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टाटा ग्रुप के क्षत्रपों से भिड़कर रतन टाटा के चेयरमैन बनने की कहानी

जीवन में क़रीब 9 दशक गुजरते देखने वाले और जेन-ज़ी युग में ज़ोरदार तरीक़े से रील में वायरल रतन टाटा नहीं रहे. उन्हें ब्लड प्रेशर में गिरावट के बाद मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्होंने 86 साल की उम्र में आख़िरी सांस ली

टाटा ग्रुप और ट्रस्ट के मानद चेयरमैन रतन टाटा का निधन
टाटा ग्रुप और ट्रस्ट के मानद चेयरमैन रतन टाटा का निधन
अपडेटेड 10 अक्टूबर , 2024

1962 का साल है. न्यूयॉर्क से इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर में बैचलर डिग्री हासिल कर एक लड़का भारत लौटा है और उसे इंटरनेशनल बिज़नेस मशीन्स यानी IBM नाम की मल्टीनेशनल IT कंपनी से जॉब ऑफर मिल गया है. लेकिन लड़के के चाचा राज़ी नहीं हैं. कहते हैं कि भारत में ही रहकर तुम IBM में नौकरी नहीं कर सकते. अपनी सीवी मुझे दे दो. लड़का एक इलेक्ट्रिक टाइपराइटर पर बैठता है और फ़ौरन एक सीवी छाप कर दे देता है. लड़के का चाचा उसे टाटा इंडस्ट्रीज़ में असिस्टेंट की नौकरी पर रखवा देता है. लड़के का नाम रतन नवल टाटा और चाचा का नाम हुआ जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी JRD टाटा.

रतन टाटा नहीं रहे. अपने जीवन में क़रीब 9 दशक गुजरते देखने वाले और जेन-ज़ी युग में ज़ोरदार तरीक़े से रील में वायरल रतन टाटा की तबीयत ख़राब चल रही थी. उन्हें ब्लड प्रेशर में गिरावट के बाद मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्होंने 86 साल की उम्र में आख़िरी सांस ली. रतन टाटा और पालतू जानवरों से उनका लगाव अब इतिहास में दर्ज कहानी हो चुकी है.

रतन टाटा की निजी जिंदगी से जुड़े ऐसे भी पहलू हैं जो उनके बरगद जैसे पसरे कारोबार की छांव में कम ही सामने आ पाते हैं. इंडिया टुडे मैगज़ीन में अलग-अलग वक़्त पर छपी उनकी कहानी क्या बताती है? ये भी कि जब JRD टाटा के उत्तराधिकारी की तलाश चल रही थी तो आख़िर क्यों रेस में सबसे आगे रतन टाटा ही थे. उनकी नैनो कार वाली कहानी. कहानी जर्मन शेफर्ड के साथ उनके दिलचस्प लगाव की. कहानी उनकी नीली शर्ट और भूरे शेड वाले कोट-टाई की.

शुरू से शुरू करते हैं. टाटा समूह की नींव रखने वाले थे नुसीरवानजी टाटा. इनके बेटे का नाम था जमशेदजी एन. टाटा. जमशेदजी के एक बेटे हुए सर रतन टाटा. इनके लड़के थे नवल एच. टाटा. नवल और सूनू की शादी हुई. दोनों ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया रतन एन. टाटा. वही रतन टाटा जो अब नहीं रहे.

1937 में जन्मे रतन 1955 में न्यूयॉर्क की कॉरनेल यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने चले गए. 7 बरस खर्च कर इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर की बैचलर डिग्री हासिल कर अपने देश भारत लौटे. यहां आए तो उन्हें कुछ कंपनियों से काम करने का ऑफर मिला. इन्हीं में एक कंपनी थी IBM जिसकी कहानी आपने ऊपर पढ़ी. कुल जमा बात ये कि 1962 में भारत लौटकर रतन ने टाटा ग्रुप ज्वाइन कर लिया. उन्होंने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी, जिसे अब टाटा मोटर्स कहते हैं के जमशेदपुर प्लांट में छह महीने ट्रेनिंग भी ली. यहां ट्रेनिंग पूरी हुई तो टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी यानी टिस्को में ट्रेनिंग के लिए ट्रांसफर कर हो गया. और फिर टिस्को में ही 1965 में इंजीनियरिंग डिविजन के टेक्निकल ऑफिसर बन गए.

अलग-अलग सालों में अलग-अलग पदों पर रहकर वो टाटा के लिए काम करते रह गए. इस कंपनी में वो एक कर्मचारी की हैसियत से तब तक काम करते रहे जब तक कि उन्हें टाटा की एक लगाम नहीं मिल गई. और ये साल था 1981, जब उन्हें टाटा इंडस्ट्रीज का चेयरमैन बनाया गया. क़रीब एक दशक तक ये जिम्मा संभालने के बाद 25 मार्च, 1991 को उन्होंने JRD टाटा की जगह ली और टाटा सन्स और टाटा ट्रस्ट के चेयरमैन बना दिए गए. लेकिन ये कुर्सी मिलना इतना आसान था?

JRD टाटा के साथ रतन टाटा
JRD टाटा के साथ रतन टाटा

जवाब है नहीं. टाटा एक ऐसा ग्रुप था जहां अलग-अलग कंपनियां काम कर रही थीं. इन कंपनियों के डायरेक्टर्स थे. और उस वक़्त तक सेंट्रल को-ऑर्डिनेशन का कोई फंक्शन असरदार नहीं था.

इंडिया टुडे मैगज़ीन के 15 अक्टूबर, 1988 के अंक में एम. रहमान अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, “कई महीनों से टाटा समूह में फेरबदल होने की चर्चा है. समूह की कंपनियों में से एक का प्रभावशाली प्रमुख तो अपना पद छोड़ रहा है. दूसरे ने अपने वरिष्ठ साथी का काम न पा सकने की ख़बरें आते ही कुछ महीने पहले अवकाश लेने की इच्छा जाहिर की और तीसरा उसी कंपनी का अध्यक्ष बनने जा रहा है जिसका वह प्रबंध निदेशक है. टाटा समूह के कई निदेशक एक मजबूत केंद्रीय संगठन की जरूरत महसूस करते हैं. मजबूत प्रबंधकों की अगुआई वाली कई कंपनियों के इस ढीले-ढाले समूह में यह सब एक युग के समाप्त होने का संकेत है.”

इसी रिपोर्ट में JRD टाटा के साथ हुई बातचीत छपी मिलती है. एम. रहमान जब JRD से टाटा सन्स के अध्यक्ष पर उनकी राय पूछते हैं तो वो कहते हैं, “जब मैं अवकाश लूंगा तो नए अध्यक्ष का फैसला मैं नहीं निदेशक मंडल करेगा. मुझे लगता है अध्यक्ष के मामले में टाटा उपनाम वाले व्यक्ति को ज्यादा सुविधा रहेगी. यही कारण है कि अख़बार वाले रतन टाटा को मेरा उत्तराधिकारी बताने लगे हैं.”

लेकिन एम. रहमान 15 अक्टूबर, 1988 की ही रिपोर्ट में इस बात को दर्ज करते हैं, “कुछ वर्ष पहले जब रतन टाटा को इस समूह की प्रमुख कंपनी टाटा इंडस्ट्रीज का अध्यक्ष बनाया गया था तभी यह माना जाने लगा था कि वे जेआरडी के उत्तराधिकारी हैं.”

JRD का तब ये कहना कि टाटा उपनाम वाला ही व्यक्ति कमान संभाले तो सुविधा होगी, इशारों में रतन टाटा के नाम पर मुहर की तरह देखी गई. लेकिन इस दौड़ में 70 साल के रूसी मोदी भी शामिल थे, जो टाटा स्टील के तत्कालीन अध्यक्ष थे. लेकिन एक अखबार में छपी ख़बर ने उनका खेल ख़राब कर दिया.

इंडिया टुडे मैगज़ीन की उसी रिपोर्ट के हवाले से पता चलता है कि कोलकाता के एक अख़बार ने ख़बर छाप दी कि मोदी तत्काल टेल्को के अध्यक्ष बनने जा रहे हैं और वे इसे संकट में पड़ी एक और कंपनी के उद्धार का जिम्मा मिलना मानते हैं. ख़बर पढ़ते ही टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव यानी टेल्को के तत्कालीन अध्यक्ष सुमंत मुलगांवकर अड़ गए कि अध्यक्ष पद से नहीं हटेंगे और उनके अवकाश लेने के बाद रतन टाटा ही उनकी जगह संभालेंगे. और इस तरह एक और कंपनी की कमान हाथ में आ जाने के बाद रतन के टाटा समूह का कर्ताधर्ता बन जाने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा.

बहरहाल, तमाम तिकड़मों और उठापटक के बावजूद वही हुआ जिसके कयास लगाए जा रहे थे. JRD ने कुर्सी छोड़ी और रतन टाटा ने टाटा सन्ट और टाटा ट्रस्ट के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी संभाल ली. लेकिन ये कुर्सी उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं मिली कि उनके नाम के साथ टाटा जुड़ा था. सत्तर के दशक में ग्रुप के कामकाज में ठहराव आ चुका था. लेकिन जब टाटा इंडस्ट्रीज के चेयरमैन का जिम्मा रतन टाटा ने संभाला तो वह विस्तार और आधुनिकीकरण की राह पर बढ़ चला. विकास की संभावना वाले क्षेत्रों में उन्होंने निवेश किया और उसका नतीजा भी ग्रुप के पक्ष में ही रहा. साथ ही बुजुर्ग हो चले नेतृत्व के बीच रतन के सर्वेसर्वा बनने से नौजवान प्रबंधकों को बड़े पद पर लाए जाने की भी उम्मीद थी, जिससे कंपनी नए कलेवर में आगे बढ़ती.

ग्रुप को नया रूप देने का रतन का सिद्धांत एक सीधे से दर्शन पर आधारित था- “ब्रांड पर ज़ोर दो, चीज़ों को दुरुस्त करो, सेवाएं बढ़ाओ. उसी धंधे में रहो जिनमें तुम ऊपर की तीन शर्तों को पूरा कर सकते हो. साथ ही वैश्विक नज़रिया अपनाओ.”

लेकिन रतन टाटा की इमेज में सिर्फ एक बिजनेसमैन का रंग-रूप नहीं था. उन्हें एक समाजसेवी, देश के हित में सोचने वाला और आइकन के तौर पर देखा जाता रहा. नए जमाने के ‘कूल’ बिजनेसमैन्स की तरह वो चर्चा में बने रहने के शौकीन नहीं थे. इंडिया टुडे मैगज़ीन के 23 फरवरी, 2003 के अंक में शंकर अय्यर लिखते हैं, “वे वैसे CEO और कारोबारी मुखिया नहीं हैं जो हर शाम डिजाइनर कपड़ों और चमचमाती कारों में शान से बन-ठन और तन कर सामाजिक हलकों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं. वे शायद ही कभी पार्टी देते हैं. किसी पार्टी में उनकी मौजूदगी अपने आप में घटना होती है.”

काम के दौरान भूरे या नीले रंक के शेड वाले कपड़े पसंद करने वाले रतन व्यवहार में भी सौम्य थे. उन्हें गहरे शेड के सूट और डिजाइनर टाई पसंद थीं. खर्चीले शौक़ था तो बेंज का जिसे एक वक़्त तक वह खुद चलाना पसंद करते थे. सेहत ने साथ देना बंद कर दिया तो उनका ये शौक़ भी जाते रहा.

शराब और सिगरेट से दूर रहने वाले टाटा ने जानबूझकर अविवाहित रहने का फैसला किया था. मुंबई में अपने किताबों से भरे घर में वह अपने जर्मन शेफर्ड, टीटो और टैंगो के साथ रहते थे और उनके प्रति उनका लगाव किस कदर था वो उन्हीं के एक बयान से समझिए. टाटा ने एक इंटरव्यू में कहा, “पालतू जानवरों के रूप में डॉग से मेरा लगाव हमेशा गहरा रहा है और जब तक मैं जीवित हूं, तब तक यह जारी रहेगा.” अब उनके साथ ये प्यार भी विदा ले चुका है.

अपने पसंदीदा जर्मन शेफर्ड के साथ रतन टाटा
अपने पसंदीदा जर्मन शेफर्ड के साथ रतन टाटा

शंकर अय्यर की 2003 वाली रिपोर्ट में ही उनका एक विस्तृत इंटरव्यू भी मिलता है. तब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे. पीएम के ही रेफ्रेंस में उनसे सवाल किया गया कि लोगों का कहना है कि आप प्रधानमंत्री की ही तरह नरम स्वभाव के हैं. उनका जवाब था, “हां, लोग ऐसा कहते हैं, फिर भी मुझ पर पुराने लोगों को निकाल बाहर करने, कंपनियां बेच देने और वह सब करने के आरोप लगते रहे हैं जिन्हें किसी भी तरह से नरम नहीं कहा जा सकता.”

उनके पिता चुनावी मैदान में उतरे थे लेकिन उन्हें इसमें दिलचस्पी नहीं थी. क्योंकि उन्हें लगता था कि राजनीति में कुछ भी गोपनीय नहीं रह जाता. और उन्हें तो एकांत पसंद था. रतन के ही शब्द हैं कि “राजनीति में जाने के बाद जीवन में मजा नहीं रहेगा.”

रतन टाटा की कहानी किसी बरगद की कहानी जैसी है. उसकी गिन-गिनकर थक जाने लायक शाखाएं हैं. उससे कहीं ज़्यादा पत्ते. और उससे कुछ ज़्यादा गहरे बसी जड़ें. लेकिन फ़िर भी उस शख़्स की कहानी नैनो के बग़ैर पूरी नहीं होती. एक गाड़ी जिसका ख़्वाब उस कारोबारी ने मिडिल क्लास की आंखों से देखा था. देश के उन लोगों की आंखों से जो लाखों रुपए खर्च कर फैंसी कार नहीं खरीद सकते.

2003 का साल और अगस्त का महीना है. वो मुंबई की एक बारिश भरी शाम को फ्लोरा फाउंटेन में अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से निकलकर घर जा रहे थे. रास्ते में एक युवा पति-पत्नी अपने दो बच्चों के साथ स्कूटर पर जाते दिखे. ये नज़ारा उनके दिमाग़ में पानी भरी सड़क पर हादसे के जोख़िम के साथ कौंधा. यहीं से उन्हें एक छोटी कार जिसे मीडिल क्लास अफोर्ड कर सके, का ख़्याल मन में घर कर जाता है.

इत्तेफाकन हफ्ते भर बाद रतन पुणे में टाटा मोटर्स के प्लांट के दौरे पर पहुंचते हैं और प्रबंध निदेशक रवि कांत के सामने अपना ख़्याल खोल देते हैं. लेकिन उनका सवाल था कि “क्या दुपहिया स्कूटर को सुरक्षित बनाया जा सकता है?” टाटा के ही शब्दों में “जो पहला कल्पना थी वो एक दुपहिया वाहन के रेखाचित्र थे जिसके चारों तरफ गिरने से बचने के लिए बाड़ लगी और मौसम से बचाव के लिए छत.”

नैनो की लॉन्चिंग के वक़्त कार के साथ खड़े रतन टाटा
नैनो की लॉन्चिंग के वक़्त कार के साथ खड़े रतन टाटा

अपने भारतीय होने पर गर्व करने वाले और हाथ में टाइटन घड़ी बांधने के शौकीन रतन टाटा ने जब इस लखटकिया कार की लॉन्चिंग पर 10 जनवरी, 2008 को मंच पर रवि कांत और गिरीश वाघ के नेतृत्व वाली अपनी उस टीम को बुलाया, जिसने नैनो को साकार किया था, तो यह इंडियन टैलेंट को इज्जत बख्शने के साथ-साथ उन लोगों को भी जवाब था जो इस कॉन्सेप्ट को असंभव बता रहे थे. दिलचस्प है कि इसी बरस उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. और यहीं बताना माकूल होगा कि साल 2000 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका था.

टाटा के प्रतिद्वंदी रहे महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के प्रबंध निदेशक ने इंडिया टुडे के साथ 2003 में हुए एक बातचीत में कहा था कि “रतन की आक्रामकता सौम्य है, वो भीषण प्रतिद्वंदी हैं.”

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ रतन टाटा के 65 फीसदी शेयर चैरिटेबल ट्रस्ट में जाते हैं. जिसमें कॉरनेल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को टाटा स्कॉलरशीप फंड के जरिए वित्तीय सहायता दी जाती है. ये वही यूनिवर्सिटी है जहां से रतन टाटा ने पढ़ाई की थी. उन्होंने साल 2010 में हावर्ड बिजनेस स्कूल में एग्जीक्यूटिव सेंटर के निर्माण के लिए 50 मिलियन डॉलर का दान दिया था. साल 2014 में IIT मुंबई को भी 95 करोड़ रुपये दान. कोरोना के मुश्किल दौर में 1500 करोड़ रुपए डोनेट किया.

चैरिटी और समाजसेवा के लिए किए गए ऐसे ख़ूब सारे डोनेशन और कामों के ब्यौरों से भरी हज़ारो ख़बरें आपको इंटरनेट पर मिल जाएंगे. लेकिन अब उनके गुजर जाने के बाद एक ख़बर इस सवाल के साथ भी मिलेगी कि रतन टाटा का उत्तराधिकारी कौन होगा? 23 फरवरी, 2003 की रिपोर्ट में रतन टाटा खुद ही इस सवाल का जवाब देते हैं, “मैं किसी ऐसे व्यक्ति को चाहूंगा जिसके नैतिक मूल्य वैसे ही हों जैसे मेरे हैं. और वह युवा हो, स्वप्नदर्शी हो, बदलती दुनिया को देखे, संरक्षणवादी न हो.”

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