
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ चुनाव के नतीजे आ गए हैं. इस बार अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और महासचिव पद पर ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आईसा) और डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फ्रंट (डीएसएफ) के वाम गठबंधन ने जीत हासिल की है. संयुक्त सचिव का पद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के खाते में गया है.
इस नतीजे से यह माना जा रहा है कि जेएनयू में अभी भी वाम गठबंधन मजबूत है. मगर इस जीत में सबसे दिलचस्प कहानी वाम गठबंधन के नायक अध्यक्ष पद पर चुने गये नीतीश की है, जो बिहार के अररिया जिले के निवासी हैं. नीतीश की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा से जुड़े स्कूल सरस्वती विद्या मंदिर में हुई.
उनके चाचा नरपतगंज से भाजपा के विधायक हैं. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपनी स्नातक की पढ़ाई के दौरान वे पीएम मोदी के प्रशंसक थे. मगर जेएनयू में प्रवेश के बाद से उनकी विचारधारा बदलने लगी और अब वे आरएसएस-भाजपा और मोदी के विरोधी हैं और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी- मार्क्सवादी लेनिनवादी के छात्र संगठन आइसा के बड़े नेता हैं.
बिहार के अररिया जिले के एक छोटे से गांव कन्हैली से जेएनयू पहुंचे नीतीश का सफर बहुत रोचक हैं. कन्हैली नीतीश का ननिहाल है, उसका पैतृक घर अररिया जिले के ही भरगामा प्रखंड के शेखपुरा गांव में है. उनकी मां अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी, इसलिए उनके पिता अपने ससुराल में ही बस गये. उनके पिता प्रदीप कुमार यादव जो पेशे से किसान हैं और साथ ही एक वित्त रहित कॉलेज में पढ़ाते हैं, अपने इस मेधावी पुत्र को आईएएस बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने शुरुआत से ही अपने बेटे की पढ़ाई पर ध्यान दिया.
वे कहते हैं, “पहले नीतीश का नाम हमने फारबिसगंज शहर के एक कान्वेंट स्कूल में लिखवाया. वहां एक-दो साल पढ़ने के बाद नीतीश ने कहा कि यहां की पढ़ाई अच्छी नहीं है. ऐसे में हमने उसका एडमिशन सरस्वती विद्या मंदिर में करवा दिया. वहां उसने दसवी तक पढ़ाई की और मैट्रिक परीक्षा पास की.”
नीतीश ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूर्णिया कॉलेज, पूर्णिया से पूरी की और स्नातक की पढ़ाई के लिए वे बीएचयू चले गये. प्रदीप बताते हैं, “जब तक नीतीश बीएचयू में था, वह मोदी जी का समर्थक हुआ करता था. मोदी जी के कई कार्यक्रमों में भी वह शामिल होता था. उस वक्त तक उसका लक्ष्य आईएएस बनना ही था. मगर वह जेएनयू में गया तो उसका लक्ष्य भी बदल गया और उसकी सोच भी. अब हम उसे आईएएस बनने कहते हैं तो कहता है, मुझे किसी के अधीन होकर नौकरी नहीं करना. मेरे चचेरे भाई जयप्रकाश यादव भी राजनीति में हैं. वे नरपतगंज से विधायक हैं. मगर उन्होंने बिहार पुलिस के दारोगा की अपनी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद राजनीति में प्रवेश किया. राजनीति के लिए पैसे चाहिए. मेरे बेटे के पास पैसे कहां.”
प्रदीप जिन जयप्रकाश यादव का जिक्र करते हैं, वे भाजपा से नरपतगंज के विधायक हैं. वे भी अपने भतीजे की इस जीत पर काफी खुश हैं. इंडिया टुडे से बातचीत में वे कहते हैं, "नीतीश के घर का पुकारू नाम राजा है. उसकी जीत से हमलोग काफी खुश हैं. बचपन से वह पढ़ने-लिखने में काफी इंटेलिजेंट था. जहां तक विचारधारा की बात है, एक घर में बाप-बेटे की विचारधारा अलग-अलग होती है. उससे मुझे कोई दिक्कत नहीं. जो जिस वातावरण में रहता है, वहीं की विचारधारा में ढल जाता है. मेरे लिए खुशी की यही बात है कि जेएनयू जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्र संघ का वह अध्यक्ष चुना गया है."
हालांकि बाद में वे हंसते हुए कहते हैं, “राजनीति संभावनाओं का खेल है. अगर कन्हैया लेफ्ट की राजनीति से कांग्रेस में आ सकते हैं, तो मेरा भतीजा नीतीश भी आने वाले समय में हमारे साथ आ सकता है.”

नीतीश की इस राजनीतिक पृष्ठभूमि से उसके संगठन आइसा के नेता भी परिचित हैं. आइसा के राष्ट्रीय महासचिव प्रसेनजित कुमार कहते हैं, "यूनिवर्सिटी एक ऐसी जगह है, जहां इंसान नई चीजें सीखता है और कुछ चीजें भूल भी जाता है. जेएनयू के माहौल और छात्रों के साथ इस सरकार में होने वाली दिक्कतें हम सब की सोच पर असर डालती हैं. इसने नीतीश की सोच पर भी असर डाला होगा."
आइसा के नेता आगे यह भी कहते हैं, “पिछले चार-पांच साल से वह जेएनयू में है और हमारे साथ है. वह यूनिवर्सिटी कैंपस में होने वाले प्रशासनिक और वैचारिक हमलों को लेकर लगातार सक्रिय रहता है. वह काफी मजबूती से छात्रों के पक्ष की बात करता है और इसलिए वह छात्रों के बीच काफी पापुलर भी है. जाना-पहचाना नाम है. पिछले साल उसने स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस के काउंसलर का पद भी जीता था.”
नीतीश यह स्वीकार करते हैं कि शुरुआती दिनों में, खासकर 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त उनका झुकाव भाजपा और मोदी की तरफ था, मगर 2017 में जब वे बीएचयू में आये तब से उनका मोदी और भाजपा से मोहभंग होने लगा. वे कहते हैं, “बीएचयू में मुझे समझ आने लगा था कि ये डेवलपमेंट के नाम पर आये थे, मगर इनकी नीतियां सांप्रदायिक और विभाजनकारी हैं.
सितंबर, 2017 में बीएचयू में महिलाओं के साथ जो छेड़खानी हुई थी, उसके खिलाफ भी मैंने बढ़-चढ़कर भागीदारी की थी. 5 जनवरी, 2020 को परिषद के लोगों ने जेएनयू के लोगों के साथ मारपीट की थी, उस वक्त मैं जेएनयू के लड़ने की ताकत से प्रभावित हुआ और इसके खिलाफ जो प्रदर्शन बीएचयू में हुआ उसमें मैंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. कुल मिलाकर यह कि बीएचयू में भले मैं वाम छात्र संगठन का हिस्सा नहीं बना, मगर इस विचारधारा से प्रभावित होने लगा.”
दरअसल नीतीश जब 2021 में जेएनयू आए तब कोविड की वजह से कैंपस को बंद रखा गया था. हालांकि तब मॉल और दूसरे प्रतिष्ठान खुल रहे थे. कैंपस को दुबारा खुलवाने के लिए अक्तूबर, 2021 में छात्रों ने आंदोलन किया और इसी दौरान नीतीश की मुलाकात आइसा के साथियों से हुई. इसके बाद वे संगठन में शामिल हो गए और लगातार उसके आंदोलनों का हिस्सा बनते रहे.
आगे की योजना बताते हुए वे कहते हैं, “आज जेएनयू जिस दौर से गुजर रहा है, जिस तरह सरकार यूनिवर्सिटी को बर्बाद करने की कोशिश कर रही है, उस दौर में जेएनयू के साथ खड़े रहने की जरूरत है. बतौर जेएनयूएसयू प्रेसिडेंट इस लड़ाई को आगे बढ़ाने की जरूरत है.”