छात्रों की मेंटल हेल्थ पर सुप्रीम कोर्ट का 25 जुलाई का फैसला देश में पढ़ाई-लिखाई के माहौल के लिए एक निर्णायक मोड़ की तरह है. दरअसल बीते कुछ सालों के दौरान भारत में छात्रों में अपनी जान देने की बढ़ती प्रवृत्ति ने चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं. अधिकांश छात्र अपनी पढ़ाई का प्रदर्शन अच्छा न होने या फिर कोचिंग सेंटर के बेहद दबाव वाले माहौल के कारण आत्महत्या जैसा घातक कदम उठाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने के लिए शिक्षण संस्थानों के तौर-तरीके व्यापक तौर पर बदलने के उद्देश्य से राष्ट्रव्यापी दिशानिर्देश जारी किए हैं और इन्हें लागू करना बाध्यकारी भी है. जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा है कि भारत में ऐसे एकीकृत और संस्थागत ढांचे का अभाव है जो स्टूडेंट सुसाइड और शैक्षणिक परिवेश में मनोवैज्ञानिक दबाव की चुनौती से निपटने में सक्षम हो. कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मानसिक स्वास्थ्य संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक महत्वपूर्ण पहलू है.
फैसले में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को कोचिंग और नियमन पर दो माह के भीतर विशिष्ट नियम बनाने का निर्देश दिया गया है. ताकि मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों और शिकायत निवारण तंत्रों का एकीकरण सुनिश्चित हो सके. नियम-कायदों की निगरानी नवगठित जिला-स्तरीय समितियों के जिम्मे होगी, जबकि केंद्र सरकार को 90 दिनों के भीतर हलफनामा दाखिल करके ये बताने का निर्देश दिया गया है कि फैसले पर अमल हुआ या नहीं.
कोर्ट ने अपने फैसले में एक बात एकदम साफ कर दी कि चाहे स्कूल हो, कॉलेज, यूनिवर्सिटी हो या फिर कोचिंग सेंटर, हर शैक्षणिक संस्थान को एक समान मानसिक स्वास्थ्य नीति लागू करनी चाहिए. ये नीति उम्मीद (UMMEED) मसौदा दिशानिर्देशों, शिक्षा मंत्रालय की 'मनोदर्पण' पहल और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति पर आधारित होनी चाहिए, और इसे हर साल अपडेट भी किया जाना चाहिए. पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संस्थानों को इन नीतियों को अपनी वेबसाइटों और नोटिस बोर्ड पर प्रमुखता से प्रदर्शित करना होगा.
फैसले में कोचिंग संस्थानों की भूमिका पर विशेष जोर दिया गया, जो अपने छात्रों पर कथित तौर पर भारी दबाव के कारण कड़ी समीक्षा के दायरे में आ गए हैं. 100 से अधिक छात्रों वाले सभी कोचिंग केंद्रों को अब एक पूर्णकालिक काबिल काउंसलर नियुक्त करना होगा. वहीं, कम छात्र वाले कोचिंग केंद्रों के लिए छात्रों को बाहरी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों से जोड़ने के लिए औपचारिक रेफरल सिस्टम स्थापित करना अनिवार्य होगा.
छात्र-काउंसलर अनुपात स्वीकार्य सीमा के भीतर बनाए रखना अनिवार्य है, और शैक्षणिक मार्गदर्शन को भी सपोर्ट फ्रेमवर्क में शामिल करना होगा. फैसले की एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये प्रदर्शन के आधार पर छात्रों के साथ भेदभाव करने, उन्हें सार्वजनिक तौर पर झिड़कने या फिर जरूरत से ज्यादा शैक्षणिक अपेक्षाएं रखने से रोकता है. आमतौर पर यही बातें मानसिक दबाव के कारण टूटने का कारण बनती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्या रोकने के लिए मजबूत बुनियादी ढांचे पर भी जोर दिया है. इसके तहत संस्थानों को हेल्पलाइन नंबर स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित करने होंगे और आपातकालीन रेफरल प्रोटोकॉल निर्धारित करना होगा. सभी शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों को मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा और छात्रों में किसी तरह की भावनात्मक समस्या के लक्षणों की पहचान का प्रशिक्षण दिया जाना भी अनिवार्य है.
अभिभावकों को भी इस पूरी व्यवस्था में शामिल किया गया है. संस्थानों को नियमित तौर पर ऑनलाइन या ऑफलाइन सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम आयोजित करने होंगे ताकि अभिभावक भी मनोवैज्ञानिक संघर्ष के शुरुआती लक्षण पहचानने, अत्यधिक शैक्षणिक दबाव न डालने और भावनात्मक समर्थन देने की दिशा में काम कर सकें. अगर किसी संस्थान ने समय पर या उचित प्रतिक्रिया नहीं दी, खासकर ऐसे मामलों में जिसमें कोई छात्र खुद को नुकसान पहुंचाता है या फिर आत्महत्या कर लेता है तो इसे प्रणालीगत दोष माना जाएगा. और, प्रशासकों को कानूनी और नियामक कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा.
इसके साथ, कोर्ट ने निर्देश दिया है कि मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता, भावनात्मक सुदृढ़ता प्रशिक्षण और जीवन कौशल शिक्षा को ओरिएंटेशन प्रोग्राम और को-करिकुलर एक्टिविटी में शामिल किया जाए. शैक्षणिक संस्थानों को स्वास्थ्य पहलों, परामर्श सत्रों और जागरूकता कार्यक्रमों से जुड़ा रिकॉर्ड गोपनीय रखना होगा और वार्षिक आधार पर अपने संबंधित नियामक प्राधिकरण, जैसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) को मानसिक स्वास्थ्य रिपोर्ट पेश करनी होगी.
आवासीय संस्थानों के मामले में शीर्ष कोर्ट ने छात्रों को आवेग में बहकर आत्महत्या करने से रोकने के उपायों के तहत कुछ संरचनात्मक इंतजाम करने को कहा है. मसलन, टेंपर-प्रूफ पंखे, छतों और अन्य ऐसी जगहों तक सीमित पहुंच, जहां से कूदकर जान दी जा सकती हो. कोर्ट ने ये भी कहा कि सारे स्टाफ को कमजोर या वंचित तबके की पृष्ठभूमि वाले छात्रों, जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, एलजीबीटीक्यू+, दिव्यांग या फिर ट्रॉमा से जूझते अथवा पूर्व में आत्महत्या की कोशिश कर चुके छात्रों के साथ संवेदनशीलता बरतने और उनके साथ मेलजोल बढ़ाने वाला व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. शिक्षण संस्थानों से यह भी उम्मीद की गई है कि गोपनीय शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करेंगे ताकि छात्र बिना किसी हिचकिचाहट या प्रतिशोध के डर के बिना अपनी समस्याओं को साझा कर सकेंगे.
अदालती फैसला ऐसे समय आया है जब देश के प्रमुख कोचिंग केंद्रों कोटा, जयपुर, सीकर, हैदराबाद, दिल्ली, चेन्नई और मुंबई आदि में छात्रों के आत्महत्या करने की घटनाएं चिंताजनक ढंग से बढ़ गई है. 'भारत की कोचिंग कैपिटल' कहलाने वाले कोटा तो देश की प्रतियोगी परीक्षा संस्कृति के कारण किशोरों पर बढ़ते मनोवैज्ञानिक दबाव का प्रतीक ही बन गया है.
कोटा में छात्रों की आत्महत्या
कोटा पुलिस के आंकड़ों की मानें तो जनवरी 2022 से फरवरी 2025 के बीच शहर के कोचिंग केंद्रों में पढ़ रहे छात्रों के आत्महत्या करने की कम से कम 24 घटनाएं दर्ज की गईं. इनमें से 19 छात्रों ने फांसी लगाई, तीन ने बिल्डिंग से छलांग लगाकर, एक ने जहर खाकर और एक ने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दी. जांच में पता चला कि 11 मौतें पढ़ाई के तनाव के कारण हुईं. जबकि छह ने प्रेम संबंधों और दो-दो मौतें बीमारी, पारिवारिक दिक्कतों और ऑनलाइन गेमिंग की लत के कारण हुईं. एक ने मादक द्रव्यों के सेवन के कारण जान गंवाई. नौ मामलों में छात्रों में पूर्व में आत्महत्या का विचार आने जैसे लक्षण दिखे थे; तीन ने पहले भी प्रयास किए थे, जबकि तीन अन्य के परिवार में पूर्व में किसी न किसी ने आत्महत्या की थी.
आत्महत्या के लिए चुना गया समय काफी चौंकाने वाला है: 24 में 17 मौतें जनवरी से अप्रैल के बीच हुईं, जो आमतौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं से पहले का समय होता है. इससे ये भी माना जा सकता है कि संभवत: ‘परफॉर्मेंस गैप’ एक बड़ा कारण रहा. आत्महत्या करने वाले कई छात्र 10वीं कक्षा की अपनी सफलता दोहराने में असमर्थ रहे थे- इनमें 14 ने 80 फीसद से ज्यादा अंक हासिल किए थे. और, कथित असफलता ने उन्हें और भी ज्यादा परेशान कर दिया. जनसांख्यिकीय विश्लेषण लैंगिक दबाव को भी उजागर करता है, जैसे कि पीड़ितों में 21 लड़के थे और केवल तीन लड़कियां थीं.
कोटा मेडिकल कॉलेज की तरफ से अक्तूबर 2022 से सितंबर 2023 के बीच स्टूडेंट सुसाइड से जुड़ी 27 घटनाओं के संदर्भ में किए गए एक अध्ययन ने भी ऐसी ही भयावह तस्वीर सामने रखीं. मृतकों में 25 नीट (राष्ट्रीय मेडिकल प्रवेश परीक्षा) और दो जेईई (इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा) की तैयारी कर रहे थे. 20 मामलों में तनाव और अवसाद को मुख्य कारण बताया गया. सबसे चिंताजनक बात ये है कि कई छात्र नाबालिग थे- दो 15 वर्ष के थे, चार 16 वर्ष थे, 11 की उम्र 17 वर्ष और छह की 18 वर्ष की थी. ये अति-प्रतिस्पर्धी माहौल के किशोरों पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को दिखाता है.
सुप्रीम कोर्ट के दखल की इस वक्त संभवत: सबसे ज्यादा जरूरत थी. कोर्ट का मानसिक स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार बताना और संस्थागत जवाबदेही पर जोर देना एक बहुप्रतीक्षित बदलाव की दिशा में एक बड़ा कदम है. हालांकि, असली परीक्षा तो ये होगी कि इन निर्देशों का पालन कितनी सख़्ती से किया जाता है. पर्याप्त धन, प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक पेशेवरों और शैक्षणिक संस्कृति को दंडात्मक से छात्रों के प्रति सहानुभूति रखने वाली बनाए बिना, ये दिशानिर्देश सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह जाएंगे.