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एससी-एसटी आरक्षण मामले में अपने ही 20 साल पुराने फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने क्यों पलटा?

सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने एक अगस्त को एससी-एसटी आरक्षण में सब-कैटेगराइजेशन की अनुमति दे दी

एससी-एसटी मामले पर फैसला सुनाती सात जजों की बेंच/तस्वीर - सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का स्क्रीनशॉट
एससी-एसटी मामले पर फैसला सुनाती सात जजों की बेंच/तस्वीर - सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का स्क्रीनशॉट
अपडेटेड 2 अगस्त , 2024

गुरुवार 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए आरक्षण के लिए एससी-एसटी समूह को सब-कैटेगराइज करने पर अपनी मुहर लगा दी. सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की बेंच ने 6:1 से यह फैसला दिया. यह फैसला उन राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है जो तथाकथित प्रमुख अनुसूचित जातियों की तुलना में आरक्षण के बावजूद बहुत कम प्रतिनिधित्व वाली कुछ जातियों (एससी-एसटी में ही शामिल) को व्यापक सुरक्षा देना चाहते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के साथ ही 20 साल पुराने अपने फैसले को पलट दिया जिसमें कोर्ट ने माना था कि आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों के बीच सब-कैटेगराइज करना समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा और कहा था कि एससी सूची को एकल, समरूप समूह (यानि जिनमें कोई अंतर नहीं है) रूप में माना जाना चाहिए. अब सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आने के बाद आरक्षण समर्थक गुटों की ओर से इसपर सवाल उठने लगे हैं.

कैसे उठा यह मुद्दा?

पंजाब सरकार ने 1975 में एक नीति जारी की थी जिसके तहत अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए 25% आरक्षण को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया - एक बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के लिए, जिन्हें सबसे पिछड़ा माना जाता था, और दूसरा एससी के बाकी बचे समुदायों के लिए. यह नीति लगभग 30 सालों तक लागू रही.

मामला तब फंसा जब 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश में इसी तरह की एक आरक्षण नीति के खिलाफ़ फ़ैसला सुनाया. ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार केस में 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि एससी के सब-कैटेगराइज करने से समानता के अधिकार का उल्लंघन हुआ, क्योंकि इससे अलग-अलग एससी जातियों के साथ असमान व्यवहार किया गया, जबकि उन सभी को उनके ऐतिहासिक भेदभाव के लिए पहचाना जाता है. फ़ैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों को एक ही समूह के रूप में माना जाना चाहिए.

तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद-341 राष्ट्रपति को एससी जातियों को नोटिफाई  करने का अधिकार देता है, और राज्य इस सूची में बदलाव नहीं कर सकते या सब-कैटेगराइज नहीं कर सकते. इसके बाद, 2006 में, पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने पंजाब सरकार की 1975 की नीति को भी अमान्य घोषित कर दिया.

अक्टूबर 2006 में, पंजाब सरकार ने एक नया कानून पारित करके बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के पक्ष में अपनी आरक्षण नीति को बहाल करने की कोशिश की. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 2010 में इसे फिर खारिज कर दिया. पंजाब सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट में अपील की.

2014 में दविंदर सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने समीक्षा की कि क्या उसके 2004 के फैसले, जिसने एससी के उप-वर्गीकरण को अस्वीकार कर दिया था, पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. इसे पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजा गया.

2020 में जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने फैसला किया कि 2004 के फैसले पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. कोर्ट ने यह माना कि एससी एक समरूप समूह नहीं हैं और 'क्रीमी लेयर' की अवधारणा को भी स्वीकार किया जो आय के आधार पर लाभों को सीमित करती है. जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले में 2018 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एससी के भीतर "क्रीमी लेयर" को बरकरार रखा था, जिसे पहली बार 2018 में एससी के प्रमोशन पर लागू किया गया था.

राज्यों ने भी तर्क दिया कि उनका सब-कैटेगराइज करना क्रीमी लेयर की सोच पर आधारित है जो एससी के भीतर सबसे वंचित लोगों के लिए ज्यादा मददगार है. चूंकि दविंदर सिंह की बेंच में भी पांच जज थे, इसलिए अब सात जजों की एक बड़ी बेंच को इस मुद्दे की समीक्षा करनी थी.

8 फरवरी, 2024 को सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की बेंच ने इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, इस बात पर विचार करते हुए कि क्या सब-कैटेगराइज करने की अनुमति न देने से ज्यादा प्रभावशाली या अपने ही वर्ग में ज्यादा सशक्त अनुसूचित जातियों को लाभों पर एकाधिकार मिल जाएगा. कोर्ट ने 2004 के उस फैसले की भी जांच की जिसमें कहा गया था कि केवल राष्ट्रपति ही आरक्षण के लिए पात्र एससी समुदायों का फैसला कर सकते हैं और राज्य इस सूची में बदलाव नहीं कर सकते.

जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच में सीजेआई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस बी. आर. गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे. जस्टिस बेला त्रिवेदी ने सब-कैटेगराइज करने के फैसले से असहमति जताई लेकिन 6:1 से सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया.

पीठ ने अपने बहुमत के फैसले में कहा, "एससी/एसटी समुदाय के लोगों से किया जाने वाला व्यवस्थित भेदभाव अक्सर उनकी प्रगति में बाधा डालता है. अनुच्छेद-14 जातियों के सब-कैटेगराइज करने की अनुमति देता है. कोर्ट को यह आकलन करना चाहिए कि कोई वर्ग समरूप है या नहीं, और यदि नहीं, तो उसे आगे कैटेगराइज किया जा सकता है."

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐतिहासिक और सामाजिक साक्ष्य स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि एससी/एसटी एक समरूप समूह नहीं हैं. इसलिए राज्यों की ओर से एससी/एसटी का सब-कैटेगराइज करना अनुच्छेद-341 का उल्लंघन नहीं करता, जो राष्ट्रपति को एससी/एसटी सूची तैयार करने का अधिकार देता है.

फैसला सुनाने के दौरान जस्टिस बी.आर. गवई ने कहा, "सरकार को अनुसूचित जाति/जनजाति समुदाय के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें अफर्मेटिव एक्शन (किसी वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए किया गया सकारात्मक भेदभाव) के दायरे से बाहर करने के लिए एक नीति बनानी चाहिए. सच्ची समानता हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है."

अपनी असहमति जताते हुए जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा, "राज्यों द्वारा अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों का सब-कैटेगराइजेशन संविधान के अनुच्छेद-341 के उलट है जो राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की सूची तैयार करने का अधिकार देता है. अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की सूची में राजनीति ना हो इसके लिए अनुच्छेद-341 को अधिनियमित किया गया था. राष्ट्रपति की सूची में जातियों को केवल संसद की ओर से पारित कानून की मदद से ही शामिल या बाहर किया जा सकता है. सब-कैटेगराइजेशन इस सूची में छेड़छाड़ के समान होगा. इसके भीतर किसी सब-कैटेगरी के लिए कोई भी तरजीही व्यवहार उसी श्रेणी के अन्य वर्गों को लाभों से वंचित करेगा."

पंजाब में बाल्मीकि और मजहबी सिखों तथा आंध्र प्रदेश में मदिगा के अलावा, बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतिआर भी सब-कैटेगराइजेशन के इस फैसले से प्रभावित होंगे. 

लोगों की क्या है प्रतिक्रिया?

इस फैसले के आते ही आरक्षण समर्थक और विरोधी, दोनों ही धड़ों ने सोशल मीडिया पर इस बारे में लिखना शुरू किया. आरक्षण विरोधी धड़े ने जहां इस फैसले को काबिल-ए-तारीफ बताया तो वहीं आरक्षण समर्थक धड़े ने इसके खिलाफ लिखा. 

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ रतन लाल ने एससी-एसटी आरक्षण के बीच ईडब्लूएस आरक्षण की बात छेड़ दी. 

दलित कवयित्री मीना कंडासामी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कहा कि भारतीय न्यायपालिका के क्रीम से भी क्रीम जजों ने ने एससी/एसटी आरक्षण में एक काल्पनिक क्रीमी लेयर के लिए आरक्षण के खिलाफ फैसला सुनाया.

राजद सांसद मनोज झा ने इस फैसले पर लिखा कि कभी-कभी किसी साल का कोई खास दिन प्रतिरोध और मुक्ति का प्रतीक बन जाता है हमेशा के लिए और शायद 2 अप्रैल 2018 ने उसी भूमिका का निर्वहन किया.

दिल्ली विश्वविद्यालय की रिसर्च स्कॉलर सौंदर्या ने इंडिया टुडे हिंदी को बताया कि इस फैसले की अभी कोई जरूरत नहीं थी. उन्होंने कहा, "अगर आर्थिक आधार पर सब-कैटेगराइजेशन की बात जाए तो उन लोगों का क्या जो आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद भेदभाव का शिकार होते हैं, वह भी सिर्फ इसलिए कि वे तथाकथित निचली जातियों से आते हैं. मैं मानती हूं कि सामाजिक स्तर पर अनुसूचित जाति एक समरूप समूह नहीं हैं मगर भेदभाव झेलते वक्त एक ही भावना सभी जातियों के बीच आती है."

उन्होंने आगे बताया कि बिलकुल ठीक बात है कि अनुसूचित जातियों के सभी समुदायों तक आरक्षण का लाभ एक जैसा नहीं पहुंचा है मगर उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के हिसाब से उन्हें आरक्षण प्रदान नहीं किया गया है. इसलिए जरूरी है कि जाति जनगणना कर सभी जातियों की असल जनसंख्या जानी जाए और उसके हिसाब से सरकार नीतियां बनाए.

अब आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सबकी नजरें विपक्ष की ओर होंगी कि इस मुद्दे पर उसके नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होती है. राहुल गांधी 18वीं लोकसभा के शुरुआती सत्र में ही कह चुके हैं कि अगर इंडिया गठबंधन की सरकार आई तो वे जाति जनगणना करवाकर रहेंगे. कुछ दिनों पहले ही राहुल गांधी की कथित तौर ऊपर जाति पूछे जाने पर राजद सांसद मनोज कुमार झा ने लिखा, "क्या हम जाति जनगणना पर संसद के दोनों सदनों में 'दीर्घकालिक चर्चा' कर सकते हैं? यह समझने और देखने में बहुत मददगार होगा कि सामाजिक न्याय के इस महत्वपूर्ण मील के पत्थर पर कौन कहां खड़ा है. प्रधानमंत्री से अपील है कि वे इनकार और धोखे का सहारा न लें."

समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव ने कहा, "बहुत शानदार फैसला है और हम समाजवादी 60 के दशक से इसकी मांग कर रहे थे. माननीय न्यायलय के फैसले के बाद सरकार को अपनी नीति और नियत में बदलाव करना चाहिए."

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ दोबारा याचिका दायर की जा सकती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले को पलटने के लिए कम से कम 9 जजों की बेंच की जरूरत होगी. एनडीए सरकार चाहे तो एक अधिनियम लाकर इस फैसले को पलट सकती है. लेकिन अगर सरकार इस फैसले को मानती है तो उसे एक आयोग बिठाकर एससी-एसटी जातियों को सब-कैटेगराइज करना पड़ेगा. आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सरकार इसके आरक्षण में बदलाव करने का फैसला कर भी सकती है और नहीं भी.

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