
31 दिसंबर 1999 की बात है. दिल्ली से करीब 4300 किलोमीटर दूर रूस की राजधानी मॉस्को में राजनीतिक गहमागहमी का माहौल था. इसकी वजह रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन का अचानक टीवी पर आकर इस्तीफा देना था.
भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के इस्तीफा देते ही तब के प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति बन गए. फिर 5 महीने बाद मई 2000 में रूस में राष्ट्रपति पद का चुनाव हुआ.
7 मई 2000 को पहली बार चुनाव जीतकर व्लादिमीर पुतिन ने रूस के राष्ट्रपति पद की शपथ ली. करीब 5 महीने बाद अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति के तौर पर पुतिन पहली बार भारत के दौरे पर आए थे. यहां आने से पहले उन्होंने इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार राज चेंगप्पा (अब ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर) को दिए इंटरव्यू में भारत को अपना सबसे अच्छा दोस्त बताया था.
राज चेंगप्पा के एक सवाल के जवाब में राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था- “जब मैंने कहा था कि मैं रूस में भारत का सबसे अच्छा दोस्त हूं, तब मेरे कहने का मतलब यह था कि रूस में भारत के कई दोस्त हैं और मैं उनमें से एक हूं. मगर मैं जिस पद पर हूं, उसके चलते मैं कई मायने में भारत का खास दोस्त हूं.”
अब इस दौरे के करीब 25 साल बाद पुतिन 4-5 दिसंबर को फिर भारत आने वाले हैं. ऐसे में इंडिया टुडे की आर्काइव स्टोरी के जरिए बतौर राष्ट्रपति पुतिन के पहले भारतीय दौरे की कहानी जानते हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे के ठीक बाद पहली बार भारत आए थे राष्ट्रपति पुतिन
साल 2000 का अक्टूबर महीना भारत के विदेश मंत्रालय के लिए काफी व्यस्तता का दौर था. बीते एक दशक से जो स्थितियां पैदा करने की कोशिश चल रही थीं, वे पुतिन के राष्ट्रपति बनने के बाद छह महीने में ही बन आई थीं.
मार्च के बाद भारत और अमेरिका के शासनाध्यक्षों के एक-दूसरे के देश में सिर्फ दौरे ही नहीं हुए, बल्कि इस बीच दिल्ली ने जापान, ऑस्ट्रेलिया और नेपाल के प्रधानमंत्रियों की भी दिल्ली ने मेजबानी की थी.
ऐसा लग रहा था मानो भारत का महत्व अचानक दुनिया के लिए बढ़ गया हो. हालांकि, इतने सारे राष्ट्राध्यक्षों के भारत दौरे के बीच भारतीय विदेश मंत्रालय के कर्ताधर्ता 2 अक्टूबर से शुरू होने वाले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के चार दिवसीय दौरे को लेकर हड़बड़ाहट में नहीं दिख रहे थे.
तब कई लोग ये सवाल भी उठा रहे थे कि क्या अब भी रूस कुछ मायने रखता है? आखिर, महाशक्ति होने का रूस का दावा अब शरद ऋतु में मास्को में छाई रहने वाली धुंध से ज्यादा कुछ नहीं लगता था. ये 1990 के दशक के बाद का वो वक्त था, जब सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की GDP आधी हो चुकी थी.

तब रूस की GDP अमेरिका के दसवें और चीन के पांचवें हिस्से के बराबर थी. किसी औसत रूसी की वार्षिक आय उस वक्त किसी अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी नागरिक से पांच गुना कम थी. हालांकि तब भी यह किसी भारतीय की आय से दस गुना ज्यादा थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात की कोई खास अहमियत नहीं थी.
आर्थिक दृष्टि से देखें तो रूस अब तीसरी दुनिया का हिस्सा बन चुका था. पुतिन को यह अहसास था और भारत समेत बाकी दुनिया के देश भी इससे अनजान नहीं थे. शायद यह भी एक वजह थी कि राष्ट्रपति पुतिन के दौरे को लेकर तब वैसी गहमागहमी नहीं थी, जैसी कुछ महीने पहले हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दौरे को लेकर चल रही थी.
भारत के विदेश मंत्रालय ने रूसी राष्ट्रपति के दौरे पर क्या कहा था?
पुतिन के भारत दौरे से पहले भारतीय विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा था, “ दोनों देशों के बीच होने वाले घोषणापत्र से उन शिकायती लोगों का मुंह बंद हो जाएगा, जो सवाल उठाते रहते हैं कि भारत से रूस के रिश्ते कैसे हैं?''
इसके साथ ही विदेश मंत्रालय के अधिकारी ने यह भी कहा कि ताजा घोषणा 1977 की भारत-रूस मित्रता संधि से अलग किस्म की है. उस संधि में भारत का रुख मॉस्को की ओर साफ-साफ झुका हुआ था. उसके तहत सोवियत संघ भारत को सामरिक सुरक्षा, परमाणु सुरक्षा मुहैया कराता था, लेकिन अब उन पुराने दिनों की वापसी हम दोनों में से कोई नहीं चाहता.
1993 में ही बोरिस येल्तसिन ने रूस को भारत का “स्वाभाविक सहयोगी” बताया था. उस समय येल्तसिन ने जिस संधि पर दस्तखत किए, उसमें सामरिक सहयोग की बात का जिक्र नहीं था.
अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति पुतिन और वाजपेयी जिस संधि पर हस्ताक्षर करने जा रहे थे, उसे भारत और रूस के संबंधों में एक महत्वपूर्ण दौर की शुरुआत माना जा रहा था. दौरे से पहले भारत में रूस के राजदूत अलेक्जेंडर कदाकिन ने दिल्ली के एक सेमिनार में पुतिन की यात्रा को दोनों देशों के बीच एक “नए रिश्ते” की शुरुआत बताया था.
संतुलन साधने के खेल में अब माहिर हो गया था भारत
सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत-रूस के रिश्ते ठंडे पड़ गए थे. तब नया रूस खुद को यूरोपीय ताकत समझ रहा था और अपने आर्थिक दुख-दर्दों से मुक्ति के लिए पश्चिमी देशों की ओर ताक रहा था. उसने भारत समेत तीसरी दुनिया के अपने सहयोगियों की तरफ पीठ कर ली थी. वजहें कुछ और भी थीं.
नकदी के संकट से लस्तपस्त रूस खुलकर यह मांग कर रहा था कि भारत वर्षों से रुपए में अपने बकाया-कुल 32,000 करोड़ रुपया का विदेशी मुद्रा में भुगतान करे. रूस की ओर से यह दबाव तब आया था, जब भारत के विदेशी मुद्रा भंडार की हालत खराब थी. इसके चलते भी दोनों देशों के बीच व्यापार काफी गिर गया.
1990 के दशक के मध्य तक रूस का पश्चिम से मोहभंग हो गया, क्योंकि वादे के अनुरूप निवेश नहीं हो सका और रूसी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता हो गई. तब मास्को में ओरिएंटल स्टडीज इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर सर्जेई लोउनेव ने ये स्वीकार करते हुए कहा था, ''शुरू में रूस ने पश्चिम की ओर रुख करके भारत समेत एशियाई देशों के साथ अपने सभी राजनयिक संबंधों को ठंडे बस्ते में डालकर अनाड़ीपन दिखाया था. हमें जल्दी ही एहसास हो गया कि यह बड़ी भूल थी.''
जब येल्तसिन सत्ता में आए तो उनकी अगुआई में रूस ने नए सिरे से अपनी विदेश नीति को धार देना शुरू की. इसका मूल तत्व था, अमेरिकी एकाधिकारवाद के खिलाफ एक एशियाई जवाबी ताकत का निर्माण किया जाए, इसलिए उसने चीन से भी अपने रिश्ते मजबूत किए.

वह भारत की अमेरिका से करीबी बढ़ाने को कोशिशों से भी नाराज नहीं हुआ. इस तरह कूटनीति के नए खेल में भारत का महत्व बढ़ गया. अब अमेरिका से संबंध बढ़ाने का मतलब रूस से संबंधों में खटास आना नहीं था.
भारत ने रूस से ऐसे समझौते करने आग्रह किया, जिससे दोनों के मजबूत रिश्ते पुनर्जीवित हो सकें. संतुलन साधने के इस खेल में भारत अब तेजी से माहिर होता जा रहा था. वैसे, रूस ने 1998 में रूस, चीन और भारत के बीच एक रणनीतिक समझौते का संकेत जरूर दिया था, जब बीमार येल्तसिन की जगह प्रधानमंत्री येवगेनी प्रीमाकोव भारत के दौरे पर आए थे.
इस पर चीन का रुख ठंडा रहा, क्योंकि वह द्विपक्षीय समझौतों में ज्यादा यकीन करता है. भारत भी उसके प्रति बहुत इच्छुक नहीं था. तब रूसी राजदूत कदाकिन ने कहा था, ''हम कूटनयिक रिश्तों में त्रकोणीय और पंचकोणीय संबंधों के खिलाफ हैं.''
'भारत-रूस रणनीतिक साझेदारी' के जरिए पुतिन ने दोनों देशों के संबंधों को दी थी धार
अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति पुतिन पहले भारत दौरा के समय दोनों देशों के नेता ने 'भारत-रूस रणनीतिक साझेदारी' के ऐतिहासिक दस्तावेज पर दस्तखत किए. इसके मुताबिक, पहली बार दोनों देशों के बीच राष्ट्रध्यक्ष के स्तर पर संबंधों को बढ़ावा देने की बात पर सहमति बनी.
इसके अलावा आर्थिक और व्यापारिक मामले में किसी फैसले से पहले दोनों देशों के बीच आधिकारिक स्तर की कमेटी बनाने की बात पर सहमति बनी. रक्षा और विज्ञान से जुड़े मुद्दे पर भी मिलकर काम करने और टेक्नोलॉजी शेयर करने की बात कही गई थी. राष्ट्रपति पुतिन के भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए, उसमें रक्षा का एक ठोस मुद्दा भी शामिल था.
1998 में अमेरिका परमाणु परीक्षणों के बाद लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों को अब भी खत्म करने को इच्छुक नहीं था, इसलिए भारत अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों, टैंकों और निगरानी उपकरणों के लिए रूस पर निर्भर होने लगा था.
इस दौरे में सूचना प्रौद्योगिकी जैसे कुछ क्षेत्रों के साथ ही निजी निवेश खासकर संयुक्त उपक्रम लगाने के मुद्दे पर भी बात हुई थी. अपने भारत यात्रा से पहले इंडिया टुडे को राष्ट्रपति पुतिन ने बताया था, “हम दोनों देशों के बीच जो समझौते हो रहे हैं, वो कई मायनों में 1971 के समझौते से आगे की चीज होगी. मगर यह ध्यान भी रखना होगा कि दुनिया बदल चुकी है. रूस बदल चुका है और इसके साथ ही हमारी कुछ प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं. ये बातें बेशक उस समझौते में प्रतिबिंबित होंगी, जिस पर हम हस्ताक्षर करने जा रहे हैं. हमें उम्मीद है कि इस समझौते की नींव पर हम भविष्य में संबंध बनाएंगे.”

