scorecardresearch

कामिकाज़े ड्रोन : दूसरे विश्वयुद्ध से जन्मे मशीनी टिड्डियों के वो झुंड जो भारत-पाकिस्तान के ड्रोन वॉर में भी खूब चले!

इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयों का बड़ा हिस्सा आसमानी घात-प्रतिघात के जिम्मे है, भारत पाकिस्तान के ताजा विवाद में ये साबित हुआ है

भारत का स्वदेशी कामिकाज़े ड्रोन (बाएं), पाकिस्तान का ईरान मेड ड्रोन
अपडेटेड 13 मई , 2025

भारत पाकिस्तान तनाव के बीच लगातार एक नाम चर्चा में है. कामिकाज़े ड्रोन. दोनों ही तरफ से इनका इस्तेमाल किया गया. क्योंकि दोनों ही देश आधिकारिक तौर पर फुल स्केल वॉर में नहीं उतरे, और आर्मी-नेवी स्टैंडिंग मोड में ही रही इसलिए सारी लड़ाई हुई हवाई. दोनों तरफ से एयर स्ट्राइक और एयर डिफेंस ही कुल जमा लड़ाई का सार रहा. दोनों तरफ की सरकारों ने भी आधिकारिक सूचना में एयर स्ट्राइक की बात कही, इसी से बचाव और नुक्सान का लेखा जोखा दिया गया जनता को.

इस लड़ाई में कामिकाज़े ड्रोन्स की बड़ी हिस्सेदारी रही. नाम सुनकर ऐसा लग सकता है कि ये एक ख़ास कंपनी का ड्रोन है जो दोनों देशों ने एक ही सप्लायर से लिया है और इसी की आसमानी आजमाइश चल रही है. लेकिन ऐसा नहीं है. कामिकाज़े ड्रोन्स के बारे में जानने से पहले आइए पहले कामिकाज़े शब्द का वर्ल्ड वॉर 2 कनेक्शन समझ लेते हैं.

सेकेंड वर्ल्ड वॉर और कामिकाज़े

1944 में जब जापान की एयर फ़ोर्स बुरी तरह टूट चुकी थी. फिलिपीन्स के पास खड़ा अलाइड फ़ोर्स का जंगी बेड़ा जापान पर चढ़ाई की तैयारी में था. जापान ने तब बिल्कुल उलट और हैरतअंगेज रणनीति अपना ली. जापान ने बचे हुए छोटे बमवर्षक विमानों को सुसाइड बॉम्बर्स में बदल दिया. जापान के बॉम्बर विमान बम गिराने के लिए दुश्मन के ऊपर नहें उड़ते थे बल्कि सीधा दुश्मन के जहाज या टैंकों के बेड़े से टकराने के लिए जाते थे. मित्र देश की सेनाएं इससे हैरान रह गईं कि कोई देश ऐसा कैसे कर सकता है और उसके पास इस तरह के मिशन के लिए पायलट कैसे तैयार हैं!

जापान में कामिकाज़े पायलट को अलविदा कहते स्कूली बच्चे

इन्हीं पायलटों को कामिकाज़े कहा जाता था. जापानी शब्द कामिकाज़े का मतलब होता है ‘खत्म हो जाना’. हिंदी में विध्वंस जैसा कुछ. कामिकाज़े हवाई जहाज़ों का किसी के पास कोई तोड़ नहीं था. हो भी नहीं सकता था. क्योंकि जब दुश्मन का जहाज आत्मघाती ही बन गया तो उसके ख़िलाफ़ क्या किया जा सकता है. जापान के हिरोशिमा नागासाकी पर जब परमाणु बम गिरा उससे ठीक पहले जापान ने हजारों कामिकाज़े जहाज तैयार रखे हुए थे. लेकिन इस हमले के बाद जापान को सरेंडर करना पड़ा.

वर्ल्ड वॉर 2 में मित्र देशों के एक जंगी जहाज को तबाह करने के बाद कामिकाज़े

तो कामिकाज़े कोई कंपनी या ब्रांड नहीं, एक भाव है, जिसका मतलब है आत्मघाती. ड्रोन का इस्तेमाल टार्गेट पर बम गिराना होता है, लेकिन अगर टार्गेट से ड्रोन ही जाकर टकरा जाए और बम समेत फट पड़े तो ऐसे ड्रोन्स को कहते हैं ‘कामिकाज़े ड्रोन’.

ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत और पाकिस्तान ने अपने-अपने आत्मघाती यानि कामिकाज़े ड्रोन्स टार्गेट की तरफ भेजे. अब ये समझ लेते हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों के पास कौन से कामिकाज़े ड्रोन हैं जिनका इस बार जमकर इस्तेमाल हुआ. 

पाकिस्तान का ‘कामिकाज़े’ ड्रोन 

इस बार पाकिस्तान ने जिस आत्मघाती ड्रोन का इस्तेमाल किया उसका नाम है ‘शहीद 136’. इसे ईरान की कंपनी HESA ने बनाया है. "ईरान एयरक्राफ्ट मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्रियल कंपनी (HESA)" के मुताबिक़ दिखने में एक छोटे विमान जैसे इस ड्रोन की लंबाई 3.56 मीटर और पंखों का फैलाव (विंगस्पैन) 2.59 मीटर है. इसका डिज़ाइन डेल्टा-विंग कॉन्फिगरेशन पर बेस्ड है, यानी इसके पंख त्रिकोणीय आकार के हैं, जो इसे स्थिरता और लंबी उड़ान की क्षमता देते हैं. इसका वज़न करीब 200 किलोग्राम है, जिसमें से 5 से 35 किलोग्राम तक का वॉरहेड (विस्फोटक) होता है, जो मिशन के हिसाब से बदलता है.

शहीद ड्रोन टार्गेट को हिट करने के मामले में कारगर माने जाते हैं

इतने वज़न को उठाने के लिए इसमें एक छोटा-सा इंजन लगा है- Mado MD-550. ये 50 हॉर्सपावर का टू-स्ट्रोक इंजन है, जो आमतौर पर स्कूटर या मोपेड में इस्तेमाल होता है. ये इंजन चीन से सस्ते दामों पर लिया गया है. इसकी वजह से ड्रोन की रफ्तार करीब 180 किलोमीटर प्रति घंटा है. यही वजह है कि इसे "मोपेड ड्रोन" भी कहा जाता है. ये हवा में उड़ते वक्त सेकेंड वर्ल्ड वॉर के जर्मन स्टुका विमानों की तरह तेज़ आवाज़ करता है. उस समय जर्मन सेना ने स्टुका विमानों में एक खास सायरन लगाया था, जो तेज़ गोता लगाते वक्त चीखने की आवाज़ करता था- ये दुश्मन पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए था.

ये ड्रोन GLONASS (रूस का GPS  सिस्टम) और एंटी-रेडिएशन सीकर से लैस है, जो दुश्मन के रेडियो सिग्नल्स को पकड़कर हमला करता है. इसके पंखों के सिरों पर छोटे-छोटे फ्लैप्स होते हैं, जिन्हें "एलिवॉन्स" कहा जाता है. ये फ्लैप्स हवाई जहाज के एलिवेटर की तरह काम करते हैं, जो ड्रोन को ऊपर-नीचे करने में मदद करते हैं.

कामिकाज़े ड्रोन 'शहीद 136' कैसे काम करता है?

इसे समझने के लिए हम स्टेप बाय स्टेप इसकी कार्यप्रणाली को समझ लेते हैं -

स्टेप 1: लोडिंग और ट्रांसपोर्ट 

ये ड्रोन एक साधारण ट्रक पर लोड किया जाता है, जो बाहर से किसी सामान्य कार्गो ट्रक जैसा दिखता है. लेकिन इसके अंदर एक खास लॉन्चर होता है, जिसमें 5 ड्रोन रखे जाते हैं. 

स्टेप 2: नेविगेशन डेटा फीड करना

लॉन्च करने से पहले ड्रोन में नेविगेशन डेटा डाला जाता है. ड्रोन को टार्गेट के कोऑर्डिनेट्स दिए जाते हैं, और यह अपने आप उड़ान भरने के लिए तैयार हो जाता है.

स्टेप 3: रॉकेट असिस्टेड टेकऑफ (RATO)

लॉन्च करने के लिए एक बटन दबाया जाता है, और ड्रोन को रॉकेट असिस्टेड टेकऑफ (RATO) की मदद से हवा में भेजा जाता है. ये रॉकेट ड्रोन को शुरुआती स्पीड देता है और उसे हवा में ऊपर ले जाता है. लॉन्च के तुरंत बाद ये रॉकेट अलग हो जाता है, ताकि ड्रोन का वज़न कम हो और उसका टू-स्ट्रोक इंजन काम शुरू कर दे.

अगर समय पर ड्रोन दिख जाए तो लॉन्ग रेंज एयर ट्रेसर गन से उसे खत्म किया जा सकता है

स्वार्म टैक्टिक्स

शहीद 136 की सबसे बड़ी ताकत इसकी "स्वार्म टैक्टिक्स" है. एक साथ 5 से 10 ड्रोन लॉन्च किए जाते हैं, जो दुश्मन के एयर डिफेंस को भारी दबाव में डाल देते हैं. इतने सारे ड्रोन एक साथ हमला करते हैं कि रक्षा प्रणाली के लिए उन सभी को रोकना मुश्किल हो जाता है.

कम ऊंचाई भी एक ख़ासियत 

ये ड्रोन बहुत कम ऊंचाई पर उड़ता है, जिससे रडार के लिए इसे पकड़ना मुश्किल हो जाता है. साथ ही, इसका ढांचा कंपोजिट मैटेरियल से बना है, जो रडार सिग्नल्स पर काम भर रिफ्लेक्ट नहीं करता. टार्गेट को हिट करने के अगर फिफ्टी फिफ्टी पर्सेंट चांस भी किसी ड्रोन ने दिए हैं तो उसे जंग में कामयाब माना जाता है. एक साथ एक ही टार्गेट पर झुंड में हमला करने की वजह से ये ड्रोन कामयाबी के मौके बढ़ा देता है.

खड्ग कई मायनों में सबसे कामयाब कामिकाज़े ड्रोन्स में से एक माना जाता है

भारत के पास इसके मुकाबले क्या है?

अगस्त 2024 में भारत की National Aerospace Laboratories (NAL) ने स्वदेशी ड्रोन प्रोग्राम लॉन्च किया था. उसी प्रोग्राम के तहत भारत ने दिसंबर 2024 में अपना कामिकाज़े ड्रोन बना लिया था. इस ड्रोन का नाम है ‘खड्ग’. तलवार जैसे ही एक धारदार हथियार को भारत में खड्ग कहा जाता है जिसे नौ देवियों के एक रूप काली का शस्त्र माना जाता है. भारत ने इसी वजह से अपने कामिकाज़े ड्रोन का नाम रखा खड्ग. भारतीय सेना के इस ड्रोन को इंटेलीजेंस जुटाने और सर्विलांस करने की नीयत से बनाया जाना प्रचारित किया गया था, लेकिन ज़ाहिर बात है कि एक आत्मघाती ड्रोन सेना के किस काम आएगा.

रूस और यूक्रेन वॉर में भी इसी तकनीक का हुआ इस्तेमाल 

"नेशनल एयरोस्पेस लैबोर्टीज़ (NAL)" के मुताबिक़ ये एक हाई-स्पीड ड्रोन है. जिसकी रफ़्तार 40 मीटर प्रति सेकेंड है. रूस-यूक्रेन जंग में बड़े पैमाने पर इस किस्म के सुसाइड ड्रोन्स का इस्तेमाल यूक्रेनी सेना द्वारा रूसी वाहनों और सेना को टारगेट करने के लिए किया गया था. 

इस ड्रोन की कुछ ख़ास बातें जो इसे बाकी मानव रहित विमानों से अलग बनाती हैं. इस ड्रोन को रडार से डिटेक्ट कर पाना लगभग असंभव है. वजह है इसका छोटा साइज और इसकी स्पीड. 40 मीटर प्रति सेकेंड की रफ़्तार से चलने वाले इस ड्रोन को टार्गेट कर पाना मुश्किल होता है.

भारत का आसमानी वार 'खड्ग'

एसक्यू 13 जीपीएस और हाई डेफिनिशन वैर्नाग कैमरे से लैस इस ड्रोन का इस्तेमाल दुश्मन के मूवमेंट ट्रैक करने के लिए भी किया जा सकता है. नो बैक सिचुएशन में जब ड्रोन डिटेक्ट हो जाए उस समय यही ड्रोन एक हमलावर ड्रोन में का काम भी करता है. अगर ऑपरेटर को ड्रोन पर कोई खतरा दिखता है तो वो ड्रोन को किसी भी टारगेट पर क्रैश कर सकता है. विस्फोटक से लैस होने की वजह से ये ड्रोन गिरते ही धमाका करेगा. यूक्रेन की सेना ने रूसी वाहनों और सैनिकों के खिलाफ इस तरह के ड्रोन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया है. 

सबसे खास बात है इसकी कीमत. इस एक ड्रोन को बनाने की कीमत महज तीस से चालीस हजार ही आती है. इस ड्रोन को एक कमांड सेंटर में बैठकर कंट्रोल किया जाता है. ड्रोन अपने साथ 30 से 40 किलो के विस्फोटक को लेकर उड़ सकता है. भारतीय कामिकाज़े ड्रोन बनाने वाली नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरीज की स्थापना साल 1959 की गई थी. 

Advertisement
Advertisement