भारत और पाकिस्तान के बीच 10 मई को संघर्ष विराम हुआ और इसी दिन सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है कि ‘आपरेशन सिंदूर’ का ट्रेडमार्क दिए जाने पर रोक लगाई जाए. कोर्ट की सुनवाई में आगे चाहे जो हो लेकिन नियम-कानून और ट्रेडमार्क रजिस्ट्री की कार्यपद्धति के आधार पर कहा जा सकता है कि इस नाम का ट्रेडमार्क किसी निजी व्यक्ति या कंपनी को मिलना नामुमकिन ही है.
दरअसल 6-7 मई की दरम्यानी रात भारतीय सेना ने पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (POK) में आतंकी ठिकानों पर हमला किया और इसे 'ऑपरेशन सिंदूर' नाम दिया गया. 7 मई को खबर आई कि ऑपरेशन सिंदूर के ट्रेडमार्क के लिए पेटेंट, डिजाइन और ट्रेडमार्क महानियंत्रक के कार्यालय में कुछ एप्लीकेशन आई हैं.
ये एप्लीकेशन इसलिए दायर की गई हैं कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का ट्रेडमार्क लेकर इस पर फिल्म/सीरीज बनाई जाए या फिर कोई दूसरा इस्तेमाल किया जाए. ये एप्लीकेशन क्लास 41 के तहत दी गई हैं जो कि परफार्मिंग आर्ट, कला, शिक्षा आदि रचनात्मक कार्यों से संबंधित है. इनमें से एक रिलायंस के स्वामित्व वाले जियो स्टूडियो की भी थी.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सोशल मीडिया पर बवाल मचने के बाद जियो ने एप्लीकेशन वापस ले ली. साथ ही रिलायंस स्टूडियो के कर्ताधर्ताओं ने इस आवेदन के लिए जूनियर अफसर को जिम्मेदार ठहरा दिया. एक अन्य आवेदक आलोक कोठारी ने मीडिया से बातचीत में कहा, "इस पर मूवी बनेगी और नाम रजिस्टर होगा. मूवी से प्राफिट होगा लेकिन ऐसी फिल्मों का शायद ही कोई हिस्सा सैनिकों की विधवाओं को मिलता होगा. मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूं कि इससे जो भी कुछ मुनाफा हो वो सिर्फ युद्ध पीड़ितों को मिले. मेरे लिए यह मुनाफे की बात नहीं है. मैं नहीं कराउंगा तो कोई और कराएगा और प्रॉफिट कमाएगा. मैंने लीगली कुछ गलत नहीं किया.”
कोठारी या दूसरे लोग भले ही अपनी तरफ से जो दावा करें लेकिन इस मामले से जुड़ी एक सच्चाई है जो उनके ट्रेडमार्क लेने के इरादे को पूरा नहीं होने देगी. आमतौर पर सरकार अपने किसी भी अभियान, योजना, कार्यक्रम का ट्रेडमार्क पंजीकृत नहीं कराती. इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी मुंह उठाकर बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ या सबका साथ, सबका विकास जैसे नारों का ट्रेडमार्क करा ले और फिर उसे आवंटित हो जाए तो वे लोग सरकार को ही लीगल नोटिस थमाने लगें. इंडिया टुडे ने इस मुद्दे की पड़ताल के लिए वाणिज्य मंत्रालय के अधीन कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट डिजाइन और ट्रेडमार्क दफ्तर से सच जानने का प्रयास किया. इसी दफ्तर में ये एप्लीकेशन दी गई हैं.
विभाग के सूत्रों ने बताया कि वैसे तो इस तरह की एप्लीकेशन में उसे देने वाले की सुनवाई होगी. प्रक्रिया यह है कि जांच-पड़ताल के बाद आपत्ति की जाती है और अगर किसी को ऐतराज न हो तो फिर आवंटन की प्रक्रिया शुरू होती है. लेकिन ऑपरेशन सिंदूर के ट्रेडमार्क का मामला बिल्कुल अलग है. सूत्र का कहना है, "इसका ट्रेडमार्क किसी भी व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता. इसका बाकायदा कानूनी प्रावधान है. ट्रेडमार्क एक्ट का सब-क्लॉज 9 (डी) ऐसा करने से रोकता है. इसमें उन परिस्थितियों का वर्णन है जिनमें ट्रेडमार्क देने से इनकार किया जाएगा. इसमें स्पष्ट है कि प्रतीक और नाम (अनुचित उपयोग रोकथाम) अधिनियम 1950 के दायरे में आने वाले नामों का ट्रेडमार्क नहीं दिया जा सकता. यह कानून सरकारी नामों व कार्यालयों के नाम से ट्रेडमार्क देने से रोकता है. जाहिर है ऑपरेशन सिंदूर भी इसी दायरे में आएगा इसलिए इसका ट्रेडमार्क भी किसी को देने का प्रश्न ही नहीं उठता.”
ट्रेडमार्क आवंटन की प्रक्रिया से जुड़े अफसरों का कहना है कि वे भी समाज और देश में रहते हैं और जागरूक नागरिक हैं. देश में क्या हो रहा है उन्हें भी पता है. लिहाजा ऐसे एप्लीकेशंस को आमतौर पर खारिज कर दिया जाता है. आवेदक को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है तो वह ऊंची अदालत में जाने के लिए स्वतंत्र है.