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कतर में भारतीयों की फांसी पर लगी रोक, भारत में मौत की सजा टालने का क्या है आखिरी रास्ता?

कतर 'कोर्ट ऑफ फर्स्ट इन्सटेंस' ने कथित तौर पर जासूसी के आरोप में आठ भारतीय पूर्व नौसैनिकों को मौत की सजा सुनाई थी

प्रतीकात्मक तस्वीर
अपडेटेड 30 दिसंबर , 2023

पिछले दिनों कतर में आठ भारतीयों को 'सजा-ए-मौत' दिए जाने का मामला सुर्खियों में रहा था. इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि ये सभी भारतीय नौसेना के पूर्व सैनिक भी थे. अब ताजा खबर यह है कि कथित तौर पर जासूसी के आरोपों में इन सभी पूर्व भारतीय नौसैनिकों की मौत की सजा पर रोक लगा दी गई है. हालांकि फिलहाल सभी भारतीय कतर की जेल में ही रहेंगे. भारत के विदेश मंत्रालय ने भी इसकी पुष्टि कर दी है. कतर की 'कोर्ट ऑफ अपील' ने 28 दिसंबर 2023, गुरुवार को इस बारे में अपना फैसला सुनाया था. 

सुनवाई के वक्त भारतीय राजदूत और सभी सैनिकों के परिवार वाले भी कोर्ट में मौजूद थे. इस बारे में विदेश मंत्रालय ने एक लिखित बयान जारी करते हुए कहा है कि हम विस्तृत फैसले का इंतजार कर रहे हैं. अब जब मौत की सजा पर रोक लग गई है तो ये जानना भी जरूरी है कि कतर का ये पूरा मामला है क्या. साथ ही यह भी समझा जाए कि अगर भारत में किसी को फांसी की सजा दी जाती है तो उसके पास इससे बचने का आखिरी रास्ता क्या हो सकता है? 

पहले बात कतर की. यहां की 'कोर्ट ऑफ फर्स्ट इन्सटेंस' ने कथित तौर पर जासूसी के आरोप में आठ भारतीय पूर्व नौसैनिकों को मौत की सजा सुनाई थी. इसके बाद भारत सरकार ने फैसले को वहां की 'कोर्ट ऑफ अपील ( भारत के हाईकोर्ट के समकक्ष)' के सामने चैलेंज किया, जिसने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया. अब यह मामला कतर की सबसे बड़ी अदालत 'कोर्ट ऑफ कंसेशन' के पास जा सकता है. अगर सबसे ऊपरी अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया तो मुल्क के 'अमीर' यानी चीफ रूलर शेख तमीम बिन हमाद अल थानी भी मौत की सजा को माफ कर सकते हैं. 

ये तो रही कतर की बात, अब भारतीय कानून के बारे में भी जान लेते हैं. भारत में किसी अपराध की सबसे बड़ी सजा फांसी यानी 'सजा-ए मौत' है. हालांकि फांसी की सजा केवल 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस' यानी काफी गंभीर और जघन्य अपराधों के मामले में ही दी जाती है. यह प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के 'बच्चन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1983' केस के फैसला के बाद आया था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा को 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस' में दिए जाने की बात कही थी.

अब आते हैं फांसी की सजा के मामले पर. अगर किसी अपराधी को जिला अदालत से फांसी की सजा होती है तो उसके पास हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का विकल्प होता है. लखनऊ विश्वविद्यालय के विधि संकाय के पूर्व छात्र और वकालत की प्रैक्टिस कर रहे प्रवीण पंकज यादव बताते हैं कि जिला सत्र न्यायालय को फांसी की सजा देने का अधिकार सेक्शन 366 सीआरपीसी में दिया गया है लेकिन इसके लिए उसे हाईकोर्ट से अनुमति लेनी पड़ती है, हाईकोर्ट मौजूद साक्ष्य व अन्य दस्तावेजों के आधार पर विचार करता है. जब जिला न्यायालय मौत की सजा सुनाता है, तो कार्यवाही हाई कोर्ट के पास जाती है और सजा तब तक नहीं दी जाएगी जब तक कि हाईकोर्ट इसकी पुष्टि नहीं कर देता. 

अगर हाईकोर्ट भी सजा को कम ना करे तो फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है. कमोबेश वही प्रक्रिया जो कि कतर की है. अब अगर सुप्रीम कोर्ट भी फांसी की सजा को बरकार रखता है तो अपराधी राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर कर सकता है, पर जब राष्ट्रपति भी दया याचिका को नामंजूर कर दें तो आम तौर पर यह समझ लिया जाता है कि अब बचने के सारे दरवाजे बंद हो गए हैं. पर ऐसा नहीं है, क्योंकि अभी भी दो रास्ते ऐसे बचते हैं जिनके जरिए फांसी की सजा टाली जा सकती है. 

अगर राष्ट्रपति दया याचिका ठुकरा दें तो सुप्रीम कोर्ट में पुर्नविचार याचिका दाखिल की जा सकती है. इसका मतलब यह है कि इसमें अपराधी कोर्ट के सामने फैसले पर फिर से विचार करने की अपील करता है. अगर यह भी खारिज हो जाए तो जो सबसे आखिरी रास्ता बचता है वह है 'क्यूरेटिव पिटीशन' का. अगर यह भी खारिज हो जाए तो फिर मौत से बचने का कोई भी रास्ता बाकी नहीं रह जाता. लेकिन ये 'क्यूरेटिव पिटीशन' आखिर है क्या जो फांसी के फंदे से किसी को वापस बुलाने की ताकत रखता है? 

सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि फांसी की सजा से बचने के पहले दो तरीके 'दया याचिका' और 'पुर्नविचार याचिका' क्या हैं. संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति के पास 'दया याचिका' भेजने का अधिकार दिया गया है जबकि 'पुनर्विचार याचिका' सीधे सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की जाती है. अगर ये दोनों ही याचिकाएं खारिज हो जाती हैं तो ही 'क्यूरेटिव पिटीशन' का इस्तेमाल किया जाता है. इसके इतिहास के बारे में बताएं तो 'क्यूरेटिव' शब्द 'क्योर' से निकला है जिसका मतलब है - इलाज करना. इसमें एक पेंच ये भी है कि अपराधी को इसे दायर करते वक्त यह बताना जरूरी होता है कि वह किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है. इसका सुप्रीम कोर्ट के किसी सीनियर वकील से प्रमाणित होना भी जरूरी है. 

अब इसकी प्रक्रिया क्या है इसे भी जान लीजिए. जब सीनियर वकील इसे प्रमाणित कर देते हैं तो यह पिटीशन सुप्रीम कोर्ट के तीन सबसे सीनियर जज, जिनमें चीफ जस्टिस भी शामिल होते हैं, उनके पास जाती है. इसके अलावा इसे उन जजों के पास भी भेजा जाता है जिन्होंने फांसी की सजा सुनाई थी. अब अगर सीनियर जजों की बेंच बहुमत से मामले पर फिर से सुनवाई का फैसला करती है तो पिटीशन को फिर से उसी बेंच के पास भेज दिया जाता है जिसने मामले में पहली या पिछली बार फैसला सुनाया था. 

'क्यूरेटिव पिटीशन' में सुनवाई के दौरान याचिका लगाने वाला उन सभी मुद्दों को उठाता है जिनके आधार पर कोर्ट में यह साबित हो कि उन पर ध्यान दिये जाने की जरूरत थी. इस मामले पर सुनवाई के दौरान कोर्ट किसी भी स्तर पर किसी सीनियर वकील को 'न्याय मित्र' के तौर पर सलाह देने के लिए भी बुला सकता है. हालांकि हर मामले में 'क्यूरेटिव पिटीशन' का इस्तेमाल नहीं हो सकता. इसे तभी काम में लाया जाता है जब ऐसा लगे कि अदालत के किसी फैसले से 'न्याय के सिद्धांत' का पालन ना हो रहा हो, या फिर अगर किसी मामले में 'पुनर्विचार याचिका' दाखिल की जा चुकी हो, या फिर 'क्यूरेटिव पिटीशन' में वे मुद्दे शामिल हों जिनके बारे में 'पुर्निविचार याचिका' में सुनवाई या सही से विमर्श ना हुआ हो.  

साल 2002 में 'रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा और अन्य' के मामले की सुनवाई करते हुए सबसे पहली बार 'क्यूरेटिव पिटीशन' की अवधारणा सामने आई. मामले की सुनवाई के दौरान यह सवाल उठा कि अगर सुप्रीम कोर्ट किसी को दोषी ठहरा दे और 'पुर्नविचार याचिका' भी खारिज हो जाए तो सजा से राहत के लिए क्या रास्ता है? इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को बदलने के बाद 'क्यूरेटिव पिटीशन' की अवधारणा को सामने रखा. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने इसकी रूपरेखा निर्धारित की. पिछले कुछ सालों में भारत के सबसे चर्चित मामलों में से एक 'निर्भया' और 'याकूब मेमन केस' में भी आरोपियों ने फांसी की सजा से बचने के लिए 'क्यूरेटिव पिटीशन' का सहारा लिया था. 

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