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कच्चाथीवू द्वीप की कहानी, जिसे लेकर कांग्रेस पर हमलावर है बीजेपी

कच्चाथीवू द्वीप श्रीलंका को देने की बात उठाकर बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले दक्षिणी राज्यों, खासकर तमिलनाडु में फायदा उठाने की कोशिश कर रही है

कच्चाथीवू द्वीप
कच्चाथीवू द्वीप
अपडेटेड 2 अप्रैल , 2024

इस साल होने वाले लोक सभा चुनावों से पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कच्चाथीवू द्वीप को एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 मार्च को भारत और श्रीलंका के बीच पाक स्ट्रेट (जलडमरूमध्य) पर स्थित इस निर्जन द्वीप को लेकर एक्स पर एक पोस्ट लिखी. इसमें उन्होंने 1974 में कच्चाथीवू को श्रीलंका को सौंपने के लिए कांग्रेस को निशाने पर लिया. 

एक आरटीआई जवाब पर आधारित एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने एक्स पर लिखा, "ये चौंकाने वाला है. नए तथ्यों से पता चला है कि कांग्रेस ने जानबूझकर कच्चाथीवू द्वीप श्रीलंका को दे दिया था. इसे लेकर हर भारतीय गुस्सा है और एक बार फिर से मानने पर मजबूर कर दिया है कि हम कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर सकते."

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में तमिलनाडु में भाजपा प्रमुख के अन्नामलाई ने कच्चाथीवू द्वीप के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए सूचना के अधिकार कानून के तहत एक आवेदन दाखिल किया था. इस आरटीआई से मिली जानकारी के बाद प्रधानमंत्री मोदी की एक्स पोस्ट सामने आई है.

रिपोर्ट के मुताबिक, आरटीआई से प्राप्त दस्तावेजों से ये संकेत मिलता है कि कांग्रेस ने कभी भी इस छोटे, निर्जन द्वीप को ज्यादा महत्व नहीं दिया. जबकि इस द्वीप के बारे में भारत के पहले प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू ने एक बार यहां तक ​​​​कहा था कि वे "द्वीप पर अपना दावा छोड़ने" में बिल्कुल भी संकोच नहीं करेंगे. ऐसे में क्या है कच्चाथीवू द्वीप की पूरी कहानी? और तमिलनाडु में ये कैसे एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है? आइए जानते हैं. 

मैप पर कच्चाथीवू द्वीप
मैप पर कच्चाथीवू द्वीप

कच्चाथीवू भारत और श्रीलंका के बीच पाक स्ट्रेट में 285 एकड़ में फैला एक निर्जन द्वीप है. निर्जन इसलिए कि यहां पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है. इसलिए लोगों की बसाहट नहीं है. भारतीय तट से इसकी दूरी करीब 33 किमी. है. यह रामेश्वरम् के उत्तर-पूर्व में स्थित है. वहीं, श्रीलंका के सुदूर उत्तरी क्षेत्र जाफना के यह दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है. जाफना से इसकी दूरी करीब 62 किमी. है. जबकि श्रीलंका के डेल्फ्ट द्वीप से यह 24 किमी. दूर है.

इस निर्जन द्वीप पर एकमात्र ढांचा 20वीं सदी का कैथोलिक चर्च है, जिसे सेंट एंथोनी चर्च कहा जाता है. इस चर्च में भारत और श्रीलंका दोनों देशों के ईसाई पादरी सेवाएं देते हैं. दोनों देशों के आस्थावान लोग यहां पहुंचते हैं. पिछले साल (2023 में) त्योहारों के दौरान 2500 भारतीयों ने रामेश्वरम् से कच्चाथीवू द्वीप की यात्रा की थी. लेकिन देखा जाए तो इस द्वीप का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है. 

14वीं सदी में ज्वालामुखी के फूटने के बाद यह द्वीप बना. मध्य काल के शुरुआती दौर में इस द्वीप पर जाफना साम्राज्य का नियंत्रण हुआ करता था. 17वीं सदी में यह नियंत्रण शिफ्ट हुआ और रामनाथपुरम् के रामनाद जमींदारों के हाथ में चला गया. रामनाथपुरम्,  रामेश्वरम् से करीब 55 किमी. उत्तर-पूर्व में स्थित था. यानी कच्चाथीवू पर अब भारत के लोग शासन कर रहे थे. 

भारत में जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ तो कच्चाथीवू मद्रास प्रेसीडेंसी का अंग बन गया. लेकिन 1921 में भारत और श्रीलंका दोनों ही देशों ने मछली पकड़ने की सीमा के तौर पर कच्चाथीवू पर दावा किया. ये दोनों देश तब अंग्रेजों के उपनिवेश हुआ करते थे. इसी दौरान एक सर्वे सामने आया जिसमें इस द्वीप को श्रीलंका में होने के तौर पर चिह्नित किया गया. 

इस सर्वे के नतीजों के खिलाफ भारत के एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल ने चुनौती दी. इसके लिए उन्होंने रामनाद साम्राज्य द्वारा द्वीप के स्वामित्व का हवाला दिया. लेकिन अगले कई सालों तक यह मामला सुलझा नहीं. 

साल 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति श्रीमावो भंडारनायके के बीच इस द्वीप पर समझौता हुआ. 26 जून, 1974 और 28 जून 1974 में दोनों देशों के बीच दो दौर की बातचीत हुई. ये बातचीत कोलंबो और दिल्ली दोनों जगह हुई थी. बातचीत के बाद कुछ शर्तों पर सहमति बनी और द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया गया. यह समझौता 'भारत-श्रीलंकाई समुद्री समझौते' के रूप में सामने आया.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, उस समय इंदिरा गांधी ने सोचा कि इस द्वीप का कोई रणनीतिक महत्व नहीं है और इस द्वीप पर भारत का दावा खत्म करने से श्रीलंका के साथ संबंध और गहरे हो जायेंगे. हालांकि इस समझौते के तहत भारतीय मछुआरों को द्वीप पर जाल सुखाने की अनुमति मिली. बिना वीजा द्वीप पर बने चर्च के लिए जाने की अनुमति मिली. लेकिन मछली पकड़ने के अधिकार का मुद्दा सुलझ नहीं सका. 

जहां तक तमिलनाडु की राजनीति में इस मुद्दे का सवाल है तो यह समय-समय पर वहां की राजनीति में गूंजता रहा है. 1974 में जब इंदिरा गांधी ने इसे श्रीलंका को सौंपा तो राज्य में इसका विरोध हुआ. यह तमिलनाडु की विधानसभा से सहमति लिए बगैर लिया गया फैसला था. साल 1991 में इसके खिलाफ तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव भी पास कर द्वीप को वापस लाने की मांग की गई थी, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था. 

साल 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर याचिका दायर की थी और कच्चाथीवू द्वीप को लेकर हुए समझौते को अमान्य करार देने की मांग की थी. उनका कहना था कि गिफ्ट में इस द्वीप को श्रीलंका को देना असंवैधानिक है. याचिका में तर्क दिया गया कि 1974 के समझौते ने भारतीय मछुआरों के पारंपरिक मछली पकड़ने के अधिकार और आजीविका को प्रभावित किया है. 

वहीं, पिछले साल तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एमके स्टालिन ने भी श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की भारत यात्रा से पहले पीएम मोदी को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने पीएम मोदी से कच्चाथीवू के मामले पर चर्चा करने का अनुरोध किया था. वहीं, भाजपा कच्चाथीवू द्वीप मुद्दे के लिए कांग्रेस सहित डीएमके पर हमलावर है. प्रधानमंत्री मोदी की अगुआई में पार्टी इस मुद्दे को तमिलनाडु सहित पूरे देश में भुनाना चाहती है. 

पिछले लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु की 39 सीटों के लिए हुए मतदान में भाजपा पांच सीटों पर लड़ी थी. लेकिन उसका खाता भी नहीं खुल पाया था. उसे महज 3.7 फीसद वोट शेयर हासिल हुए थे. यह सब देखते हुए भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है. इसके लिए वह ऐसे मुद्दों की तलाश में है जो तमिलनाडु सहित दक्षिणी राज्यों में उसे सीट तो दिलाएं ही. साथ ही कांग्रेस के नुकसान के साथ बीजेपी को उसका फायदा उत्तर भारतीय राज्यों में भी मिले.

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