मई की 13 तारीख को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के नाम एक प्रेसीडेंशियल रेफरेंस जारी किया. यह रेफरेंस असल में 14 सवालों की एक फेहरिस्त है जिनके जरिए राष्ट्रपति मुर्मू ने पूछा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट विधानसभाओं की ओर से पारित विधेयकों पर मंजूरी के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर सकता है.
राष्ट्रपति ने इसके लिए संविधान के अनुच्छेद-143 का सहारा लिया, जिसके तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से कानूनी मामलों पर सलाह मांग सकता है. राष्ट्रपति मुर्मू ने शीर्ष अदालत से पूछा है, "जब संविधान में विधेयकों के लिए समय-सीमा निर्धारित नहीं है तो सर्वोच्च न्यायालय समय-सीमा कैसे निर्धारित कर सकता है?"
असल में, अप्रैल की 8 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के लिए विधेयकों पर एक्शन लेने के लिए समयसीमा तय की थी. जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने अपने इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा.
शीर्ष अदालत ने कहा कि, "इस अवधि से आगे किसी भी देरी के मामले में, संबंधित राज्य को उचित कारण बताते हुए सूचित करना होगा." यह मामला तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और राज्यपाल आरएन रवि से जुड़ा है.
तमिलनाडु विधानसभा ने जनवरी 2020 से अप्रैल 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए, जिनमें से 10 पर राज्यपाल आरएन रवि ने कोई एक्शन नहीं लिया या असहमति जताई. इनमें से कई विधेयक विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्तियों से संबंधित थे. तमिलनाडु विधानसभा ने पुनर्विचार के बाद दोबारा उन विधेयकों को मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजा, लेकिन कोई एक्शन न होता देख तमिलनाडु सरकार ने 2023 में जब सुप्रीम कोर्ट का रुख किया तो राज्यपाल ने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज दिया.
अदालत ने कहा कि राज्यपाल को इन विधेयकों को उस समय मंजूरी दे देनी चाहिए थी जब विधानसभा द्वारा पारित किए जाने के बाद इन्हें दोबारा उनके सामने प्रस्तुत किया गया.
संविधान के आर्टिकल-200 के मुताबिक, किसी विधेयक पर फैसला लेने के लिए राज्यपाल के सामने तीन विकल्प होते हैं. पहला - सहमति देना, दूसरा - पुनर्विचार के लिए वापस भेजना और तीसरा - विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए रिजर्व करना.
राज्यपाल विधेयकों को कुछ प्रावधानों पर पुनर्विचार के लिए संबंधित राज्य विधानसभा को वापस भेज सकते हैं. अगर सदन इसे दोबारा पारित करता है तो फिर राज्यपाल को सहमति देनी होती है. राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए किसी विधेयक को सुरक्षित रख सकते हैं, जब उन्हें लगता है कि यह संविधान, राज्य की नीति-निर्देशक सिद्धांतों के खिलाफ है या राष्ट्रीय महत्व का मामला है.
इधर, संविधान के अनुच्छेद-201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है. यही वजह है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शीर्ष अदालत से पूछा है, "जब संविधान में समय-सीमा निर्धारित नहीं है तो सर्वोच्च न्यायालय समय-सीमा कैसे निर्धारित कर सकता है?"
यह प्रेसीडेंशियल रेफरेंस 13 मई को जारी किया गया, जो मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना का अंतिम कार्य दिवस था. अब राष्ट्रपति के इन सवालों का जवाब देने के लिए संविधान पीठ गठित करने की जिम्मेदारी मौजूदा मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई पर होगी. CJI गवई को इन सवालों पर अपनी राय देने के लिए पांच या उससे अधिक न्यायाधीशों वाली एक संविधान पीठ गठित करनी होगी.
राष्ट्रपति मुर्मू के 14 सवालों की सूची
1. जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक आता है तब उनके पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प हैं?
2. क्या राज्यपाल फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद् की सलाह से बंधे हैं?
3. क्या राज्यपाल के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
4. क्या आर्टिकल-361 राज्यपाल के फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह रोक सकता है?
5. अगर संविधान में राज्यपाल के लिए कोई समय-सीमा तय नहीं है, तो क्या अदालत कोई समय-सीमा तय कर सकती है?
6. क्या राष्ट्रपति के फैसले को भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है?
7. क्या राष्ट्रपति के फैसलों पर भी अदालत समय-सीमा तय कर सकती है?
8. क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेना अनिवार्य है?
9. क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले ही अदालत सुनवाई कर सकती है?
10. क्या सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल-142 का इस्तेमाल करके राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को बदल सकता है?
11. क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून, राज्यपाल की मंजूरी के बिना लागू हो सकता है?
12. क्या संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजना अनिवार्य है?
13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे आदेश दे सकता है जो संविधान या मौजूदा कानूनों से मेल न खाते हों?
14. क्या केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था अपने फैसले में?
SC ने कहा था कि अनुच्छेद-201 के तहत अगर राज्यपाल विधानसभा से पारित बिल को विचार करने के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है. इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं.
अदालत ने कहा था कि अनुच्छेद-201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. अगर बिल में केंद्र सरकार के फैसलो को प्राथमिकता दी गई हो तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा.
शीर्ष अदालत ने कहा था कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा.
इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो, तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला लिया जाना चाहिए. राष्ट्रपति को बिल मिलने होने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा. अगर देरी होती है, तो देरी के कारण बताने होंगे.
अदालत ने कहा था कि अगर राज्यपाल किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं. और विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर अंतिम फैसला लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी.
धनखड़ ने कहा- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं
17 अप्रैल को राज्यसभा के प्रशिक्षुओं के एक समूह को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा तय करने की बात कही गई थी.
धनखड़ ने कहा था, "अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं. संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है. जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं."
वहीं, राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने धनखड़ के बयान पर दुख जताया था. सिब्बल ने कहा, "जगदीप धनखड़ के बयान पर मुझे दुख और आश्चर्य हुआ. आज किसी संस्था पर पूरे देश में भरोसा किया जाता है तो वो न्यायपालिका है."
सिब्बल ने कहा कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को दखल देना ही पड़ेगा. भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है. राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है.