scorecardresearch

ट्रंप की धौंस-पट्टी के बीच मोदी की 'स्वदेशी' की अपील! क्या ये रणनीति भारत के लिए कारगर होगी?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में 2 अगस्त को अपने भाषण में लोगों से 'स्वदेशी' सामान की अपनाने की अपील की है. इस बार उन्होंने एक ऐसा शब्द चुना जो थोड़ा पुराना है और सामाजिक-राजनैतिक रूप से उसके ‌मायने बहुत गहरे हैं

Delhi High Court junks plea seeking action against PM Modi, others for ‘hate speech’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)
अपडेटेड 5 अगस्त , 2025

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में 2 अगस्त को ऐसी बात कही जो वे आमतौर पर आर्थिक भाषणों में नहीं कहते.  न आत्मनिर्भर, न मेक इन इंडिया, न वोकल फॉर लोकल.  इस बार उन्होंने एक ऐसा शब्द चुना जो थोड़ा पुराना है और सामाजिक-राजनैतिक रूप से उसके ‌मायने बहुत गहरे हैं.

मोदी ने किसानों, दुकानदारों और व्यापारियों की सभा में कहा, “घर में आने वाला हर सामान स्वदेशी होना चाहिए.” उन्होंने देश के दुकानदारों से अपील की कि वे सिर्फ स्वदेशी सामान बेचने का संकल्प लें.

जगह जानी-पहचानी थी- उनका संसदीय क्षेत्र वाराणसी. लेकिन बात का लहजा बदला हुआ था. स्वदेशी शब्द स्वतंत्रता आंदोलन की नैतिक गहराई लिए हुए है. गांधीजी के विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार, चरखे और आत्मनिर्भरता की याद दिलाता है.

बीते एक दशक में मोदी की आर्थिक भाषा विकास, पैमाने, आत्मनिर्भरता और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के इर्द-गिर्द रही है. लेकिन अब जब दुनिया बंट रही है और संरक्षणवाद फिर लौट रहा है, मोदी ने भारत की आर्थिक संप्रभुता को सिर्फ नीति नहीं बल्कि सांस्कृतिक जिम्मेदारी की तरह पेश किया है.

उनकी इस बात का तुरंत कई केंद्रीय मंत्रियों ने समर्थन दिया, खासकर अश्विनी वैष्णव और पीयूष गोयल जैसे नेता जो पहले से स्वदेशी समर्थक माने जाते हैं. यह सब संयोग नहीं था. अमेरिका की राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कुछ भारतीय उत्पादों पर 25 फीसद टैरिफ लगाया है और रूस से सस्ते तेल और हथियार खरीदने को लेकर वे भारत को चेतावनी भी दे रहे हैं.

इस अमेरिकी ऐलान के बाद दिल्ली के साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में अफसरों और राजनयिकों के बीच आपात बैठकें शुरू हो गईं. उधर, अमेरिका में बसे भारतीयों के कुछ प्रभावशाली लोगों (जो ‌रिप‌ब्लिकन पार्टी से जुड़े हैं) ने प्रचार शुरू किया कि “भारत को अमेरिका की ज्यादा जरूरत है, अमेरिका को भारत की नहीं.”

ऐसे माहौल में मोदी का स्वदेशी की तरफ लौटना कोई भावनात्मक फैसला नहीं था. यह एक सोचा-समझा संदेश था- घरेलू उपभोक्ताओं और दुकानदारों के लिए, व्यापारिक साझेदारों और निवेशकों के लिए और उन तमाम देशों के लिए जिनकी भारत के अगले कदमों पर नजर है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “संदेश साफ है. भारत किसी दबाव में नहीं झुकेगा और आत्मनिर्भरता के रास्ते पर आगे बढ़ता रहेगा, और देश की खरीद क्षमता तथा बाजार की जरूरत पर निर्भर रहेगा.”

भारत की राजनीति और उद्योग से जुड़े लोग इसे एक पुराने संघर्ष की वापसी की तरह देख रहे हैं. जब से मोदी 2014 में सत्ता में आए हैं, तब से वैश्वीकरण और स्वदेशी के बीच खींचतान जारी है. मेक इन इंडिया दोनों भावनाओं को साथ लेकर चलता है. आत्मनिर्भर भारत रणनीतिक स्वराज की बात करता है लेकिन उसे विकास और तकनीक की भाषा में पेश किया गया. स्वदेशी शब्द हमेशा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब रहा है, नीति आयोग या वित्त मंत्रालय के अफसरों के नहीं.

अब जब प्रधानमंत्री ने खुद यह शब्द दोहराया, तो यह एक बड़ा संकेत है. स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) के पूर्व संयोजक एस. गुरुमूर्ति ने एक्स पर लिखा, “आइए हम आत्मनिर्भर भारत की ओर बढ़ें. एसजेएम प्रधानमंत्री के स्वदेशी अपनाने की अपील का स्वागत करता है.”

यह सिर्फ स्टाइल नहीं, एक जीत का ऐलान था. एसजेएम लंबे समय से भारत की विदेशी इलेक्ट्रॉनिक्स, ई-कॉमर्स और रक्षा सामान पर निर्भरता की आलोचना करता रहा है. एसजेएम के कई नेता मानते हैं कि आत्मनिर्भरता का मतलब उनके लिए स्वदेशी ही है. उनके लिए मोदी की वाराणसी की स्पीच मंच की सोच से पूरी तरह मेल खाती है.

मोदी की यह अपील सिर्फ घरेलू राजनीति तक सीमित नहीं है. यह ऐसे वक्त में आई है जब भारत अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और खाड़ी देशों से व्यापार समझौते के अहम दौर से गुजर रहा है. इन वार्ताओं में उत्पाद की उत्पत्ति, बाजार की पहुंच, डिजिटल अधिकार और स्थानीय सामग्री जैसे कठिन मुद्दे फंसे हुए हैं. अमेरिका के साथ बातचीत लगभग रुकी हुई है. ऐसे समय में प्रधानमंत्री की स्वदेशी अपील संकेत देती है कि भारत अब अपने उद्योग नीति को लेकर सख्त रुख अपनाने को तैयार है.

वाणिज्य मंत्रालय से जुड़े सूत्रों का कहना है कि ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन भारत पर उपभोक्ता सामान और मशीनरी पर टैक्स घटाने का दबाव बना रहे हैं, जबकि भारत लघु, छोटे और मझोले उद्योगों  (एमएसएमई) को बचाना चाहता है. मोदी का यह कहना कि “हर सामान जो हमारे घरों में आता है” एक तरह से उसी दबाव का जवाब है. यह मुद्दे को राष्ट्रीय व्यवहार और आर्थिक राष्ट्रवाद के रूप में पेश करता है.

यह रुख दुनिया के बड़े बदलावों को भी दर्शाता है. अमेरिका ‘इन्फ्लेशन रिडक्शन ऐक्ट’ लाया है. यूरोप चीन से अपने को अलग कर रहा है. जर्मनी भी चिप और ग्रीन टेक में सब्सिडी दे रहा है. भारत का प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव पहले से स्थानीय निर्माण को बढ़ावा दे रहा है. अब मोदी का स्वदेशी पर बयान इन योजनाओं को खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा, सौर पैनल और एफएमसीजी जैसे क्षेत्रों में और राजनैतिक समर्थन देता है.

बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विदेशी निवेशक इस बयान को ध्यान से देख रहे हैं. एक तरफ मोदी का बयान भारत की घरेलू मांग की ताकत दिखाता है. दूसरी तरफ, यह नीतिगत जोखिम की ओर भी इशारा करता है. संकेत साफ हैः विदेशी कंपनियों का स्वागत है लेकिन तभी जब वे भारत में निवेश करें, यहां उत्पादन करें और भारत की आर्थिक संप्रभुता का सम्मान करें.

यह बयान मोदी के उस भाषण का हिस्सा था जिसमें उन्होंने लखनऊ में बन रहे ब्रह्मोस मिसाइल प्लांट का जिक्र किया और सस्ते तेल की खरीद को लेकर भारत के अधिकार की बात की. यह सिर्फ उपभोक्ता सामान की बात नहीं रह गई थी. यह ऊर्जा, रक्षा और व्यापार नीति को एक समग्र आर्थिक सुरक्षा नीति से जोड़ने का प्रयास था. इस फ्रेमवर्क में स्वदेशी कोई भावनात्मक नारा नहीं, रणनीतिक सोच है.

स्वदेशी की यह वापसी आर्थिक मोर्चे पर भी असर डाल रही है. बीते साल भारत ने रूस, यूएई और कई अफ्रीकी देशों के साथ रुपए में व्यापार बढ़ाने की कोशिश की है. यह अभी छोटे स्तर पर है लेकिन डॉलर पर निर्भरता घटाने और दोतरफा व्यापार बढ़ाने की रणनीति की ओर इशारा करता है. एक ऐसी दुनिया में जहां आर्थिक दबाव एक हथियार बन गया है, भारत अपने दोस्तों और दुश्मनों दोनों से सीख रहा है.

वैसे, अब भी कई सवाल बने हुए हैं. क्या यह स्वदेशी का नारा असली नीति बनेगा या चुनावी संकेत मात्र रहेगा? क्या सरकार रक्षा और इलेक्ट्रॉनिक्स के बाहर भी स्थानीय सामग्री को अनिवार्य बनाएगी? क्या वह विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं पर नया टैक्स लगाएगी, जो देश के उद्योगों को राहत देगा लेकिन व्यापार साझेदारों को नाराज कर सकता है?

एक संकेत इस बात से मिल सकता है कि भारत अपने एमएसएमई-आधारित निर्माण क्षेत्र को कैसे संभालता है. इन उद्यमों ने खासकर कपड़ा, खिलौने, चमड़े के सामान और सस्ते इलेक्ट्रॉनिक्स में लंबे समय से चीन और आसियान देशों से होने वाले आयात के खिलाफ सुरक्षा की मांग की है. वाणिज्य मंत्रालय और उद्योग संवर्धन एवं आंतरिक व्यापार विभाग (डीपीआइआइटी) के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय एमएसएमई करीब 30 फीसद जीडीपी में योगदान देते हैं, लेकिन उन्हें अघोषित या डंप किए गए आयात से खासकर आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) से भारत के बाहर निकलने के बाद कड़ी टक्कर मिल रही है.

नई दिल्ली पहले से ही आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन) के साथ बने व्यापार समझौतों और जापान, दक्षिण कोरिया जैसे दूर-पूर्वी देशों के साथ हुए सीईपीए (समग्र आर्थिक साझेदारी समझौते) जैसे पुराने समझौतों की समीक्षा पर काम कर रही है. प्रधानमंत्री की स्वदेशी अपील को इस दिशा में एक नैतिक सहारा माना जा सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता है और जिनका चुनावी असर भी बड़ा है.

एक और अहम संकेतक डिजिटल अर्थव्यवस्था हो सकती है. यूरोपीय संघ और अमेरिका की व्यापार टीमें भारत पर मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) में भेदभावरहित डेटा फ्लो नियमों को स्वीकार करने का दबाव बना रही हैं. लेकिन भारत का डेटा लोकलाइजेशन पर जोर और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के चारों ओर बने नियामकीय घेरे स्वदेशी सोच के अनुरूप हैं. अगर भारत अपनी तकनीकी नीति को आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ने लगे तो समझौतों में भारत की स्थिति और कड़ी हो सकती है और विदेशी डिजिटल कंपनियों की निगरानी भी सख्त हो सकती है.

राजनैतिक रूप से देखा जाए तो वाराणसी का भाषण एक मास्टरस्ट्रोक था. इसने बीजेपी को उस नैरेटिव को बदलने का मौका दिया जिसे अमेरिका के दबाव का क्षण बताया जा सकता था- टैरिफ की धमकी, ऊर्जा आपूर्ति पर निगरानी- उसे संप्रभुता के विमर्श में बदल दिया. इसने घरेलू उद्योग को एकजुट होने का आधार दिया और भारत को विकासशील देशों की आत्मविश्वासी आवाज के तौर पर स्थापित किया. साथ ही विपक्ष को असमंजस में डाल दियाः स्वदेशी की अपील का विरोध कैसे किया जाए बिना यह लगे कि वे विदेशी माल के समर्थन में खड़े हैं?

नारा तो ठीक लेकिन स्वदेशी अपनाना इतना आसान नहीं
 
चुनौती असल में इसके अमल में है. अगर स्वदेशी को नीति में बदला जाता है तो उसे उस अक्षमता और भाई-भतीजावाद से बचना होगा जिसने लाइसेंस राज के दौर के औद्योगिक ढांचे को खोखला कर दिया था. अगर यह सिर्फ भाषणों तक सीमित रहता है तो भी इसे निवेशकों, उपभोक्ताओं और व्यापार साझेदारों को स्पष्ट संकेत देने होंगे. फिलहाल यह वही कर रहा है जिसके लिए इसे उठाया गया थाः वैश्विक आर्थिक बदलाव के पहले भारत के आर्थिक राष्ट्रवाद को मजबूत करना और उसमें अपनी भूमिका को परिभाषित करना.

वाराणसी में 2 अगस्त की उस उमस भरी दोपहर को मोदी ने सिर्फ एक शब्द को नहीं दोहराया. उन्होंने एक विचार को फिर से जीवित किया. उन्होंने इस इशारे के जरिए यह साफ कर दिया कि भारत का अगला वैश्विक आर्थिक जुड़ाव अब बाहर से नहीं, भीतर से तय होगा- और स्वदेशी, जो कभी आजादी का शब्द था, अब शक्ति की भाषा बन गया है.
 

Advertisement
Advertisement