीय मुद्रा में व्यापार विवादों के समाधान की वैधता और ऐसी सुरक्षा व्यवस्था बनाने पर चर्चा होगी जिससे BRICS संस्थाएं चीन के आर्थिक प्रभाव का हिस्सा न बन जाएं.

भारत का स्पष्ट मानना है कि BRICS एक मजबूत और स्थिर विकल्प बन सकता है, लेकिन इसे डॉलर के खिलाफ किसी विचारधारा की लड़ाई का मंच नहीं बनना चाहिए.

असल में, भारत की ये सावधानी 'हार्ड रियलिज्म' पर आधारित है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों में यह एक प्रमुख सिद्धांत है, जो यह मानता है कि देशों के बीच रिश्ते मूल रूप से शक्ति, राष्ट्रीय हित और सुरक्षा पर आधारित होते हैं, न कि नैतिकता, आदर्शवाद या अंतरराष्ट्रीय कानूनों पर.

बहरहाल, BRICS देशों में भारत के पश्चिमी देशों की वित्तीय प्रणाली से सबसे गहरे रिश्ते हैं. भारत के वित्तीय बाजारों में करीब 800 अरब डॉलर की विदेशी पूंजी लगी हुई है, जिसमें ज्यादातर डॉलर में है.

भारतीय कंपनियां ग्लोबल बॉन्ड मार्केट से पूंजी जुटाती हैं और भारत के पास भी अमेरिकी बॉन्ड में बड़ा विदेशी भंडार जमा है. ऐसे में अगर भारत अचानक या विचारधारात्मक रूप से डॉलर से दूरी बना लेता है, तो इसका नुकसान खुद भारत की अर्थव्यवस्था को होगा. भारत के लिए डॉलर कोई दुश्मन नहीं है, यह एक साधन है, लेकिन उस पर पूरी तरह निर्भर रहना भी ठीक नहीं.

भारत जो चाहता है, वह है विकल्पों की सुविधा. वह ऐसा विश्व चाहता है जहां व्यापार के लेन-देन में रुपये की बड़ी भूमिका हो, डिजिटल सिस्टम भारत के नियंत्रण में हों और ऐसे विदेशी रास्तों से बचा जाए जिन पर दूसरों का दबदबा हो.

भारत ऐसी बैकअप व्यवस्थाएं भी चाहता है, जो मुख्य सिस्टम के फेल होने पर काम आ सकें. भारत की यह रणनीतिक सोच उसकी विदेश नीति के बड़े नजरिए को बताती है जहां वह बहुध्रुवीय संबंध, मुद्दों के आधार पर साझेदारी और स्वायत्तता को प्राथमिकता देता है, न कि किसी एक गुट के साथ पूरी तरह जुड़ने को.

इसी वजह से भारत सिर्फ BRICS तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य मंचों पर भी उतना ही सक्रिय है जो आर्थिक स्थिरता से जुड़े हैं. क्वाड समूह में भारत सप्लाई चेन को सुरक्षित और मजबूत बनाने के प्रयासों में शामिल है. G20 में वह बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार और ज्यादा प्रतिनिधित्व वाली वित्तीय व्यवस्था की मांग कर रहा है.

इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) में भारत डिजिटल व्यापार और भरोसेमंद वित्तीय मानकों पर काम कर रहा है. ये सारी पहलें BRICS की भूमिका के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि उसे मजबूत करती हैं. भारत किसी एक मंच पर नहीं, बल्कि सभी मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने की नीति अपना रहा है.

फिर भी, ब्राजील में हुई BRICS बैठक ने यह साफ कर दिया कि अब तेजी से आगे बढ़ने का दबाव बढ़ रहा है. प्रतिबंधों के चलते डॉलर बाजार से बाहर किए गए रूस की कोशिश है कि वह एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था बनाए जो पूरी तरह से स्वतंत्र और सुरक्षित हो.

चीन अपनी कमजोरियों को लेकर सतर्क है और युआन को क्षेत्रीय या वैश्विक रिजर्व करेंसी के रूप में स्थापित करने का अवसर देख रहा है. ब्राजील दक्षिण अमेरिका की वित्तीय संस्थाओं में ज्यादा क्षेत्रीय स्वतंत्रता चाहता है.

वहीं भारत, जहां स्थानीय मुद्राओं के इस्तेमाल और डॉलर पर निर्भरता घटाने के प्रयासों का समर्थन करता है, वह नहीं चाहता कि BRICS समूह डॉलर-विरोध की विचारधारा में बहक जाए. भारत का मानना है कि यह रास्ता न केवल आर्थिक रूप से जोखिम भरा, बल्कि रणनीतिक रूप से भी सीमित करने वाला हो सकता है.

यह संतुलन बनाए रखने की कोशिश साल भर जारी रहेगी. आगामी BRICS+ वित्त मंत्रियों की बैठक में उम्मीद है कि BRICS Pay को लागू करने, क्लियरिंग प्लेटफॉर्म के संचालन ढांचे को अंतिम रूप देने और व्यापार लेनदेन की व्यवस्था को और मजबूत करने पर जोर दिया जाएगा. सबसे बड़ा सवाल यही रहेगा: इस पर नियंत्रण किसका होगा?

अगर इस व्यवस्था के डिजाइन और संचालन पर चीन का दबदबा रहता है, तो भारत बिना जरूरी सुरक्षा उपायों के इसका समर्थन नहीं करेगा. भारत यह भी चाहेगा कि नए BRICS+ देशों जैसे मिस्र, इथियोपिया, ईरान और यूएई को भी ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले, ताकि यह नई वित्तीय व्यवस्था सिर्फ पांच देशों का समूह न बनकर एक विस्तृत और विविध मंच बने, जो अलग-अलग आर्थिक क्षेत्रों को दिखाए.

भारत की मूल मांग साफ और स्थिर है - ऐसे विकल्प बनाए जाएं जो आपस में जुड़ सकें, खुले हों और भरोसे पर आधारित हों. सिर्फ अमेरिकी डॉलर को हटाकर किसी और ताकतवर मुद्रा को उसकी जगह न लाया जाए. और मौजूदा व्यवस्था को तब तक न छोड़ा जाए जब तक कोई बेहतर और भरोसेमंद विकल्प तैयार न हो जाए.

यह एक नाजुक संतुलन है, लेकिन भारत मानता है कि उसे यह रास्ता अपनाना ही होगा. दुनिया की अर्थव्यवस्था बंट रही है, वित्तीय प्रतिबंध आम होते जा रहे हैं, और भू-राजनीतिक अस्थिरता व्यापार पर असर डाल रही है. ऐसे समय में मौद्रिक सुरक्षा की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा साफ दिखाई दे रही है. भारत डॉलर के खिलाफ दांव नहीं खेल रहा है, बल्कि वह ऐसी दुनिया की तैयारी कर रहा है जहां किसी एक प्रणाली - चाहे वह पश्चिमी हो या पूर्वी - पर पूरी तरह निर्भर रहना एक जोखिम है.

BRICS में डॉलर को लेकर चल रही बड़ी बहस में भारत भले ही सबसे तेज आवाज न हो, लेकिन वह सबसे सोच-समझकर चलने वालों में से एक है. जहां दूसरे देश बड़े बदलाव की दौड़ में लगे हैं, भारत धीरे-धीरे एक मजबूत और सुरक्षित व्यवस्था तैयार कर रहा है. और आज की बहुध्रुवीय दुनिया में शायद यही सबसे समझदारी भरा निवेश साबित हो.

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