रेल विकास निगम लिमिटेड (आरवीएनएल) के बारे में सोचते ही दिमाग में सबसे पहले ग्रिड के लिए इस्तेमाल होने वाले बड़े आकार के बैटरी एनर्जी स्टोरेज सिस्टम और हिमालय की घाटियों में बनाए गए जलविद्युत संयंत्रों की तस्वीरें ही नहीं आतीं.
सार्वजनिक क्षेत्र की यह इंजीनियरिंग कंपनी, जो दशकों से भारत में लौह पटरियां बिछाने, पुलों और मेट्रो रेल के निर्माण में लगी है, अब उन्हीं लाइनों पर ट्रेनें चलाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा उत्पन्न करना चाहती है- या कम से कम उसे हासिल करना चाहती है. यह बड़ी महत्त्वाकांक्षा है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे हासिल नहीं किया जा सकता. और आखिरकार यह होना ही है.
भारतीय रेलवे को तेजी से कार्बन से छुटकारा पाना होगा. आरवीएनएल का मानना है कि उसके सिविल कार्यों की विशेषज्ञता का उपयोग जलाशयों, सौर पार्कों और उन बैटरी फार्मों के निर्माण में किया जा सकता है जो सूर्यास्त के बाद भी ग्रिड को सुचारू रखते हैं.
आरवीएनएल के निदेशक (परिचालन) एम.पी. सिंह कहते हैं, "हम बैटरी स्टोरेज के साथ सौर ऊर्जा स्थापित करने के अवसर तलाश रहे हैं क्योंकि भारतीय रेलवे का लक्ष्य 2030 तक नेट जीरो यानी कार्बनमुक्त बनना है और उसे लगभग 10,000 मेगावाट ट्रैक्शन पावर की जरूरत है. सुनिश्चित बिजली आपूर्ति के लिए बैटरी स्टोरेज के साथ सौर ऊर्जा उपयोगी है. भारतीय रेलवे ने भी संकेत दिया है कि उसका लक्ष्य 2030 तक कार्बन मुक्त बनना है और इसके लिए 10,000 मेगावॉट ट्रैक्शन पावर की जरूरत है."
सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध इस पीएसयू (सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम) का बाजार पूंजीकरण लगभग 78,000 करोड़ रुपये है और नेटवर्थ करीब 7,000 करोड़ रुपये है. अपने आकार और पहुंच के चलते अक्सर वह भारत में बुनियादी ढांचे पर खर्च के रुझान का इशारा देती है.
उसकी स्वच्छ ऊर्जा की महत्त्वाकांक्षा आज आरवीएनएल में लगभग हर बातचीत में शामिल होती है. लगभग पूरी ब्रॉड-गेज प्रणाली अब इलेक्ट्रिक ट्रेक्शन पर चलती है. फिर भी रेल नेटवर्क के पास 24 घंटे ग्रीन एनर्जी का भरोसेमंद स्रोत नहीं है. सिंह की दलील है कि बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों (बीईएसएस) के साथ मिलकर हाइब्रिड अक्षय ऊर्जा इस कमी को दूर कर सकती है और आरवीएनएल को राजस्व का नया अनुमानित स्रोत मुहैया करा सकती है.
कंपनी की योजना उस वास्तविकता पर आधारित है जिससे वह पहले से ही परिचित है. उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में आरवीएनएल छोटी जलविद्युत योजनाएं विकसित करना चाहती है. इसके लिए वह ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन पर अपने सुरंग निर्माण कौशल का इस्तेमाल करना चाह रही है.
सिंह कहते हैं, "हमारा लक्ष्य कार्यान्वयन का ठोस तौर-तरीका अपनाना है ताकि अनहोनी परिस्थितियां और दुर्घटनाएं न हों." वे हिमालय में उन 14 किलोमीटर लंबी सुरंगों का जिक्र करते हैं जिन्हें उनकी टीमों ने बिना किसी दुर्घटना के खोदा. लघु पनबिजली संयंत्र लोड आधारित स्थिर बिजली देते हैं और सूरज की रोशनी से भरपूर दोपहर और पश्चिमी तट पर तेज हवाओं वाली रातों के साथ उनका सही तालमेल होता है.
हालांकि लागत और नीति को लेकर अनिश्चितताएं बरकरार हैं. बैटरी की कीमतें गिर रही हैं, फिर भी वे ऊंची हैं और ग्रिड के सपोर्ट के लिए भंडारण को लाभप्रद बनाने वाले नियम भी अस्थिर बने हुए हैं. मजबूत बैलेंस शीट वाली निजी यूटिलिटी कंपनियों ने पहले ही भारत की सोलर-प्लस बैटरी योजनाओं का बड़ा हिस्सा हथिया लिया है.
आरवीएनएल जवाब में कहती है कि उसका सबसे बड़ा ग्राहक रेलवे है जो बहुत विशाल और साखदार है जिससे बाजार जोखिम सीमित हैं. सिंह कहते हैं, "यह नया क्षेत्र है. हम अक्षय बिजली के क्षेत्र में अपनी अच्छी उपस्थिति चाहते हैं." उन्होंने बताया कि शुरू की परियोजनाएं निजी उपयोग के लिए हो सकती हैं और राज्य की वितरण कंपनियों के साथ टैरिफ विवादों के झंझट से मुक्त रह सकती हैं.
विदेश में भी आरवीएनएल संयुक्त उद्यमों के जरिए अपनी पहचान बना रही है. उज्बेकिस्तान में 320 मेगावॉट का सोलर स्टेशन और सऊदी अरब में 400 मेगावॉट का संयंत्र लगभग पूरा होने को हैं. इन साझेदारियों से उसे वह विशेषज्ञता मिलती है जिनके बारे में कंपनी मानती है कि उसके पास कमी है. देश में वह पवन ऊर्जा फार्मों के लिए टरबाइन की नींव और निकासी लाइनें बनाने की बोली लगा रही है, यह उसके लिए पूरी तरह सुविधाजनक है, भले ही कोई दूसरी कंपनी टावर बनाए. सिंह के पोर्टफोलियो में सबसे आकर्षक विचार परमाणु ऊर्जा का है. वे कहते हैं, "हम रूसी कंपनी रोसाटॉम के साथ गठजोड़ की कोशिश कर रहे हैं. रूसी इसमें विशेषज्ञ हैं. इसलिए हम उनके साथ किसी तरह का सहमति करार (एमओयू) करने जा रहे हैं."
सिंह के मुताबिक 55-60 मेगावॉट की उन छोटी इकाइयों के लिए "24 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं चाहिए" जो इतनी छोटी हैं कि रेलवे के पास मौजूद अतिरिक्त जमीन में भी लग सकती हैं और इससे आरवीएनएल लंबी ट्रांसमिशन लाइनों की लागत और सिरदर्द से बच जाती है. लेकिन भारत का परमाणु नियामक और स्थानीय समुदाय इस अवधारणा को अपनाते हैं या नहीं, यह बड़ा सवाल है.
भारत के विभिन्न जलवायु लक्ष्यों के लिए अधिक से अधिक ऐसी कंपनियों की जरूरत होगी जो स्वच्छ ऊर्जा में अवसरों की पहचान करें और लाभ के लिए औद्योगिक स्तर पर कोयले से स्वच्छ ऊर्जा के स्रोतों की ओर बदलाव को आसान बनाएं. वित्तीय रूप से यह अहम बदलाव पहले से ही नजर आ रहा है.
पुराने रेल अनुबंध अभी भी कंपनी की ऑर्डर बुक के लगभग आधे हिस्से के बराबर हैं जो लगभग 1 लाख करोड़ रुपये है. फिर भी प्रतिस्पर्धी बोली वाली गैर-रेल परियोजनाओं का कारोबार तेजी से बढ़ा है और तीन वर्षों के भीतर इसका हिस्सा ज्यादा हो सकता है. विविधीकरण से आरवीएनएल सार्वजनिक निर्माण खर्च की अनिश्चितताओं से बची रह सकती है. लेकिन इससे परियोजनाओं के प्रबंधन की उसकी क्षमता का भी पता चलेगा जिनमें लागत पर लाभ की सुविधा के बजाय व्यापारिक जोखिम शामिल हैं.
अगर दिग्गज आरवीएनएल निर्माण कौशल को बिजली क्षेत्र की कुशलता के साथ जोड़ देगी तो उसकी भविष्य की बैलेंस शीट न केवल ट्रैक के किलोमीटर में बल्कि मेगावॉट और संग्रहित मेगावॉट-घंटों में भी देखी जा सकती है.