हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी में स्थित ताबो मठ की एक पहचान 'हिमालय के अजंता' की भी है. यह पहचान इसके संरक्षित प्राचीन भित्तिचित्रों और कलाकृतियों के कारण है. यह भारत के सबसे पुराने सक्रिय बौद्ध मठों में से एक है.
इस मठ के बारे में माना जाता है कि यह तकरीबन 1,000 साल पुराना है. हाल के दिनों में हिमाचल प्रदेश के इस क्षेत्र में बादल फटने की बढ़ती घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के असर को मठ के संचालक इसके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी मान रहे हैं.
दरअसल इस मठ का पूरा स्ट्रक्चर मिट्टी से बना है. जाहिर है कि भारी बारिश से इसके नुकसान की आशंका भी ज्यादा है. मठ के भिक्षुओं ने केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) से इसकी प्राचीन मिट्टी की संरचनाओं और अमूल्य भित्तिचित्रों को बादल फटने और अचानक आने वाली बाढ़ से बचाने के लिए तत्काल उपाय करने की अपील की है.
ताबो मठ का इतिहास
इस मठ की स्थापना 996 ईस्वी में बौद्ध राजा और शाही लामा येशेद ने की थी. इस काम में उनकी मदद एक लोत्सावा (अनुवादक) रिनचेन ज़ंगपो ने की थी. ज़ंगपो को यह उपाधि पुरांग गुगे साम्राज्य के राजाओं, शाही संरक्षकों के अधीन, संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करने के उनके अद्भुत कार्यों के कारण मिली थी. 46 साल बाद येशे ओ के पोते, शाही पुजारी जंगचुब ओ ने इसका जीर्णोद्धार कराया था.
यह प्राचीन मठ भारत के सबसे पुराने लगातार संचालित बौद्ध केंद्रों में से एक है. इसकी मिट्टी की ईंटों से बनी संरचनाओं ने 1975 के भूकंप को भी सहन कर लिया था. लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के रूप में एक नया और गंभीर खतरा इस राष्ट्रीय धरोहर पर मंडरा रहा है. ताबो मठ के प्रबंधकों ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण इस केंद्र को बचाने के लिए भारतीय एएसआई को एक आपात संदेश (एसओएस) भेजा है.
मठ ने एएसआई से मॉनसून के दौरान बादल फटने और अचानक बाढ़ आ जाने से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए तत्काल उपाय करने का आग्रह किया है. ऐसी प्राकृतिक आपदाएं हिमाचल प्रदेश में हाल के सालों में अपेक्षाकृत अधिक देखी जा रही हैं.
मठ के वरिष्ठ पुजारी लामा सोनम कुंगा इस बारे में बताते हैं, "हमने एएसआई से अनुरोध किया है कि संरचनाओं पर अस्थायी सुरक्षात्मक छत बनाई जाए और जल निकासी व्यवस्था में सुधार किया जाए ताकि मॉनसून के दौरान मठ को कोई नुकसान न हो." स्पीति घाटी का यह क्षेत्र, जहां मठ स्थित है, ठंडा रेगिस्तान है. इस इलाके में पूरे साल में 50 मिलीमीटर से भी कम बारिश होती आई है. इन्हीं हालात ने मठ की मिट्ठी को संरचनाओं को आज तक बचाकर रखा है. लेकिन अब मौसम बदल रहा है.
लामा सोनम कुंगा कहते हैं, "हाल के महीनों में पिन घाटी और शिचलिंग क्षेत्रों में कई बादल फटने और बाढ़ की घटनाएं हुई हैं, जो मठ से लगभग 30 किमी दूर हैं. इस 1,000 साल पुरानी संरचना की नाजुक प्रकृति और ऐसी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति को देखते हुए बचाव के लिए तत्काल उपाय जरूरी हैं. अगर ऐसी कोई घटना नजदीक होती है तो हमारी मिट्टी आधारित संरचनाओं को अपूरणीय क्षति होगी."
इस मठ की मिट्टी की ईंटों से बनी दीवारें तीन फीट तक मोटी हैं. इस लिहाज से यह खासा मजबूत है और बीते वक्त में प्राकृतिक और मानव-निर्मित चुनौतियों का सामना करता रहा है. हालांकि, ये संरचनाएं पानी से होने वाले नुकसान के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं. सोनम कुंगा बताते हैं, "अनियमित मौसम के कारण जलभराव और रिसाव ने पहले ही दीवारों में दरारें पैदा कर दी हैं, खंभों का झुकाव आ रहा है और प्राचीन भित्ति चित्रों और फ्रेस्को को नुकसान पहुंच रहा है. मठ की 10वीं शताब्दी के भित्ति चित्र, जो बौद्ध पौराणिक कथाओं को दर्शाते हैं, भारत-तिब्बती कला का शिखर माने जाते हैं. इनका नुकसान भारत की सांस्कृतिक धरोहर के लिए एक विनाशकारी झटका होगा.''
ताबो मठ से उठी मदद की इस गुहार के बाद एएसआई की एक टीम ने मठ का दौरा किया और संरचनात्मक क्षति की मरम्मत और प्राचीन दीवार चित्रों की सुरक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने की बात कही है. इस बारे में एएसआई के एक अधिकारी बताते हैं, ''हम जल्द ही संरक्षण कार्य के लिए अपना एस्टीमेट तैयार करके टेंडर जारी करने की योजना पर काम कर रहे हैं. इस दौरान दरारें भरने, छतों को वॉटरप्रूफ बनाने और झुके हुए खंभों को स्टेबल बनाने का काम किया जाएगा ताकि आगे नुकसान न हो.'' मठ की तरफ से अस्थायी छत बनाने की मांग पर इस अधिकारी ने बताया कि यह निर्णय उच्च स्तर पर लिया जा सकता है और यह बात शीर्ष अधिकारियों तक पहुंचा दी गई है.
अपनी इस मांग को केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के पास पहुंचाने के लिए मठ के प्रतिनिधि बीते दिनों दिल्ली आए थे. उन्होंने मंत्रालय के अधिकारियों से इस बारे में बातचीत की है और उम्मीद कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में केंद्र सरकार कोई सकारात्मक फैसला करेगी.
सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण को लेकर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अभिषेक जोशी कहते हैं, ''बादल फटने और बाढ़ समेत जलवायु परिवर्तन के दूसरे प्रभावों से ताबो मठ जैसी प्राचीन धरोहरों के लिए संकट पैदा हो रहे हैं. क्योंकि ये जब बने थे तो उस समय की भौगोलिक परिस्थितियों के लिहाज से बने थे. अब उसमें काफी बदलाव आ गया है. केंद्र सरकार को इस मठ की तो तत्काल मदद करनी ही चाहिए लेकिन साथ ही साथ एक अध्ययन कराके देशभर के ऐसे अन्य सांस्कृतिक धरोहरों की भी पहचान करनी चाहिए जिन पर जलवायु परिवर्तन की वजह से खतरा मंडरा रहा है. इसके बाद एक नीति बनाकर इन धरोहरों के संरक्षण पर काम करना चाहिए.''
हिमाचल प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, राज्य ने 2017 और 2022 के बीच आपदाओं से 8,000 करोड़ रुपये का नुकसान झेला है. 2023 में और 2025 में भी हिमाचल प्रदेश में बाढ़ से काफी नुकसान हुआ. पर्यावरण विशेषज्ञ मानशी अशर कहती हैं, ''सड़कों और बांधों के लिए ब्लास्टिंग, साथ ही वनों की कटाई आदि ने एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं के प्रभाव को बढ़ा दिया है, जिससे भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ गया है.''
1972 में एएसआई ने ताबो मठ को राष्ट्रीय ऐतिहासिक धरोहर घोषित किया था. मठ अपनी स्थापना के समय से ही बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र रहा है साथ ही यहां दुनियाभर से पर्यटक और श्रृद्धालु आते हैं.