कुछ ही दिनों पहले मोदी सरकार में केंद्रीय कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह के नाम से एक चिट्ठी यूपीएससी चेयरमैन प्रीति सुदान को भेजी गई. इसमें संघ लोक सेवा आयोग की ओर से लेटरल एंट्री से निकाली गई 45 भर्तियों को वापस लेने की बात कहते हुए सिंह ने कहा कि यह पीएम मोदी के सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के हिसाब से ठीक नहीं. यह सबसे ताजा मामला है जब मोदी सरकार ने अपने किसी फैसले पर कदम पीछे खींचे हैं. इससे ठीक पहले वक्फ बिल को पेश किए जाने के दिन ही सरकार उसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेजने के लिए राजी हो गई थी.
इसके अलावा एससी-एसटी के उप-वर्गीकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को लेकर भी मोदी सरकार को कहना पड़ा कि वह क्रीमीलेयर जैसी कोई भी व्यवस्था एससी-एसटी के लिए नहीं लाने जा रही. इन सभी फैसलों के खिलाफ न सिर्फ विपक्ष ने एकजुट होकर आवाज उठाई बल्कि बीजेपी के अगुवाई वाले एनडीए के घटक दलों जैसे एलजेपी और जेडीयू ने भी कुछ फैसलों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो कार्यकालों को देखने के बाद यह थोड़ा चौंकाने वाला लगता है.
दरअसल बीजेपी को विपक्ष के साथ-साथ अपने एनडीए गठबंधन के साथियों से भी विरोध झेलने के बाद के राजनीतिक परिणामों की चिंता ने काफी हद तक प्रभावित किया. इसके अलावा हरियाणा और जम्मू-कश्मीर, उसके बाद महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए यह कदम उठाना भी गठबंधन की इस सरकार को वाजिब लगा. खासकर एससी-एसटी में क्रीमीलेयर वाली बात ने सरकार को इसलिए भी परेशान किया क्योंकि विपक्ष उस पर आरक्षण के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप फिर से लगा सकता था. यह एक ऐसी रणनीति है जो लोकसभा चुनावों में कारगर साबित हुई थी.
यह देखते हुए कि झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) बीजेपी के वोटर बेस का एक बड़ा हिस्सा है, बीजेपी के अंदरूनी लोगों में यह चिंता साफ थी कि विपक्ष चुनावों से पहले अपने अभियान को तेज कर देगा और पार्टी को आगे जोखिम नहीं उठाना चाहिए.
विपक्ष और एनडीए के सहयोगी दलों - जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) - से मिली प्रतिक्रिया ने लेटरल एंट्री के साथ आगे बढ़ने के जोखिमों को उभारा. नतीजतन, सरकार ने सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए यहां भी पीछे हटना ही मुनासिब समझा.
इंडिया टुडे मैगजीन के एग्जीक्यूटिव एडिटर कौशिक डेका बताते हैं, "यह प्रकरण विपक्ष के बढ़ते प्रभाव और सरकार के लिए सहयोगियों के साथ अपने संबंधों को और अधिक सावधानी से संभालने की जरूरत को भी उजागर करता है. दो वरिष्ठ मंत्रियों की ओर से लेटरल एंट्री हायरिंग प्रक्रिया का मजबूत बचाव करने के बावजूद, सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. रियल एस्टेट लेनदेन में इंडेक्सेशन लाभ वापस लेने की बजट 2024-25 की घोषणा और ब्रॉडकास्ट बिल का मसौदा रद्द करने के बाद यह मोदी के तीसरे कार्यकाल में तीसरा महत्वपूर्ण नीतिगत यू-टर्न है."
कौशिक आगे बताते हैं कि मोदी के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही सरकार को अग्निवीर योजना पर जेडीयू जैसे सहयोगियों से असंतोष का सामना करना पड़ा है. अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण का पहले समर्थन करने के बावजूद बीजेपी ने इस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जश्न मनाने से परहेज किया, जबकि एलजेपी (रामविलास) जैसे सहयोगियों ने आपत्ति जताई.
राजनीतिक विशेषज्ञों के मुताबिक, लेट्रल एंट्री भर्ती पर सरकार का पीछे हटने का फैसला मोदी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती की ओर इशारा करता है और यह चुनौती है - गठबंधन की सरकार में अपने एजेंडे को सफल कराने में बढ़ती कठिनाई. यह नरेंद्र मोदी के पहले दो कार्यकालों की पहचान बन चुकी शासन व्यवस्था की एकतरफा शैली से एक तरह के दुराव को दर्शाता है. बीते दो कार्यकालों में बीजेपी विरोध की परवाह किए बिना दनादन बिल पास करवाती थी.
अब सरकार की प्रमुख पहलों पर आगे बढ़ने की क्षमता गठबंधन धर्म निभाने और विपक्ष के ताने, दोनों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत के कारण बाधित हो रही है. इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य में भले ही मोदी सरकार अपने एजेंडे को लागू कराने का प्रयास कर रही हो, लेकिन अब उसे गठबंधन राजनीति की वास्तविकताओं से जूझना होगा जिसमें हर नीतिगत कदम एक आशंकित टकराव का बिंदु हो सकता है.