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देहात के दम ने दिखाया कि ट्रंप का टैरिफ ऐसे हो सकता है बेअसर!

वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही के आंकड़े कई मोर्चों पर भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती और ग्रामीण मांग में उछाल का संकेत देते हैं. इससे डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ हमलों से बचाव की राह भी निकलती है

Under Section 54EC, you can invest up to ₹50 lakh of your LTCG in bonds issued by the National Highways Authority of India (NHAI) or Rural Electrification Corporation (REC) within six months of the property sale
ग्रामीण भारत में मांग वापस पटरी पर लौट रही है
अपडेटेड 3 सितंबर , 2025

वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही में भारत ने 7.8 फीसदी की मजबूत GDP की जो वृद्धि दर हासिल की है, वह महज एक आंकड़ा नहीं है. यह इस बात का अब तक का सबसे साफ संकेत है कि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था न केवल सुदृढ़ है बल्कि वह ऐसे समय में विकास के अपने इंजनों को भी सक्रिय कर रही है जब दुनिया के प्रतिकूल हालात, खासतौर पर अमेरिका के नए टैरिफ युद्ध, से व्यापार की राहें बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है.

विकास के ये आंकड़े भारत के लिए इस बात का प्रमाण भी हैं और हथियार भी कि घरेलू मांग तेजी से बढ़ रही है और अमेरिका के इस नैरेटिव का खंडन भी कि भारत अमेरिकी बाजार तक अनुकूल पहुंच के लिए जरूरत से ज्यादा निर्भर है. मोदी सरकार के मंत्रियों ने आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की कि विकास दर से "भारत के फंडामेंटल्स की पुष्टि होती है, दुनिया के सामने यह बात जाहिर होती है कि बाहरी उथल-पुथल के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था मजबूती के पायदान पर है." वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ज्यादा आक्रामक थे. उन्होंने कहा, "दुनिया को देख लेना चाहिए- भारत 7.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा है, जबकि ज्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसकी आधी रफ्तार पाने के लिए भी संघर्ष कर रही हैं. यही समय है भारत में निवेश बढ़ाने का."

आशावाद गलत भी नहीं है. आंकड़ों से व्यापक प्रदर्शन का पता चलता है: सेवाएं, मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण और यहां तक कि कृषि, सभी सकारात्मक योगदान दे रहे हैं और यह कई वर्षों की असमान रिकवरी के बाद दुर्लभ तालमेल है.

वर्तमान तिमाही के महत्त्व को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे देखना होगा. वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था 13.1 फीसदी की दर से बढ़ी थी. लेकिन यह कोविड महामारी के निचले स्तर से सांख्यिकीय उछाल या यों कहें कि आंकड़ों की तेजी थी. अगले वर्ष यानी वित्त वर्ष 2023-24 की पहली तिमाही में वृद्धि दर धीमी होकर 7.2 फीसदी रह गई, इसमें जो इजाफा हुआ वह काफी हद तक सेवाओं और निर्माण क्षेत्र की बदौलत था जबकि कृषि क्षेत्र स्थिर रहा और ग्रामीण मांग सुस्त रही.

पिछले साल यानी वित्त वर्ष 2024-25 की पहली तिमाही में विकास दर और गिरकर 6.1 फीसदी पर आ गई. गड़बड़ मानसून ने कृषि उत्पादन नीचे खींच लिया और ग्रामीण भारत लगातार निराश करता रहा. इस पृष्ठभूमि में वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही में 7.8 फीसदी की वृद्धि न केवल तेजी बल्कि एक गुणात्मक बदलाव भी प्रदर्शित करती है: ग्रामीण अर्थव्यवस्था- जिसे लंबे समय से पिछड़ी माना जाता था- अब हरकत में आ रही है.

वृद्धि की ग्रामीण गाथा पर करीब से गौर करने की जरूरत है. वित्त वर्ष 2021-22 में गांवों ने कोविड के झटके को सहन करने में अहम भूमिका निभाई थी- शहर बंद होने के बावजूद कृषि उत्पादन स्थिर रहा. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह एक विरोधाभास था. वित्त वर्ष 2022-23 में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन हुआ, फिर भी ग्रामीण मांग नहीं निकली और उपभोक्ता वस्तुओं या दोपहिया वाहनों की बिक्री में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई क्योंकि महंगाई ने उनकी आय को कम कर दिया था.

वित्त वर्ष 2023-24 में कहीं कम-कहीं ज्यादा बारिश ने परेशानी और बढ़ा दी, खपत को और कमजोर कर दिया. यहां तक कि हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसी प्रमुख FMCG (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) कंपनियों ने भी कई तिमाहियों में ग्रामीण बिक्री स्थिर या नकारात्मक रहने की जानकारी दी. लेकिन अब इसमें बदलाव आने लगा है. लगातार दो सीजन में सरकारी समर्थन और रबी उत्पादन में सुधार ने वित्त वर्ष 2024-25 में उम्मीदें जगाईं. नतीजे में ट्रैक्टरों की बिक्री में तेजी आई, ग्रामीण क्षेत्र में कर्ज का वितरण बढ़ा और FMCG कंपनियां गांवों में बिक्री वृद्धि दर्ज करने लगीं और बिक्री में इस तेजी ने तीन साल में पहली बार शहरों को पीछे छोड़ दिया.

वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही ने इस बदलाव पर मुहर लगाई है. नीलसन-आईक्यू के आंकड़ों से पता चलता है कि गांवों में FMCG बिक्री में सालाना आधार पर 6.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि शहरी बाजारों में यह 4.8 फीसदी रही. ग्रामीण मनोबल का विश्वसनीय संकेतक दोपहिया वाहनों की बिक्री होता है, इसमें भी 9 फीसदी की वृद्धि हुई है. देहाती भारत में यह बहाली अर्थव्यवस्था को बाहर के उतार-चढ़ाव से बचा रही है. 

मैन्युफैक्चरिंग और निर्माण भी अपना दम दिखा रहे हैं. सरकार का पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) पर जोर सीमेंट और स्टील की मजबूत मांग में इजाफा कर रहा है. आवास और शहरी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं रोजगार सृजन को बढ़ावा दे रही हैं. इस वृद्धि का नेतृत्व सेवा क्षेत्र कर रहा है जिसमें आईटी, वित्तीय सेवाएं और डिजिटल प्लेटफॉर्म जोरदार तरीके से बढ़ रहे हैं. हालांकि आईटी पर निर्यात मार्जिन का दबाव बना हुआ है. सबसे अहम बात है संतुलन: कोई भी अकेला क्षेत्र समूचे आंकड़े को नीचे नहीं खींच रहा है, यही कारण है कि 7.8 फीसदी का आंकड़ा महज सुर्खी नहीं बल्कि विश्वसनीय है.

बेशक, चुनौतियां कभी भी और किसी भी रूप में आ सकती हैं. भारतीय स्टील, एल्युमीनियम और चुनिंदा इलेक्ट्रॉनिक्स पर भारी-भरकम टैरिफ लगाने के अमेरिकी फैसले का असर पहली तिमाही में नहीं बल्कि वित्त वर्ष 2025-26 की दूसरी तिमाही से दिखना शुरू होगा. निर्यात पर पहले से ही दबाव है: जुलाई में व्यापारिक निर्यात सालाना आधार पर 2.1 फीसदी गिरा. भारत के निर्यात का 17 फीसदी हिस्सा अमेरिका से आता है, ऐसे में ट्रम्प के टैरिफ की मार आने वाली तिमाहियों में विकास दर को कम से कम आधा फीसदी अंक गिरा सकती है.

फिर भी, नीति निर्माताओं को जिस बात पर भरोसा है, वह है घरेलू मांग जो इस झटके को झेलने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत है. सुदृढ़ होती ग्रामीण अर्थव्यवस्था, राज्यों में चुनावों से पहले सरकार के ज्यादा खर्च करने और सेवाओं की शहरी खपत, इसके बचाव में ढाल का काम कर सकती है. 

हालांकि, विपक्षी दल इससे प्रभावित नहीं हैं. कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने तर्क दिया कि "मुख्य जीडीपी वृद्धि से आम भारतीय की जिंदगी की सचाई का पता नहीं चलता". उन्होंने कहा, "ग्रामीण मजदूरी ठहरी हुई है, खाद्य महंगाई ऊंची बनी हुई है और गैर-बराबरी लगातार बढ़ती जा रही है. सरकार आंकड़ों के जरिए इन मुश्किलों से पल्ला नहीं झाड़ सकती." यह विरोधाभास देहात के उन हिस्सों में भी दिखता है जहां महंगाई ने क्रय शक्ति घटा दी है, भले ही कुल मांग के इंडीकेटर बेहतर दिख रहे हों. यह इस बात की भी याद दिलाता है कि विकास और समृद्धि एक ही चीज नहीं हैं.

इन आंकड़ों के राजनीतिक अर्थशास्त्र को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. नरेंद्र मोदी सरकार, जिसे आने वाली ठंड में महत्त्वपूर्ण राज्यों के चुनाव में उतरना है, के लिए 7.8 फीसदी की वृद्धि दर चुनावी मुद्दा है. मंत्री इसे बतौर प्रमाण पेश करते हुए कह रहे हैं कि दुनिया के अशांत महासागर में भारत स्थिरता का एक द्वीप है. विपक्ष के लिए चुनौती यह है कि बहस को कैसे वितरण की ओर मोड़ा जाए- कि इस विकास से असल में किसे फायदा हो रहा है? जब अमेरिकी टैरिफ का असर फैक्टरियों की ऑर्डर-बुक और नौकरियों के आंकड़ों में दिखने लगेगा तो प्रचार की यह लड़ाई और भी तीखी हो जाएगी.

फिलहाल भारत की विकास की राह पिछले तीन वित्तीय वर्षों की तुलना में कहीं बेहतर दिख रही है. ग्रामीण मांग का पटरी पर लौटना न केवल अर्थव्यवस्था, बल्कि राजनीतिक माहौल के लिए भी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है. वर्षों तक पिछड़े रहने के बाद गांव एक बार फिर विकास की छांव का हिस्सा बन गए हैं. इससे भले ही अमेरिकी संरक्षणवाद के पूरे असर की भरपाई न हो पाए लेकिन यह एक सहारा जरूर मुहैया कराता है.

बड़ा सवाल यह है कि क्या ग्रामीण इलाकों में यह बहाली एक और मानसून चक्र तक कायम रह पाएगी और क्या सरकारी नीतियां निर्यात का बचाव करते हुए मुद्रास्फीति को नियंत्रित रख सकेंगी. अगर ऐसा होता है तो भारत की विकास गाथा सबका ध्यान आकर्षित करती रहेगी, वह भी सिर्फ आंकड़ों के लिहाज से नहीं, बल्कि इस लिहाज से भी अर्थव्यवस्था की संरचना बदल रही है. 
 

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