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लोकलुभावन नीतियां कैसे भारत के राज्यों की आर्थिक सेहत बिगाड़ रहीं?

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्ज की तरफ से जारी एक अध्ययन के मुताबिक भारत के राज्य ऐसी योजनाओं और कार्यक्रम पर कम खर्च कर रहे हैं जिससे उनकी आर्थिक सेहत को फायदा हो

महाराष्ट्र की एक चुनावी रैली (फाइल फोटो)
अपडेटेड 10 नवंबर , 2025

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने हाल ही में ‘राज्यों की वित्तीय स्थिति 2025’ पर एक व्यापक अध्ययन जारी किया है. यह  राज्यों के बही-खाते के बारे में एक गंभीर तस्वीर सामने रखता है. राज्य के बजट दस्तावेजों, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) के लेखा परीक्षित खातों और 2014-15 से 2025-26 तक के राजकोषीय रुझानों के आधार पर रिपोर्ट में यह विश्लेषण किया गया कि राज्य कैसे धन जुटाते हैं और कहां खर्च करते हैं, कर्ज का प्रबंधन कैसे करते हैं और कल्याणकारी, बुनियादी ढांचे और राजकोषीय विवेक के प्रतिस्पर्धी दबाव के कैसे निपटते हैं.

यह रिपोर्ट एक जटिल तस्वीर पेश करती है, जिसमें बढ़ती राजकोषीय असमानताएं, सीमित स्वायत्तता और बढ़ती कल्याणकारी लागतें शामिल हैं जो राज्यों के बही-खाते पर दबाव बढ़ाती हैं. इस अध्ययन के 10 चिंताजनक निष्कर्ष इस प्रकार हैं :-
 
वृद्धि के बावजूद राजस्व घाटा बरकरार

राज्यों ने सामूहिक रूप से 2023-24 में GSDP (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) का 0.4 फीसद राजस्व घाटा दर्ज किया, जिसका अर्थ है कि उन्होंने पूंजी सृजन के बजाय नियमित खर्चों को पूरा करने के लिए उधार लिया. 2015-16 और 2023-24 के बीच, राज्यों ने अपने बजट अनुमानों की तुलना में औसतन 10 फीसद कम राजस्व जुटाया और अपने बजट से 9 फीसद कम खर्च किया. पूंजीगत व्यय में 20 फीसद की और भी अधिक कमी देखी गई, क्योंकि राज्यों ने राजस्व की कमी को पूरा करने के लिए पूंजीगत व्यय में कटौती की.
 
कर्ज बढ़ा, घट रही स्वायत्तता

राज्यों का अपना कर राजस्व GSDP का महज 6.8 फीसद पर बना हुआ है, जिसमें SGST (राज्य वस्तु एवं सेवा कर) सबसे बड़ा हिस्सा (44 फीसद) है. पूर्वोत्तर और हिमालयी राज्य अपने कुल राजस्व का 68 फीसद केंद्र सरकार से पाते हैं. 10 राज्यों ने 2025-26 में राजस्व घाटे का बजट बनाया है, जबकि सात राज्यों को 3 फीसद की सीमा से ऊपर राजकोषीय घाटे की उम्मीद है. यह असंतुलन संरचनात्मक स्तर पर केंद्र पर निर्भरता को दिखाता है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता घट रही है क्योंकि उनके पास स्वतंत्र विकास रणनीतियां अपनाने की नीतिगत गुंजाइश कम हो जाती है.
 
जीएसटी राजस्व अब भी जीएसटी-पूर्व करों से कम

2017 से लागू जीएसटी से प्राप्त राजस्व इसके अंतर्गत आने वाले करों के स्तर से पीछे चल रहा है. पूर्ववर्ती करों से प्राप्त कुल राजस्व 2015-16 में सकल घरेलू उत्पाद का 6.5 फीसद था, जबकि 2023-24 में यह सकल घरेलू उत्पाद का केवल 5.5 फीसद रहा. 15वें वित्त आयोग ने 7 फीसद जीएसटी-से-जीडीपी अनुपात का अनुमान लगाया था लेकिन यह लक्ष्य अब तक हासिल नहीं किया जा सका है. यह अंतर और बढ़ गया है, खासकर पंजाब, मध्य प्रदेश और कर्नाटक जैसे औद्योगिक राज्यों में. हालांकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को गंतव्य-आधारित जीएसटी ढांचे से मामूली लाभ जरूर हुआ है.
 
दो-तिहाई राज्यों में जरूरी खर्चों ने बढ़ाया बोझ

2023-24 में भारतीय राज्यों ने सामूहिक रूप से अपनी राजस्व प्राप्तियों का 62 फीसद प्रतिबद्ध या जरूरी व्यय—वेतन, पेंशन, ब्याज भुगतान और सब्सिडी आदि- पर खर्च किया. इसमें 53 फीसद वेतन, पेंशन और ब्याज पर और 9 फीसद सब्सिडी पर खर्च हुआ. पंजाब ने इन सभी मद में अपनी कुल कमाई से ज्यादा खर्च किया, जबकि हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और हरियाणा ने भी 70 फीसद से ज्यादा खर्च किया, जिससे विकास व्यय के लिए बहुत कम राजकोषीय गुंजाइश बची.
 
उधार सुरक्षित सीमा से ज़्यादा

मार्च 2025 तक राज्यों का कुल बकाया ऋण सकल घरेलू उत्पाद का 27.5 फीसद था, जो FRBM (राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन) के 20 फीसद के लक्ष्य से कहीं ज़्यादा है. केवल गुजरात, महाराष्ट्र और ओडिशा ही अनुशंसित सीमा पूरी करते हैं. 2016-17 से ब्याज भुगतान में सालाना 10 फीसद की वृद्धि हुई है, जो राजस्व प्राप्तियों की तुलना में ज्यादा तेज है, और अब इस पर राज्यों की कुल राजस्व प्राप्तियों का 13 फीसद हिस्सा खर्च होता है. बढ़ते नियमित खर्चों और लोकलुभावन योजनाओं ने उधार चुकाने के प्रयासों को प्रभावित किया है.
 
केंद्रीय सहायता से पूंजीगत व्यय में वृद्धि

केंद्र सरकार ने 2020-21 में पूंजी निवेश के लिए राज्यों को विशेष सहायता योजना (SASCI) शुरू की, जिसके तहत बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए 50 वर्षीय ब्याज-मुक्त ऋण प्रदान किया जा रहा है. 2020-21 और 2025-26 के बीच राज्यों को SASCI के अंतर्गत 4,01,276 करोड़ रुपये प्रदान किए गए हैं. 2024-25 में राज्यों के कुल पूंजीगत व्यय का 19 फीसद SASCI ऋण से वित्तपोषित होने की उम्मीद है, जो 2020-21 में केवल 2.9 फीसद की तुलना में काफी ज्यादा है. हालांकि, बिना शर्त SASCI निधियों का हिस्सा 80 फीसद से घटकर 38 फीसद होने से राज्यों के निवेश के अधिकार सीमित हो गए हैं.
 
लेकिन असंबद्ध केंद्रीय ट्रांसफर घटा

राज्य को स्वतंत्र रूप से खर्च के मिलने वाले असंबद्ध ट्रांसफर का हिस्सा 14वें वित्त आयोग के तहत 68 फीसद से घटकर 15वें वित्त आयोग के तहत 64 फीसद हो गया. इससे व्यय संबंधी लचीलापन घटा है और केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर निर्भरता बढ़ी है. ये बदलाव प्रभावी तौर पर व्यय प्राथमिकताओं को राज्यों से हटाकर केंद्र सरकार के चुने कार्यक्रमों की ओर स्थानांतरित कर देता है.
 
राज्यों के बीच बढ़ती आय असमानता चिंताजनक

अमीर और गरीब राज्यों के बीच राजकोषीय खाई बढ़ती जा रही है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे उच्च आय वाले राज्यों ने 2014-15 में अपने स्तर पर कर राजस्व बढ़ाया और प्रति व्यक्ति अधिक खर्च किया- और 2023-24 में ऐसी ही स्थिति रही. अधिक कमाई और खर्च के इस चक्र ने प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) में आय असमानता को और बढ़ा दिया. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जिनकी प्रति व्यक्ति आय कम है, सीमित राजस्व और कम निवेश के चक्र में फंसे हैं.

पीआरएस रिपोर्ट के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि कैसे राज्य लोकलुभावन मजबूरियों और खर्चों को लेकर समझदारी के बीच फंसे हैं, कल्याण पर अधिक और विकास पर कम खर्च कर रहे हैं. भारत के संघीय राजकोषीय ढांचे की असली परीक्षा ये होगी कि क्या राज्य एक और चुनावी चक्र के दौरान टिके रहने के लिए अपनी स्वायत्तता गिरवी रखे बिना उत्पादक खर्च की स्थिति में पहुंच पाएंगे.

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