कोई भी अच्छी चीज मुफ्त में नहीं मिलती. यही साफ संदेश है जो नरेंद्र मोदी सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े अपने फैसलों के जरिए दिया है. चाहे वो बढ़ते हाईवे टोल हों, भारी-भरकम पुल और सुरंगें हों या अब - ट्रेन किराए में बढ़ोत्तरी.
जुलाई की 1 तारीख से भारतीय रेलवे ने ज्यादातर लंबी दूरी की ट्रेनों के यात्री किराए बढ़ा दिए हैं. यह पिछले पांच सालों में पहली बार हुआ है. हालांकि कुछ लोगों को कागज पर यह बढ़ोत्तरी थोड़ी चुभ सकती है, लेकिन इसका असर बड़ा है.
यह लोगों की उम्मीदों और सरकार के जोखिम लेने की सोच में धीरे-धीरे लेकिन पक्के बदलाव को बताता है. किराए में बढ़ोत्तरी मामूली है, लेकिन इसका एक बड़ा मकसद है. आइए पहले बढ़े किराए के बारे में जान लेते हैं.
किराए में कितनी बढ़ोत्तरी हुई?
● AC क्लास में 2 पैसे प्रति किमी
● स्लीपर और सेकंड क्लास मेल/एक्सप्रेस में 1 पैसा प्रति किमी
● धीमी पैसेंजर ट्रेनों में 0.5 पैसा प्रति किमी (केवल 500 किमी से ज्यादा की यात्रा पर)
वहीं, लोकल (सबअर्बन) सेवाओं और 'मासिक सीजन टिकट' के किराए में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है. जबकि मल्टी-क्लास पैसेंजर ट्रेनों में 1,000 किलोमीटर की दूरी पर औसतन किराया इकोनॉमी क्लास के लिए ₹10 और सेकंड क्लास के लिए ₹15 बढ़ाया गया है. मासिक सीजन टिकट (MST) का मतलब होता है ऐसा रेल टिकट जो एक महीने के लिए वैध होता है और उस अवधि में आप कई बार यात्रा कर सकते हैं, लेकिन एक तय रूट पर ही.
फिर भी, इस बढ़ोत्तरी से रेलवे को एक बड़ी आय होगी. वित्त वर्ष 2025-26 में यात्रियों की कुल यात्रा दूरी 4.8 ट्रिलियन किलोमीटर (4.8 लाख करोड़ किमी) से ज्यादा होने का अनुमान है. ऐसे में इस किराया बढ़ोत्तरी से रेलवे को बाकी बचे नौ महीनों में करीब ₹1,100 करोड़ की अतिरिक्त कमाई होने की उम्मीद है. अगर यह बढ़ोत्तरी 1 अप्रैल से लागू होती, तो यह रकम ₹1,450 करोड़ से ज्यादा होती.
यह बढ़ोत्तरी कोई छोटी बात नहीं है, क्योंकि भारतीय रेलवे की यात्री सेवाएं भारी सब्सिडी पर चलती हैं. लोकल (सबअर्बन) यात्रा में रेलवे को अपनी लागत का सिर्फ 30 फीसद ही वापस मिलता है. नॉन-AC लंबी दूरी की यात्राओं में यह वसूली करीब 39 फीसद होती है. सिर्फ AC क्लास ही अपनी प्रीमियम कीमतों के कारण थोड़ी बहुत बचत कर पाती है, वो भी सिर्फ करीब 3.5 फीसद ही.
लेकिन जितना कुछ ये आंकड़े बता रहे हैं, उतनी ही अहमियत उस चुप्पी की भी है जो विरोधी दलों ने अख्तियार किया है. किराए में बढ़ोत्तरी के चलते इस बार न के बराबर राजनीतिक विरोध हुआ है. न कोई प्रदर्शन, न कोई जोरदार आलोचना.
यह चुप्पी दो बातें दिखाती है: पहली, कि अब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को भरोसा हो गया है कि ऐसे फैसलों के बाद भी वह जनविरोध से बच सकती है. जबकि पहले की कई सरकारों में यह साहस नहीं था. वे या तो किराया बढ़ाने में देर करती थीं या उसे छुपाकर किसी अलग शुल्क के रूप में लागू करती थीं.
दूसरी बात, अब भारतीय यात्री भी पहले से समझदार हो गए हैं, वे थोड़ी नाराजगी के साथ ही सही, लेकिन बेहतर सुविधा के बदले थोड़ा ज्यादा किराया देने को तैयार हैं. सबसे खास बात ये कि रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने भी इस बारे में सोशल मीडिया पर कुछ नहीं कहा.
यह सब 2014 की उस स्थिति से बहुत अलग है, जब नई मोदी सरकार को लोकल ट्रेनों के किराए में की गई बढ़ोत्तरी को विरोध के बाद वापस लेना पड़ा था. इसके मुकाबले, इस बार की किराया बढ़ोत्तरी बिहार जैसे अहम चुनाव से ठीक कुछ महीने पहले की गई है.
इसका मतलब यह हो सकता है कि अब रेलवे किराए में बढ़ोत्तरी पहले की तरह कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं रही. लोगों की सोच में यह बदलाव इसलिए भी आया है क्योंकि हाल के वर्षों में भारतीय रेलवे ने काफी तरक्की की है. वंदे भारत ट्रेनों का बढ़ता नेटवर्क, स्टेशनों का नया रूप, और ज्यादा साफ-सुथरे कोच, ये सब दिखाते हैं कि रेलवे अब सिर्फ जैसे-तैसे चलाने की नहीं, बल्कि अच्छी सेवा देने की कोशिश कर रहा है.
इस तरह किराए में बढ़ोतरी एक बड़े बदलाव के नैरेटिव का हिस्सा बन जाती है, जिसमें यात्री अब बेहतर सेवा के लिए थोड़ा ज्यादा किराया देने को तैयार हैं और उसकी मांग भी कर रहे हैं. साफ तौर पर देखा जाए तो रेलवे पिछले कुछ सालों से अपने टिकटों पर यह बात छापता आ रहा है कि उसे टिकट से सिर्फ आधी लागत ही वापस मिलती है.
पिछली बार किराया जनवरी 2020 में बढ़ाया गया था. उस समय AC क्लास के लिए 4 पैसे प्रति किलोमीटर और नॉन-AC व लोकल ट्रेनों के लिए 2 पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोत्तरी की गई थी. यह बदलाव ज्यादा राजनीतिक विरोध के बिना लागू हो गया था.
इस बार की किराया बढ़ोत्तरी ज्यादा नहीं है, लेकिन इसके साथ कुछ अहम बदलाव भी जुड़े हैं, जैसे कि:
● तत्काल टिकटों के लिए आधार बेस्ड ओटीपी वेरिफिकेशन
● ट्रेन छूटने से 8 घंटे पहले रिजर्वेशन चार्ट बनाना
● वेटिंग लिस्ट की नई सीमा तय करना - अब AC में 60 फीसद तक और स्लीपर में 30 फीसद तक वेटिंग टिकट जारी किए जा सकते हैं, जो बेहतर डेटा विश्लेषण (डेटा माइनिंग) की वजह से संभव हुआ है.
फिर भी, विपक्ष का सवाल पूरी तरह गलत नहीं कहा जा सकता कि जब बजट 2025-26 में रेलवे को रिकॉर्ड ₹2.5 लाख करोड़ का फंड मिला है, तो अब किराया क्यों बढ़ाया जा रहा है? क्या सरकार के पास पहले से ज्यादा पैसे नहीं हैं?
इसका जवाब रेलवे के कामकाज के खर्चों में छिपा है. तनख्वाह, ईंधन, रखरखाव, सुरक्षा और नई सेवाओं की शुरुआत - इन सब पर बहुत ज्यादा खर्च होता है. लेकिन जो खर्च सबसे ज्यादा भारी पड़ता है, वह है पेंशन का बढ़ता बोझ, जो अब लगभग ₹70,000 करोड़ के पास पहुंच चुका है और हर साल बढ़ता ही जा रहा है.
मालभाड़ा (फ्रेट) से होने वाली कमाई रेलवे को कुछ हद तक ही सहारा दे सकती है. और जब अनुमान है कि यात्री किराये से कमाई वित्त वर्ष 2024-25 में ₹75,215 करोड़ से बढ़कर 2025-26 में ₹92,800 करोड़ हो जाएगी, तो इसका एक हिस्सा घाटे की भरपाई और अलग-अलग श्रेणी (क्लास) के हिसाब से किराया तय करने से ही आएगा.
यहां एक और बड़ी बात है - न्याय की सही तस्वीर दिखाने की. आज भी करीब आधे रेल यात्री, खासकर लोकल और कम दूरी की यात्रा करने वाले, बहुत सब्सिडी वाले सस्ते किराए पर सफर करते हैं. जबकि जो यात्री बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं और साफ-सुथरी, समय पर चलने वाली और आधुनिक ट्रेनों की उम्मीद करते हैं, उनकी जरूरतें केवल दूसरों से वसूले गए पैसे (क्रॉस-सब्सिडी) से पूरी नहीं की जा सकतीं.
आखिर में, यह किराया बढ़ोत्तरी सिर्फ पैसे की नहीं, बल्कि संदेश देने की भी बात है. रेलवे यह दिखाना चाहता है कि वह अब सिर्फ पुरानी व्यवस्था नहीं, बल्कि एक आधुनिक और सेवा-आधारित प्रणाली है जो अब पुराने जमाने की भीड़-भाड़ और लोकलुभावन सोच से आगे बढ़ रही है.
आगे चलकर अगर ट्रेनें तेज, साफ और भरोसेमंद बनानी हैं, तो यात्रियों को भी थोड़ी सी हिस्सेदारी निभानी होगी, चाहे वो थोड़ी सी कीमत ही क्यों न हो. सबसे बड़ी बात, भारत में अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सोच "हक" से बदलकर "उम्मीद" की तरफ बढ़ रही है.