कानून हमें अपने शरीर पर अपना अधिकार प्रदान करता है. इसका उलटा भी सच है, भले ही एक सीमा तक सही—अगर कोई कानून तोड़ता है (और पकड़ा जाता है) तो खुद के शरीर पर अपना स्वामित्व खो देता है और इसलिए उसे जेल में डाला जा सकता है, या यहां तक कि मौत की सजा भी दी जा सकती है. आदर्श स्थिति में, यह निरपेक्ष नहीं है, और इसकी हद इस पर निर्भर है कि कानून कितना दंड देने वाला या सुधारवादी है. 6 अप्रैल को संसद ने एक कानून पारित किया जिसने न्याय के इन बुनियादी सवालों को फिर खड़ा कर दिया है. आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) कानून, 2022 ने कैदियों की पहचान कानून, 1920 की जगह ले ली. इसने नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार को इसके आलोचकों के साथ टकराव के रास्ते पर ला दिया है. हंगामे के बीच कानून को 'असंवैधानिक', 'आक्रामक' और 'निजता का हनन' करने वाला बताया जा रहा है.
आखिर इतना हंगामा क्यों हो रहा है? असल में यह कहीं बढ़कर है. मूल कानून ने अधिकारियों को दोषियों और एक साल से ज्यादा की कठोर सजा के लिए गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति की तस्वीरें, उंगलियों के निशान (फिंगरप्रिंट्स) और पैरों के निशान लेने का अधिकार दिया था. एक स्तर पर, इसने समकालीन फॉरेंसिक विधियों को व्यवस्थित करना दर्शाया; दूसरी ओर, यह एक औपनिवेशिक कानून भी था, जिसे 102 साल पहले, जालियांवाला बाग नरसंहार के एक साल बाद तीव्र होते स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में तैयार किया गया था.
नया कानून फॉरेंसिक पक्ष को शामिल करता है और कई सारी आधुनिक तकनीकी चीजों को लागू करता है—आंख की पुतली और रेटिना का स्कैन, जैविक नमूने, दस्तखत, लिखावट सरीखी बर्ताव संबंधी विशेषताएं और अन्य परीक्षण जिनका दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 53 या 53ए में संदर्भ दिया गया है. सरकार का कहना है कि यह सब जांच को ज्यादा प्रभावी बनाएंगे और 'सजा की दर को बढ़ाएंगे.' गौरतलब है कि इन रिकॉर्ड्स को संग्रह की तारीख से 75 साल तक डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक रूप में सहेज कर रखा जा सकता है. कानून ऐसे आरोपी को राहत प्रदान करता है जिसे पहले कभी दोषी नहीं ठहराया गया हो या बाद में बरी कर दिया गया हो या बिना केस चलाए रिहा किया गया हो—ऐसे मामले में सभी आंकड़ों को रिकॉर्ड्स से हटा दिया जाएगा.
फॉरेंसिक टूल्स को अपडेट करना वाकई अच्छा विचार है, लेकिन नया कानून अन्य पहलुओं में भी दखल देता है, मनुष्य की बुनियादी स्वतंत्रता के रूप में जिसे पारिभाषित किया जा सकता है और जिसकी रक्षा का दायित्व कानून के पास है. नए कानून में कई विवादास्पद उपखंड हैं: केवल दोषियों और अन्य आरोपियों के ही नहीं, बल्कि किसी भी व्यक्ति की माप या निशान लिए जा सकते हैं जिसे ''अच्छे व्यवहार की गारंटी देने का आदेश दिया गया हो.'' नए कानून का 'स्टेटमेंट ऑफ ऑब्जेक्ट्स ऐंड रीजन्स' का तर्क है कि ''किन लोगों के नमूने या निशान लिए जा सकते हैं, इसका दायरा बढ़ाना जरूरी है क्योंकि इससे जांच एजेंसियों को कानूनी रूप से स्वीकार्य पर्याप्त सबूत इकट्ठा करने और आरोपी का अपराध साबित करने में मदद मिलेगी.''
इसका विरोध भी नहीं किया जा सकता—माप या निशान लेने की अनुमति देने से इनकार करने पर आइपीसी की धारा 18 6 (सरकारी सेवक को दायित्व के निर्वहन में बाधा डालने) के तहत और आरोप जोड़े जाएंगे. कहा गया है कि महिलाओं या बच्चों के खिलाफ अपराध या न्यूनतम सात साल जेल की सजा वाले अपराध करने के आरोपी या गिरफ्तार व्यक्ति से जैविक नमूने जबरन लिए जा सकते हैं. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि—राजनैतिक विरोध-प्रदर्शन करने वाले या किसी अन्य राजनैतिक कारण से गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए लोगों पर इस कानून का प्रयोग नहीं किया जाएगा.
विपक्ष के कई नेता और जन अधिकार कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं और उन्होंने कानून को संसदीय स्थायी समिति के पास भेजने की मांग की है. लोकसभा में बहस के दौरान कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने इस कानून को 'तानाशाही और नागरिक स्वतंत्रता के खिलाफ' बताया. तिवारी की दलील है कि यह कानून अनुच्छेद 20, उप-अनुच्छेद 3 का उल्लंघन करता है जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि किसी आरोपी को अपने ही खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम का कहना है कि ब्रेन मैपिंग, लाइ डिटेक्टर टेस्ट या नार्को-एनालिसिस सरीखे परीक्षणों को इसके दायरे में शामिल करने से यह कानून 'असंवैधानिक' हो जाएगा. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दो ऐतिहासिक फैसलों का हवाला दिया—2010 का फैसला जो इन परीक्षणों को किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन मानता है, और 2017 का फैसला जिसमें निजता को मौलिक अधिकार करार दिया गया. तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को आशंका है कि इससे अधिकारों का उल्लघंन किया जाएगा, बसपा के दानिश अली इससे 'पुलिस राज' के खतरे की आशंका जताते हैं जिसमें यह कानून 'सियासी दुश्मनी साधने' का हथियार बन जाएगा.
कानून के विशेषज्ञों ने भी विधेयक पर आशंका जताई है. दिल्ली के वकील गौतम भाटिया कहते हैं, ''अब तक, गिरफ्तार करने की पुलिस की शक्ति का दुरुपयोग, और यहां तक भारत में निवारक नजरबंदी कानूनों का और भी अधिक दुरुपयोग सर्वविदित है. दुर्भाग्य कि यह बिल किसी भी गलत काम के लिए दोषी नहीं ठहराए गए व्यक्ति की निजता को भी राज्य की दया के भरोसे छोड़ देता है.'' कई अन्य लोग एकत्र किए गए आंकड़ों को 75 साल तक जमा रखने की क्षमता पर सवाल खड़ा करते हैं—एनसीपी की सांसद सुप्रिया सुले कहती हैं कि यह अनुच्छेद 21, भूल जाने के अधिकार जैसे एकदम नए अधिकार, और कैदियों के अधिकार का उल्लंघन है. निजता की पैरोकारी करने वालों को डर है कि बताए गए उद्देश्यों के अलावा अन्य कार्यों के लिए उन आंकड़ों का दुरुपयोग किया जा सकता है. किसी आपराधिक जांच के लिए व्यक्तिगत आंकड़े को एकत्र करना कहां एकदम जरूरी है, इसको लेकर यह कानून अस्पष्ट है. भारत में डेटा प्रोटेक्शन बिल अभी पारित नहीं हुआ है, ऐसे में साइबर सुरक्षा विश्लेषक इन प्रावधानों को अनियंत्रित निगरानी राज्य के संकेत के रूप में देखते हैं.
शाह ने इन आशंकाओं को निराधार बताते हुए कहा कि इन प्रावधानों को केवल 'संज्ञेय अपराधों' के मामलों में इस्तेमाल किया जाएगा, और ऐसे नियम बनेंगे ताकि इनका दुरुपयोग न हो. उन्होंने लोकसभा में कहा, ''अगली पीढ़ी के अपराधों से पुराने तकनीकों से नहीं निपटा जा सकता. हमें आपराधिक न्याय प्रणाली को निश्चित रूप से अगले दौर में ले जाना होगा.'' शाह ने उल्लेख किया कि हर साल 7,50,000 मामले सबूतों की कमी की वजह से अनसुलझे रह जाते हैं. उन्होंने कहा कि स्पष्ट फॉरेंसिक निशान जांच एजेंसियों को अपराधियों से आगे रहने में मदद करेंगे.
शाह को सदन में समर्थन भी मिला. जगन रेड्डी की वाइएसआरसीपी के सांसद मिधुन रेड्डी ने कहा कि 70 से ज्यादा देश ऐसे ही कानूनों पर निर्भर हैं. लेकिन वे यह आश्वासन चाहते हैं कि केंद्र इसका इस्तेमाल सियासी दुश्मनी निकालने और आंकड़ों के दुरुपयोग के लिए नहीं करेगा. सरकार अपने कड़े रुख पर गर्व करती है और यह तात्कालिक रूप से समस्या का सबसे कठिन हिस्सा है. किसी व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने वाला यह कानून यकीनन एक ऐतिहासक मोड़ है.
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