जून की 26 तारीख को ओम बिरला जब ध्वनिमत के जरिए 18वीं लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए तो यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कुल चौथी बार था जब इस पद के लिए चुनाव की नौबत आई हो. वरना ज्यादातर मौकों पर हुआ यही कि इस पद पर पक्ष और विपक्ष की सहमति बन जाया करती थी. हालांकि सहमति बनाने के लिए इस बार भी सत्ता पक्ष की तरफ से पहल की गई थी.
लेकिन विपक्ष ने स्पीकर के लिए ओम बिरला के समर्थन के एवज में डिप्टी स्पीकर का पद देने की शर्त रखी, जिसे लेकर बात बिगड़ गई और सत्ता पक्ष ने शर्त मानने से इनकार कर दिया. इस तरह 48 साल बाद हुए स्पीकर के चुनाव में ओम बिरला लगातार दूसरी बार निर्वाचित हुए. खैर, यहां कहानी उस डिप्टी स्पीकर के पद की, जो 17वीं लोकसभा में खाली रहा. एक सवाल ये भी कि क्या संविधान के तहत ये जरूरी है कि डिप्टी स्पीकर का पद हो ही?
यहां दूसरे सवाल का जवाब पहले जान लेते हैं फिर इसके इतिहास की सैर करेंगे. दरअसल, संविधान का अनुच्छेद 95 (1) कहता है कि अगर स्पीकर का पद खाली हो तो उसके कर्तव्यों का निर्वहन डिप्टी स्पीकर करता है. और ऐसा करते समय एक डिप्टी स्पीकर के पास भी वही शक्तियां होती हैं जो कि एक स्पीकर के लिए संविधान या फिर लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन की नियमावली में बतायी गई हैं.
संविधान के अनुच्छेद 93 के मुताबिक, जैसे ही नई लोकसभा का गठन होता है इसके सदस्य यथाशीघ्र (जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी) सदन के दो सदस्यों को क्रमशः अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में चुनेंगे. हालांकि संविधान में यह कोई नियत समय नहीं बताया गया है कि इतने समय में इन पदों पर निर्वाचन हो जाना चाहिए. और शायद यही वजह है कि सरकारें इन पदों पर नियुक्ति में समय लगाती हैं.
जैसे मई 2019 से लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद खाली पड़ा है. मोदी 2.0 सरकार ने इस पद के लिए किसी को भी नहीं चुना. यह आजाद भारत के इतिहास में पहली बार था जब इस संवैधानिक पद पर किसी की भी नियुक्ति नहीं हुई. हालांकि संविधान के जानकारों का मानना है कि अनुच्छेद 93 के तहत दो शब्दों - "अनिवार्य" रूप से, और "यथाशीघ्र" का साफतौर पर इस्तेमाल किया गया है. यह बताता है कि इन पदों को जरूर और जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी भरा जाना चाहिए.
जब नई लोकसभा का गठन होता है और पहली बार निर्वाचित सदस्यों की बैठक होती है तो शुरुआती दो दिन सांसदों के शपथ और प्रतिज्ञा में निकल जाते हैं. इसके बाद ऐसी परंपरा है कि तीसरे दिन स्पीकर का चुनाव होता है. वहीं डिप्टी स्पीकर का चुनाव आमतौर पर दूसरे सत्र में होता है. हालांकि यह जरूरी नहीं है और इसे पहले सत्र में भी कराया जा सकता है. ऐसा अमूमन देखा गया है कि जब तब कोई अपरिहार्य बाधाएं न हों, डिप्टी स्पीकर के चुनाव को दूसरे सत्र से ज्यादा लंबा नहीं खींचा जाता.
लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन की नियमावली में नियम 8 के मुताबिक, डिप्टी स्पीकर का चुनाव उस दिन निर्धारित किया जाएगा जिस दिन स्पीकर उसे तय करेगा. एक बार जब दिन तय हो जाता है, उस दिन डिप्टी स्पीकर के उम्मीदवार का नाम सदन में प्रस्तावित किया जाता है. इसके बाद सदन के सदस्य उसके नाम पर मुहर लगाते हैं. एक बार जब कोई लोकसभा सदस्य डिप्टी स्पीकर चुन लिया जाता है तो वह तब तक कार्यभार संभालता है जब तक कि निचला सदन भंग नहीं हो जाता.
अनुच्छेद 94 के मुताबिक, अगर स्पीकर अपने पद से इस्तीफा देते हैं तो इसमें उन्हें डिप्टी स्पीकर को ही संबोधित करना होता है. 1949 में संविधान सभा में इसे लेकर बहस हुई थी. डॉ भीमराव आंबेडकर का कहना था कि स्पीकर का पद डिप्टी स्पीकर के पद से बड़ा होता है, ऐसे में उन्हें डिप्टी स्पीकर को संबोधित नहीं करना चाहिए बल्कि राष्ट्रपति को संबोधित करना चाहिए.
लेकिन ये तर्क दिया गया कि चूंकि स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चयन सदन के सदस्य करते हैं इसलिए इस पद की जवाबदेही सदस्यों के प्रति है. चूंकि सदन के हर सदस्य को इस्तीफे में संबोधित नहीं किया जा सकता ऐसे में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को ही संबोधित करना चाहिए क्योंकि वो सदन का ही प्रतिनिधत्व करते हैं. इसके साथ तय हुआ कि अगर स्पीकर इस्तीफा देते हैं तो डिप्टी स्पीकर को संबोधित करेंगे और अगर डिप्टी स्पीकर के इस्तीफे की स्थिति आती है तो वो स्पीकर को संबोधित किया जाएगा.
बहरहाल, इतिहास में जाएं तो 1952 में हुए पहले आम चुनाव से लेकर 1969 तक कांग्रेस की सत्ता में पार्टी ये दोनों पद अपने पास ही रखती थी लेकिन साल 1969 में ये चलन बदल गया. कांग्रेस ने ऑल पार्टी हिल लीडर्स के नेता गिलबर्ट जी स्वेल, जो उस समय शिलांग से सांसद थे, उन्हें ये पद दिया. स्वेल 1977 तक इस पद पर रहे. इस दौरान जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तब यह पद कांग्रेस के पास गया, जो उस समय विपक्ष की भूमिका निभा रही थी. गोडे मुरारी तब डिप्टी स्पीकर बने.
इसके बाद कभी डीएमके तो कभी एआईएडीएमके के पास यह पद गया. 1990 के बाद ऐसा हुआ कि अगले 24 सालों तक यह पद लगातार विपक्ष के पास ही रहा. दसवीं लोकसभा (1991-96) के समय, जब पी वी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, भाजपा के एस. मल्लिकार्जुना डिप्टी स्पीकर नियुक्त किए गए. उससे पहले चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रीत्व काल (1990-91) में कांग्रेस के शिवराज पाटिल ने यह पद संभाला.
1996-97 में जब एच.डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री रहे, तो उस समय भाजपा के सूरजभान डिप्टी स्पीकर थे. हालांकि देवेगौड़ा सरकार के बाद केंद्र में जब संयुक्त मोर्चा की सरकार (1997-98) बनी, और आई. के. गुजराल प्रधानमंत्री बने तो उस समय किसी को भी यह पद नहीं मिला. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए की सरकार बनी, तब कांग्रेस सांसद पी एम सईद डिप्टी स्पीकर बने. हालांकि यह सरकार ज्यादा दिन चली नहीं.
इसके बाद 1999 में जब फिर आम चुनाव हुए और भाजपा की सरकार बनी तो एक बार पी एम सईद ही डिप्टी स्पीकर बने. इस बार यह सरकार पूरे पांच साल चली. 2004 के बाद यूपीए-1 और यूपीए-2 का देश पर शासन रहा. और इस अवधि में भी यह पद विपक्षी दलों के पास ही रहा. यूपीए-1 में यह जहां शिरोमणि अकाली दल के चरणजीत सिंह अटवाल के पास था. वहीं दूसरे में भाजपा के करिया मुंडा डिप्टी स्पीकर रहे.
लगातार 24 सालों तक चली इस परंपरा को देखते हुए पार्टियों को लगा कि अब यह परंपरा में ढलकर एक अघोषित नियम-सा बन गया है. लेकिन 2014 में जब मोदी सरकार आई तो इसने परंपरा को तोड़ने का काम किया. उसने अपने ही एक सहयोगी दल एआईएडीएम के सांसद एम थांबी दुरई को डिप्टी स्पीकर बनाया.
यहां तक तो ठीक था. लेकिन अगली बार 2019 में जब एक बार फिर से मोदी सरकार सत्ता में आई तो इस बार तो कुछ अप्रत्याशित हुआ. इस बार किसी को भी डिप्टी स्पीकर पद के लिए नहीं चुना गया. लोकसभा की आधिकारिक वेबसाइट पर जाएं तो वहां डिप्टी स्पीकर का पद मई, 2019 से खाली लिखा मिलेगा.
खैर, अब जबकि ताजा आम चुनाव के नतीजों में विपक्ष मजबूत हुआ है तो उसने फिर से डिप्टी स्पीकर पद पर निगाहें जमा दी. इस कहानी की शुरुआत में जिस घटना का हल्का-सा जिक्र किया गया है, आजतक के हवाले से उसका विस्तार कुछ यूं है. दरअसल, शुरुआत में भाजपा नीत एनडीए और विपक्षी अलायंस इंडिया ब्लॉक के बीच स्पीकर पद को लेकर एक सहमति बन गई थी. एनडीए की तरफ से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने विपक्षी नेताओं से बातचीत की थी.
25 जून को राजनाथ सिंह ने विपक्षी दल के नेताओं को अपने दफ्तर बुलाया और समर्थन पत्र पर साइन का आग्रह किया. विपक्ष ने स्पीकर के लिए ओम बिरला के समर्थन की एवज में डिप्टी स्पीकर का पद देने की शर्त रख दी, जिसे लेकर बात बिगड़ गई और सत्ता पक्ष ने शर्त मानने से इनकार कर दिया. वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने एक बयान में कहा कि सहमति बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने दो दिन में तीन बार कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से बात की.
25 जून की सुबह भी राजनाथ और खड़गे के बीच बातचीत हुई. लेकिन व्यस्तता की वजह से उन्होंने कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल को बातचीत की जिम्मेदारी सौंपी. बाद में वेणुगोपाल और डीएमके नेता टीआर बालू सदन में राजनाथ के कमरे में पहुंचे. राजनाथ के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी विपक्ष को मनाने की कोशिश की, लेकिन इंडिया ब्लॉक के नेताओं ने साफ कर दिया कि डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को देने की परंपरा रही है, इसलिए वह लोकसभा स्पीकर के लिए समर्थन के एवज में सत्ता पक्ष से डिप्टी स्पीकर पद विपक्ष को देने की गारंटी दे.
सत्ता पक्ष ने ऐसी कोई गारंटी देने से इनकार कर दिया. ऐसे में दोनों पक्षों की चर्चा अंतिम समय पर टूट गई और 48 साल बाद फिर स्पीकर के चुनाव की नौबत बन गई. विपक्ष ने के. सुरेश को आनन-फानन में अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया और दोपहर 12 बजे से पहले नामांकन पत्र दाखिल कर दिया.
26 जून को जब स्पीकर के लिए ध्वनिमत के जरिए चुनाव हुआ तो प्रोटेम स्पीकर भर्तृहरि महताब ने इसमें ओम बिरला को विजेता घोषित किया. इधर, इंडिया ब्लॉक ने कहा कि वे इस नतीजे से अवगत थे. लेकिन जब उन्हें डिप्टी स्पीकर पद नहीं दिया गया तो उन्होंने सैद्धांतिक रूप में इन चुनावों के जरिए अपना विरोध दर्ज कराया है.