प्रियंका गांधी वाड्रा ने जब भारतीय राजनीति में औपचारिक रूप से प्रवेश किया, तब एक त्रासदी की वजह से उनकी खबर सुर्खियां नहीं बटोर पाई. 14 फरवरी, 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले के कारण उनकी पहली निर्धारित प्रेस कॉन्फ्रेंस अचानक रद्द कर दी गई. तब से उन्होंने कोई औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से परहेज किया है. इसके बजाय प्रियंका पर्दे के पीछे से रणनीतिक संचालक की भूमिका निभा रही थीं. पांच साल बाद, 23 अक्टूबर को कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल करने के बाद प्रियंका अपने भाई राहुल गांधी की खाली की गई सीट वायनाड में उपचुनाव लड़कर अब चुनावी राजनीति में सीधे प्रवेश करने वाली हैं.
उनके इस निर्णय का असर कांग्रेस पार्टी के अलावा देश की राजनीति पर भी पड़ेगा. अगर प्रियंका जीतती हैं तो यह एक ऐतिहासिक क्षण होगा क्योंकि गांधी परिवार के तीनों राजनीतिक रूप से सक्रिय सदस्य - प्रियंका, राहुल और उनकी मां सोनिया गांधी - एक साथ संसद में पद संभालेंगे. यह अभूतपूर्व स्थिति कांग्रेस में शक्ति संतुलन पर सवाल उठाती है, जहां पूरी पार्टी ही लंबे समय से गांधी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है. पार्टी के भीतर, इस कदम को गांधी परिवार की अपनी राजनीतिक विरासत और प्रभाव को बनाए रखने की प्रतिबद्धता की पुष्टि के रूप में देखा जा रहा है.
वायनाड को खाली करने और रायबरेली को बनाए रखने का राहुल का फैसला यह दिखाता है कि उत्तर और दक्षिण भारत दोनों में गांधी परिवार अपनी उपस्थिति सुरक्षित करना चाहता है. मुमकिन है कि इससे पार्टी की राष्ट्रीय पहुंच भी मजबूत होगी. वायनाड से चुनाव लड़कर, प्रियंका गांधी केवल एक सीट की लड़ाई ना लड़कर, एक ऐसे रणनीतिक गढ़ में कदम रख रही हैं जहां कांग्रेस का दबदबा बना हुआ है. खासकर तब जब 2019 में राहुल की जीत ने व्यापक चुनावी असफलताओं के दौर में पार्टी की स्थिति को संभाला.
हालांकि, यह फैसला चुनौतियों से खाली नहीं है. कांग्रेस की 'वंशवादी राजनीति' की लंबे समय से आलोचना करने वाली बीजेपी ने प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी को सबूत के तौर पर भुनाया है. बीजेपी नेताओं ने पहले ही राजनीति में उनकी एंट्री को पार्टी की कथित भाई-भतीजावाद की प्रथाओं के विस्तार के रूप में पेश किया है. जबकि गांधी नाम ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस के लिए वरदान और अभिशाप दोनों रहा है, प्रियंका की सफलता या विफलता पार्टी के खुद को फिर से स्थापित करने के प्रयासों के लिए एक लिटमस टेस्ट होगी. इसलिए कांग्रेस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी उपस्थिति को न केवल एक राजनीतिक वंश के विस्तार के रूप में देखा जाए, बल्कि पार्टी में नए नेतृत्व को लाने के एक वास्तविक प्रयास भी झलके.
वायनाड में चुनावी समीकरण एक जटिल लड़ाई पेश करता है. प्रियंका गांधी के मुख्य विरोधियों में सीपीआई के सत्यन मोकेरी शामिल हैं, जो एक अनुभवी नेता और केरल के पूर्व विधायक हैं. सत्यन किसानों के अधिकारों के लिए अपनी कट्टर वकालत के लिए जाने जाते हैं. मोकेरी की उम्मीदवारी को वामपंथियों के एक मजबूत कदम के रूप में देखा जा रहा है. सीपीआई कांग्रेस के साथ इंडिया ब्लॉक का हिस्सा तो है, लेकिन केरल की राजनीति में एक प्रतियोगी बनी हुई है. दूसरी तरफ बीजेपी की नव्या हरिदास हैं जो एक युवा नेता और दो बार की पार्षद हैं और राज्य में अपने कनेक्शंस के लिए जानी जाती हैं. उनकी उम्मीदवारी केरल में अपना आधार बढ़ाने की बीजेपी की बड़ी रणनीति का हिस्सा है, जहां उसे पैर जमाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है.
वायनाड के कांग्रेस का गढ़ होने के पीछे मुस्लिम और ईसाई मतदाताओं का एक बड़ा समूह है जिनका झुकाव केरल के कांग्रेस नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) की तरफ है. निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के आलोचक कहते हैं कि राहुल का वायनाड से जुड़ाव दूर का महसूस होता है, और संभव है कि प्रियंका गांधी भी इससे कोई अलग नहीं हों. इन सब के बावजूद, गांधी परिवार के प्रति वफादारी की भावना बनी हुई है, जो उपचुनाव में निर्णायक भूमिका निभा सकती है.
प्रियंका की जीत के दूरगामी परिणाम होंगे. यह जीत राहुल गांधी के साथ कांग्रेस में एक केंद्रीय व्यक्ति के रूप में प्रियंका गांधी की भूमिका को मजबूत करेगा, और संभव है कि पार्टी के आधार को फिर से सक्रिय करेगा. उनकी जीत संभावित रूप से 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले केरल में कांग्रेस की उपस्थिति को भी मजबूत कर सकती है. इससे यूडीएफ की चुनावी संभावनाओं को भी बल मिलेगा. राष्ट्रीय मोर्चे पर, संसद में गांधी परिवार के तीनों सदस्यों के होने से पार्टी नेतृत्व के समीकरण बदले-बदले नजर आ सकते हैं. इससे बीजेपी के प्रभुत्व का मुकाबला करने में भी शायद पार्टी को सुविधा महसूस हो.
पिछले कुछ सालों में प्रियंका ने पर्दे के पीछे की रणनीतिकार और स्टार प्रचारक की भूमिका निभाई है. अक्सर उनकी तुलना उनकी दादी इंदिरा गांधी से की जाती है खासकर उनके करिश्मे और राजनीतिक कौशल के लिए. पर्दे के पीछे की रणनीतिकार से लेकर फ्रंटफुट पर खेलने वाली राजनेता तक उनका बदलाव कांग्रेस के अधिक आक्रामक और लुभावना विपक्ष बनाने के इरादे का संकेत देता है.
प्रियंका की राष्ट्रीय अपील का एक मुख्य पहलू भावनात्मक स्तर पर मतदाताओं से जुड़ने की उनकी क्षमता है, जो इंदिरा गांधी की शैली की याद दिलाती है. जहां राहुल गांधी के भाषणों में नीतियों की बात होती है, वहीं प्रियंका अपने भाषणों में व्यक्तिगत घटनाओं को राजनीतिक बिंदुओं के साथ बखूबी जोड़ती हैं. यह शैली कांग्रेस को मतदाताओं के उस बड़े स्पेक्ट्रम तक पहुंचने में मदद कर सकती है जो ऐसे नेताओं की तलाश करते हैं जिनसे वे अधिक व्यक्तिगत स्तर पर जुड़ सकें. बीजेपी नेताओं को उनके सीधे, बिना किसी रोक-टोक के जवाबों ने उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी की एक निडर और मुखर आलोचक के रूप में भी स्थापित किया है. यह एक ऐसा गुण है जो हाल के सालों में कांग्रेस नेतृत्व की संरचना से कुछ हद तक गायब रहा है.
संसद में प्रियंका गांधी की मौजूदगी बीजेपी के लिए परेशानी बन सकती है
संसदीय बहसों में प्रियंका की भागीदारी बीजेपी के नैरेटिव को चुनौती देने की कांग्रेस की क्षमता को फिर से मजबूत कर सकती है. पिछले कुछ सालों से जहां राहुल गांधी अक्सर कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के रूप में अकेले खड़े रहते थे, वहां प्रियंका की मौजूदगी का मतलब एक अधिक मजबूत मोर्चा हो सकता है. उनमें सीधे बहस में शामिल होने, बीजेपी नेताओं का मुकाबला करने और कांग्रेस के दृष्टिकोण को अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्त करने की क्षमता है, जो एक ऐसे राजनीतिक माहौल में महत्वपूर्ण हो सकता है जहां परसेप्शन और प्रेजेंटेशन अहम भूमिका निभाते हैं.
संसद में प्रियंका गांधी का दृष्टिकोण अच्छी तरह से स्थापित हो सकता है, खासकर तब, जब वे महिला सशक्तीकरण, शिक्षा और आर्थिक समानता जैसे मुद्दों पर बहस कर रही हों. एक ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में एक महिला नेता के रूप में, जहां अभी भी पुरुषों का वर्चस्व है, उनकी उपस्थिति राजनीति में अधिक लैंगिक प्रतिनिधित्व के लिए कांग्रेस की प्रतिबद्धता को भी दिखाएगी. संसद में उनकी सक्रिय भागीदारी राष्ट्रीय मंच पर कांग्रेस की विजिबलिटी को बढ़ा सकती है.
इसके अलावा विपक्षी गुट के भीतर गठबंधन बनाने की उनकी क्षमता महत्वपूर्ण होगी. उन्हें इन गठबंधनों को चतुराई से चलाना होगा, यह सुनिश्चित करना होगा कि कांग्रेस अपनी जमीन न खो दे, साथ ही क्षेत्रीय खिलाड़ियों को भी साथ लेकर चलना होगा जिनकी प्राथमिकताएं अलग हो सकती हैं.
प्रियंका गांधी वाड्रा का चुनावी पदार्पण कांग्रेस के लिए न केवल संसदीय सीट हासिल करने के मामले में बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी के दृष्टिकोण को फिर से परिभाषित करने के मामले में भी गेमचेंजर साबित हो सकता है. अगर वे अपने करिश्मे, रणनीतिक कौशल और जनता से प्रभावी ढंग से जुड़ने की क्षमता का लाभ उठाती हैं, तो वह बीजेपी के लिए एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर सकती हैं.
उनकी सफलता कांग्रेस में एक बड़ी भूमिका का रास्ता भी तैयार कर सकती है, संभवतः पार्टी नेतृत्व के लिए भविष्य की दावेदार के रूप में भी. हालांकि, उनकी यात्रा के लिए पार्टी के अंदरूनी मसले और बाहरी राजनीतिक चुनौतियां, दोनों को सावधानीपूर्वक समझने की जरूरत होगी,. फिलहाल, सभी की निगाहें वायनाड पर हैं क्योंकि यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक टकराव का केंद्र बन गया है जो कांग्रेस के भविष्य की दिशा और भारतीय राजनीति में इसकी भूमिका को आकार दे सकता है.