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संविधान से 'समाजवादी' शब्द को हटाना चाहता है RSS! लेकिन बीजेपी क्या सोच रही है?

25 जून को RSS ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ मनाई. इस मौके पर संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि 'समाजवादी और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द कभी भी मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे

(बाएं) आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और (दाएं) पीएम नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)
(बाएं) आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और (दाएं) पीएम नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)
अपडेटेड 9 जुलाई , 2025

इन सब बातों की शुरुआत न तो संसद के किसी सत्र में हुई और न ही चुनावी सरगर्मियों के बीच किसी रैली में, बल्कि इसकी शुरुआत नागपुर में एक स्मृति कार्यक्रम में हुई. 25 जून को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ मनाई. साल 1975 में इसी दिन तब की इंदिरा गांधी सरकार ने देश भर में इमरजेंसी की घोषणा की थी.

इस कार्यक्रम में स्वयंसेवकों के अलावा लेखक, रिटायर्ड अफसर और सांस्कृतिक विचारक भी मौजूद थे. RSS के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने मंच से लोगों को संबोधित किया. उन्होंने याद दिलाया कि जब 21 महीने तक लोकतंत्र ठप रहा, तब भारत के संविधान की आत्मा के साथ किस तरह छेड़छाड़ की गई. इस बीच उन्होंने एक बड़ा सवाल उठाया.

होसबाले ने कहा, "समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द कभी भी डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान सभा द्वारा बनाए गए मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे. ये आपातकाल के दौरान जोड़े गए, जब नागरिक स्वतंत्रताएं कुचल दी गई थीं. क्या अब हमें इस पर चर्चा नहीं करनी चाहिए कि क्या ये शब्द आज भी देश की असली भावना को दिखाते हैं?"

कुछ राजनीतिक जानकारों का मानना है कि 'समाजवादी' शब्द संविधान में इसलिए जोड़ा गया था ताकि इंदिरा गांधी जनता के बीच अपनी समाजवादी और गरीबों के पक्ष में छवि को मजबूत कर सकें. उस वक्त उन्होंने "गरीबी हटाओ" जैसे नारे दिए थे. आपातकाल के दौरान उनकी सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द इसलिए जोड़ा, ताकि यह दिखाया जा सके कि समाजवाद भारत का लक्ष्य और सोच है.

RSS का मानना रहा है कि इंदिरा गांधी का समाजवाद उस समय के सोवियत संघ (रूस) या चीन के समाजवाद जैसा था, जिसमें देश के सभी उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण (सरकारी नियंत्रण) किया गया. यह सोच RSS की विचारधारा और आर्थिक नजरिए से बिल्कुल उलट है.

होसबाले ने यह बात यूं ही नहीं कही. यूं भी संघ परिवार में खुले तौर पर कही गई बातें बहुत सोच-समझकर होती हैं. यह मौका आपातकाल की याद में रखा गया कार्यक्रम था, जो वैचारिक रूप से बहुत प्रतीकात्मक था. प्रोग्राम का स्थान नागपुर था, जो RSS का वैचारिक केंद्र माना जाता है. और राजनीतिक माहौल भी कम अहम नहीं था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) लगातार तीसरी बार सत्ता में है, हालांकि इस बार सीटें कम हैं और गठबंधन पर ज्यादा निर्भरता है.

2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार में RSS ने आम तौर पर दिखने वाली सक्रियता नहीं दिखाई थी. लेकिन अब, सरकार बने एक साल हो चुका है, और संघ ने तय किया है कि वह अब चर्चा की दिशा तय करेगा और सरकार व संगठन दोनों के लिए एक रास्ता बनाएगा. उसका चुना हुआ टारगेट क्या है? वही शब्द जो इंदिरा गांधी ने 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए प्रस्तावना में जोड़े थे.

इसके बाद प्रतिक्रियाएं आईं - संयमित, लेकिन साफ. कुछ दिन बाद ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, "होसबाले जी ने जो कहा वह ऐतिहासिक रूप से सही है. 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे, बिना किसी पूरी लोकतांत्रिक बहस के. आज के समय में इस पर दोबारा सोचने की जरूरत है."

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा, "भारत की आत्मा हमेशा से ही पंथनिरपेक्ष रही है, ऐसे लेबल्स की जरूरत ही नहीं थी. हमारी सभ्यतागत संस्कृति इन शब्दों से कहीं ज्यादा समावेशी है."

लेकिन सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. न तो कोई संविधान संशोधन प्रस्तावित किया गया और न ही संसद में इस पर कोई बहस शुरू की गई. बीजेपी की रणनीति चुप रहने की रही. RSS ने विचार सामने रखा, लेकिन बीजेपी ने उस पर कोई कदम नहीं उठाया.

यह कोई नई बात नहीं है. आज की बीजेपी कई पुराने समाजवादी नेताओं के प्रभाव से आगे निकल चुकी है और उसने नए इलाकों और वर्गों में अपनी पकड़ बना ली है. इससे पार्टी को अपनी छवि बदलने में मदद मिली और वह समाजवादी दलों के साथ गठबंधन करने में भी माहिर हो गई. जनता दल के बिखराव के बाद उसके कई नेता धीरे-धीरे बीजेपी में शामिल हो गए, जिससे पार्टी को कर्नाटक, गुजरात, हरियाणा और बिहार में विस्तार मिला और उत्तर प्रदेश में फिर से मजबूती मिली.

'समाजवाद' शब्द के साथ बीजेपी का रिश्ता हमेशा थोड़ा टकराव वाला रहा है. जब अप्रैल 1980 में दिल्ली में पार्टी की स्थापना हुई, तो यह जनता पार्टी के बिखरने के बाद बनी थी. इसके नेताओं - अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नानाजी देशमुख - ने इसका नाम फिर से 'भारतीय जनसंघ' नहीं रखा, बल्कि नया नाम 'भारतीय जनता पार्टी' चुना. इसका मकसद था आपातकाल के बाद के माहौल को ध्यान में रखते हुए मध्यम वर्ग के बड़े तबके को अपने पाले में करना. इसी सोच के तहत उन्होंने 'गांधीवादी समाजवाद' को पार्टी की मार्गदर्शक विचारधारा के रूप में अपनाया.

इस सिलसिले में जयप्रकाश नारायण की तस्वीर जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तस्वीरों के साथ लगाई गई. लेकिन 'गांधीवादी समाजवाद' का विचार सभी को सहज नहीं लगा. राजमाता विजयराजे सिंधिया और कई RSS स्वयंसेवकों ने इसकी खुलकर आलोचना की. उनके लिए यह विचारधारात्मक समझौते जैसा था.

असल में RSS की बौद्धिक परंपरा में 'समाजवाद' को एक पश्चिमी सोच माना जाता है, जो भारत के धर्म, विकेंद्रीकरण और परिवार-आधारित कल्याण जैसी सभ्यतागत मूल्यों के खिलाफ है.

1984 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को करारी हार मिली, जिसमें उसे सिर्फ दो सीटें आईं. इसने पार्टी को दोबारा सोचने पर मजबूर किया. इसके बाद 'गांधीवादी समाजवाद' को पार्टी के दस्तावेजों और विचारधारा से हटा दिया गया. बीजेपी ने अपनी सोच को फिर से परिभाषित करना शुरू किया और अब वो पंडित दीनदयाल उपाध्याय के 1960 के दशक में दिए गए 'एकात्म मानववाद' और 'अंत्योदय' जैसे दर्शन के आधार पर आगे बढ़ने लगी.

RSS के एक और प्रचारक, दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इस विचार को और गहराई दी. अपनी किताब 'थर्ड वे' (तीसरा रास्ता) में उन्होंने पूंजीवाद और समाजवाद दोनों को पूरी तरह खारिज कर दिया और एक अलग भारतीयता से भरे रास्ते की वकालत की, जो आध्यात्मिक अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भर समुदायों पर आधारित हो. यह सोच संघ के लिए अनुकूल थी, यह वर्ग आधारित नहीं, बल्कि सभ्यतामूलक थी; विचारधारात्मक नहीं, बल्कि नैतिक थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से बीजेपी को इस सोच को एक आधुनिक और प्रबंधन आधारित रूप में ढालने का मौका मिला. अब 'समाजवाद' जैसे पुराने ढांचे की जगह 'गरीब कल्याण' जैसे शब्दों ने ले ली. उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी बड़ी कल्याणकारी योजनाएं डिजिटल तकनीक की मदद से चलाई गईं. लाभ सीधे लोगों तक 'JAM' ट्रिनिटी - जन धन खाते, आधार पहचान और मोबाइल कनेक्टिविटी - के जरिए पहुंचाए गए.

पुनर्वितरण (यानी संसाधनों का दोबारा बंटवारा) तो हुआ, लेकिन इसे वर्ग संघर्ष के रूप में नहीं, बल्कि सशक्तीकरण के रूप में पेश किया गया. मोदी का मॉडल लोगों को सिर्फ मदद नहीं, बल्कि सम्मान और आत्मनिर्भरता देने का वादा करता है.

इन योजनाओं की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि इन्होंने पुनर्वितरण (संसाधनों के बंटवारे) के काम को 'समाजवाद' जैसे शब्दों से अलग कर दिया. 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' एक ऐसा नारा बना जो किसी विचारधारात्मक बोझ के बिना नैतिक ताकत रखता था. यह नारा दलितों, आदिवासियों, ओबीसी और महत्वाकांक्षी मध्यम वर्ग तक एक साथ पहुंचा - बिना नेहरू या कार्ल मार्क्स का नाम लिए.

बीजेपी की सोच में अब 'समाजवाद' का मतलब मार्क्सवादियों की तरह वर्ग संघर्ष नहीं है. यही बात उसे आज की जातिगत जनगणना की बहस में बाकी दलों से अलग करती है. जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टियां, जैसे जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और अब कांग्रेस भी यह कह रही हैं कि "जिसकी जितनी आबादी, उतना हक", यानी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण मिले और जाति जनगणना कराई जाए.

वहीं दूसरी ओर, बीजेपी सबको साथ लेकर चलने की बात कर रही है. इस तरह, नीति और राजनीति दोनों में वह पुराने समाजवादी सोच को बेमानी बना रही है.

इसी वजह से अब RSS एक सीधा सवाल उठा रहा है - जब बीजेपी ने व्यवहार में समाजवाद को बहुत पहले ही छोड़ दिया है, तो फिर उसके साये को संविधान की प्रस्तावना में क्यों बनाए रखा जाए? जो शब्द संविधान के 'अंधकार युग' (आपातकाल) में जोड़ा गया, वो आज भी भारतीय संविधान में क्यों बना हुआ है?

RSS के नजरिए से यह सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है. यह उस विचारधारात्मक विकृति (तोड़फोड़) को हटाने की कोशिश है, जो उस दौर में थोपी गई थी जब देश में राजनीतिक दबाव और तानाशाही जैसा माहौल था.

लेकिन बीजेपी के लिए हिसाब सीधा नहीं है. संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' या 'पंथनिरपेक्ष' शब्द हटाने के लिए संविधान संशोधन करना पड़ेगा, और ऐसा करने पर तेज विरोध और न्यायिक जांच हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट कई बार यह कह चुका है कि संविधान की "मूल संरचना" को नहीं बदला जा सकता, और उसने कई मामलों में प्रस्तावना में दिए गए 'समाजवादी' शब्द का सहारा लेकर आरक्षण, मजदूर अधिकारों और पर्यावरण सुरक्षा जैसे फैसले सुनाए हैं. अगर इन शब्दों को बदलने की कोशिश की गई, तो यह मामला कानूनी विवादों और भारी बहस को जन्म दे सकता है.

इसका एक राजनीतिक नुकसान भी हो सकता है. कई मतदाताओं के लिए, खासकर गांव के गरीब लोगों, SC/ST समुदाय और OBC वर्ग के लोगों के लिए 'समाजवाद' का मतलब मार्क्सवादी विचारधारा नहीं, बल्कि सरकारी मदद होता है, जैसे कि सब्सिडी, पेंशन, आरक्षण और कल्याणकारी योजनाएं.

ये वोटर मोदी पर कांग्रेस से ज्यादा भरोसा करते हैं, लेकिन वे अब भी सरकार से आर्थिक न्याय की उम्मीद रखते हैं. अगर संविधान से 'समाजवादी' शब्द हटा दिया गया, तो यह तबके नाराज हो सकते हैं. इसकी संभावना तब और ज्यादा है जब बीजेपी शहरी मध्य वर्ग और सवर्णों से आगे बढ़कर समाज के अन्य वर्गों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है.

यही वजह है कि बीजेपी रणनीतिक रूप से चुप्पी साधे हुए है. RSS को माहौल परखने दिया गया है. जो मंत्री संघ के विचारों से सहमत हैं, वे इशारों में समर्थन दे रहे हैं. लेकिन पार्टी ने न कोई वादा किया, न कोई कानून लाई, न ही कोई टकराव मोल लिया.

फिर भी, चर्चा शुरू हो चुकी है. होसबाले की बातें भले ही इस संसद में या अगली में कानून न बनें, लेकिन उन्होंने संविधान में अब तक बनी हुई नेहरू की सोच को एक वैचारिक चुनौती जरूर दी है. और संघ परिवार की दुनिया में ऐसी चुनौतियां आसानी से खत्म नहीं होतीं. ये रुकती हैं, इंतजार करती हैं और फिर वापस लौटती हैं. कभी-कभी तो ये देश की दिशा और कहानी ही बदल देती हैं.

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