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राज्यपालों को अड़ंगा नहीं लगाना चाहिए...SC ने तमिलनाडु के गवर्नर की खिंचाई करते हुए क्या अहम फैसला सुनाया?

8 अप्रैल को जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि गवर्नर बेमतलब बिलों को लटका कर नहीं रख सकते

तमिलनाडु के गवर्नर आर एन रवि (फाइल फोटो)
तमिलनाडु के गवर्नर आर एन रवि (फाइल फोटो)
अपडेटेड 8 अप्रैल , 2025

अप्रैल की 8 तारीख को सुप्रीम कोर्ट (SC) ने एक अभूतपूर्व फैसला सुनाया. सर्वोच्च अदालत ने राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों को बेमतलब रोके रखने को अवैध करार दिया. अदालत का यह फैसला तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए आया.

स्टालिन सरकार ने राज्य के गवर्नर एन. रवि के खिलाफ एक याचिका दायर की थी. इसमें रवि के खिलाफ आरोप था कि वे राज्य विधानसभा से पारित उन 10 विधेयकों को दाब कर बैठे हैं जिन्हें उनकी मंजूरी के लिए उनके पास भेजा गया था. इनमें एक बिल 2020 से ही मंजूरी के लिए पेंडिंग पड़ा है.

SC ने सुनवाई के दौरान एन. रवि को फटकार लगाई, और उनके विधेयकों को दाब कर बैठे रहने को संविधान के तहत 'नॉन-बोनाफाइड' (गैर-सद्भावनापूर्ण) और अवैध बताया. राज्यपाल के आचरण की कड़ी आलोचना करते हुए न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि रवि के काम संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ थे.

गवर्नर की खिंचाई करने के अलावा अदालत ने राज्यपालों के लिए विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर फैसला लेने के लिए एक स्पष्ट संवैधानिक समयसीमा भी तय की.

सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपाल के पास विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोकने का अधिकार नहीं है, और उन्हें संविधान के आर्टिकल-200 में तय ढांचे के भीतर ही काम करना चाहिए. SC ने कहा कि राज्यपाल को तीन महीने के भीतर फैसला लेना चाहिए कि विधेयक को मंजूरी दी जाए, उसे सदन में वापस भेजा जाए या राष्ट्रपति को भेजा जाए.

आर्टिकल-200 के मुताबिक, जब राज्य विधानमंडल (विधानसभा या विधान परिषद, जहां लागू हो) द्वारा कोई विधेयक पारित किया जाता है, तो उसे राज्यपाल के पास भेजा जाता है. राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं :

1. सहमति देना: राज्यपाल विधेयक को अपनी सहमति दे सकता है, जिसके बाद वह कानून बन जाता है.

2. सहमति रोकना: वह विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है, जिससे विधेयक आगे नहीं बढ़ता.

3. राष्ट्रपति को भेजना: अगर विधेयक किसी ऐसे विषय से संबंधित है जो राज्य सूची के बजाय समवर्ती सूची या संघीय अधिकार क्षेत्र से जुड़ा हो, या अगर राज्यपाल को लगता है कि यह संविधान के प्रावधानों के खिलाफ हो सकता है, तो वह इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए रिजर्व कर सकता है.

4. पुनर्विचार के लिए लौटाना: अगर विधेयक धन विधेयक (मनी बिल) नहीं है, तो राज्यपाल इसे विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए संदेश के साथ वापस भेज सकता है. अगर विधानमंडल इसे फिर से पारित कर देता है (संशोधन के साथ या बिना संशोधन के), तो राज्यपाल को इस पर सहमति देनी होगी.

तमिलनाडु के मामले में राज्य सरकार ने राज्यपाल एन. रवि पर विधानसभा से पारित 10 बिलों को उनकी तरफ से अटकाए रखने का आरोप लगाया था. इनमें सबसे पुराना विधेयक जनवरी 2020 का है. कई विधेयकों को राज्य विधानसभा दोबारा पारित कर राज्यपाल के पास भेज चुकी है. स्टालिन सरकार का कहना था कि ऐसे में राज्यपाल के पास उन विधेयकों को मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.

वहीं, इस पर राज्यपाल एन. रवि ने कहा था कि उन्होंने इन कानूनों को रोकने की जानकारी राज्य सरकार को दी थी. उन्होंने कई कानूनों को राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा है. ऐसा करना उनके अधिकार क्षेत्र में आता है.

राज्यपाल से कई विधेयकों को मंजूरी नहीं मिलने के बाद उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई. SC ने सुनवाई के दौरान कहा, "संविधान राज्यपाल से उम्मीद करता है कि वह शीघ्रता से काम करें. अनावश्यक देरी लोकतांत्रिक शासन की मूल भावना का उल्लंघन करती है." न्यायालय ने साफ तौर पर कहा कि सहमति नहीं देना कोई स्वतंत्र या अनिश्चित विकल्प नहीं है. राज्यपाल को संविधान 'वीटो' की शक्ति नहीं देता. कोई भी देरी या निष्क्रियता संवैधानिक नियमों के उल्लंघन के बराबर है.

SC ने इस बात को माना कि ऐसे कुछ रेयर मामले हैं जहां राज्यपाल अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे कि जब किसी बिल से सार्वजनिक नुकसान हो सकती हो या ऐसे मामले शामिल हों जिनमें राष्ट्रपति की सहमति की जरूरत हो, लेकिन अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि आर्टिकल-200 ऐसे विवेकाधिकार को सीमित करता है.

SC ने कड़े शब्दों में कहा कि राज्यपाल सदन द्वारा पारित विधेयकों पर रोक नहीं लगा सकते. अगर कोई बिल विधानमंडल में वापस भेजा जाता है और उसे फिर से पारित किया जाता है, तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी होगी-जब तक कि विधेयक मूल प्रारूप से अलग न हो. एक बार जब विधेयक वापस आ जाता है और फिर से पेश किया जाता है, तो राज्यपाल के पास कोई वीटो शक्ति नहीं बचती.

अदालत ने राज्यपाल की शपथ का भी हवाला दिया और इस बात पर जोर दिया कि इसमें लोगों की भलाई की बात कही गई है. राज्यपाल, राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में लोगों की इच्छा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार हैं, न कि निर्वाचित लोगों के लिए बाधाएं पैदा करने के लिए.

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