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नागरिक सुरक्षा संहिता में शामिल है फैसले सुनाने की टाइमलाइन... क्या कोर्ट केस निपटाने में आएगी तेजी?

नागरिक सुरक्षा संहिता के प्रावधान कहते हैं कि ट्रायल में बहस खत्म होने के 30 ही दिन में अदालतों को फैसला सुनाना जरूरी होगा. कुछ विशेष मामलों में इसे बढ़ाकर 45 दिन भी किया जा सकता है मगर उससे ज्यादा नहीं

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़
अपडेटेड 21 दिसंबर , 2023

बीते बुधवार 20 दिसंबर, 2023 को आपराधिक न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने के उद्देश्य से संसद में तीन विधेयक पास हुए. इन्हीं में से एक है नागरिक सुरक्षा संहिता. गृह मंत्री अमित शाह ने इस विधेयक के बारे में बोलते हुए कोर्ट में फैसले सुनाने की टाइमलाइन का भी जिक्र किया इसके बाद से यह सवाल सबके मन में है कि क्या न्यायालयों में टाइमलाइन तय होने के बाद केसों का निपटारा जल्दी हो सकेगा. 

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कोर्ट केसेज और मौजूदा सिस्टम के बारे में बात करते हुए संसद में कहा, "हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में बहुत समय लगता है. कोई कानून की अदालत में जाए तो न्याय इतनी देर से मिलता है कि न्याय का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लोगों की श्रद्धा उठ गई है और वो कोर्ट में जाने से भी डरते हैं. जब मैं गुजरात का कानून मंत्री था तब कई लोगों ने मुझसे कहा था कि पनिशमेंट की कोई जरूरत ही नहीं है, कोर्ट में जाना अपने आप में ही एक पनिशमेंट है." 

केस के निपटारे के समय को कैसे कम करेगा ये कानून?

एफआईआर से केस डायरी, केस डायरी से चार्जशीट, और चार्जशीट से जजमेंट तक की सारी प्रकिया को डिजिटलाइज करने का प्रावधान इस कानून में है. अब पूरा ट्रायल वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से हो सकेगा. विटनेस से एविडेंस तक सबकुछ डिजिटल तरीके से इवैल्यूएट किया जा सकेगा. जीरो एफआईआर करने का अधिकार देश के किसी भी कोने से करने से लेकर रिपोर्ट दर्ज होने के 90 दिन के अंदर पुलिस को स्टेटस देने जैसी बातें इस कानून में हैं. 

सालों तक केस नहीं चलने जैसी दिक्कतों के लिए छोटे-मोटे मामलों में समरी ट्रायल का दायरा बढ़ा दिया गया है. तीन साल तक की जिसमें सजा है वे सारे मामले समरी ट्रायल से हो जाएंगे. इस एक प्रावधान से ही सेशन कोर्ट के 40 प्रतिशत केस समरी ट्रायल में ही सॉल्व हो जाएंगे. पुलिस को 90 दिन के अंदर चार्जशीट दायर करनी ही पड़ेगी लेकिन कोर्ट अगर चाहे तो अतिरिक्त 90 दिनों का समय प्रदान कर सकती है. कुछ भी हो जाए लेकिन 180 दिनों में इन्वेस्टीगेशन समाप्त कर पुलिस को उसे ट्रायल के लिए भेजना ही पड़ेगा. 

ट्रायल में बहस खत्म होने के 30 ही दिन में न्यायालयों को फैसला सुनाना जरूरी होगा. कुछ विशेष मामलों में इसे बढ़ाकर 45 दिन भी किया जा सकता है मगर उससे ज्यादा नहीं. गृहमंत्री अमित शाह का इस प्रावधान के बारे में कहना था कि अब तीन-तीन साल सिर्फ जजमेंट के लिए इंतजार करने की जरूरत नहीं है. न्यायालय के फैसले को 7 दिनों के अंदर ऑनलाइन उपलब्ध करवाना पड़ेगा जिससे कि इस पर अपील की जा सके. 

सिविल सर्वेन्ट्स को लेकर भी बदले गए प्रावधान 

सिविल सर्वेन्ट्स के पास एक खास इम्युनिटी थी जिससे उनपर केस दर्ज होने के बाद भी सरकार की अनुमति के बिना न तो चार्जशीट दाखिल की जा सकती थी और न ही उनपर ट्रायल शुरू होता था. सालों-साल तक कोई अनुमति आती ही नहीं थी. अब नया प्रावधान ये है कि 120 दिनों में सरकार हां या ना कहे वरना इसे डीम्ड परमिशन मान लिया जाएगा. 

इसके अलावा अभी तक ऐसा होता आया है कि अगर एसपी होने के नाते किसी ने केस की जांच की है तो उसे रिटायर होने के बाद भी गवाही देने के लिए आना पड़ता है. अब नए प्रावधान के तहत जो मौजूदा एसपी है उसे ही फाइल देखकर गवाही देनी होगी, पुराना अधिकारी नहीं आएगा. इस प्रावधान की वजह से गवाही के लिए काफी देरी होती थी क्योंकि जो एसपी थे अब वो डीआईजी बन गए हैं और उनके पास इतना वक्त कहां कि तुरंत गवाही देने आ जाएं. 

सुप्रीम कोर्ट इसपर क्या कहता है?

2001 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में अधीनस्थ अदालतों को फटकार लगाई थी और फैसले सुनाने के लिए छह सप्ताह से दो महीने के बीच की टाइम लिमिट दी थी. हालांकि, इस टाइम-लिमिट पर कुछ खास ध्यान दिया नहीं गया. सर्वोच्च न्यायालय के साथ अलग-अलग उच्च न्यायालयों ने बार-बार देखा है कि फैसले सुनाने में इस तरह की देरी का प्रभाव "न्यायिक प्रणाली में आम आदमी के विश्वास को कम" कर रहा है.

इसी साल मई में एक मामले में बहस खत्म होने के छह महीने के बाद भी फैसला नहीं सुनाए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने मुकदमों में तेजी लाने के लिए विस्तृत निर्देश जारी किए और उच्च न्यायालयों को मुकदमे की फिर से सुनवाई के लिए एक अलग बेंच को ट्रांसफर करने का निर्देश दिया. 

इन सब के बीच ट्रायल और फैसला आने में लगने वाली देरी के बारे में समय-समय पर न्यायालयों में जजों की कमी की बात की जाती रही है. लॉ एक्सपर्ट्स  कहते हैं कि भारतीय न्यायालय के जजों पर काम का ज्यादा बोझ है. नागरिक सुरक्षा संहिता में तमाम तरह के बदलावों के बाद सरकार को इस ओर भी काम करने की जरूरत है ताकि न्यायालयों में जजों की संख्या बढ़ाई जा सके.

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