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मोदी-शी जिनपिंग मुलाकात : चीन से बात जरूरी लेकिन भारत ने क्यों अपनाया सतर्क रुख?

तिआनजिन में हुई SCO समिट के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बातचीत को "पॉजिटिव मोमेंटम" के तौर पर पेश किया गया. लेकिन भारत की सुरक्षा एजेंसियों की नजर में चीन को लेकर सख्त रवैया बनाए रखना भी उतना ही जरूरी

PM Narendra Modi with Chinese President Xi Jinping during the SCO Summit at Tianjin Meijiang Convention Centre (PTI Photo)
पीएम नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ SCO समिट के दौरान
अपडेटेड 2 सितंबर , 2025

साल 2020 से भारत और चीन के रिश्ते लगातार नाजुक बने हुए हैं. यह भी वजह है कि जब शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात हुई तो इस पर पूरी दुनिया की नजर थी. तिआनजिन में 31 अगस्त की दोपहर को हुई इस मुलाकात के बाद आधिकारिक बयान में “पॉजिटिव मोमेंटम” और “स्थिर प्रगति” पर जोर दिया गया. 

लेकिन भारत की सुरक्षा एजेंसियां इस मुलाकात को एक सतर्क संतुलन की कोशिश मान रही हैं, जिसमें एक तरफ डिसएंगेजमेंट (सीमा पर सेना के पीछे हटने) का स्वागत है, वहीं दूसरी तरफ LAC (लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल) पर बीजिंग की दीर्घका‌लिक मंशाओं को लेकर सतर्कता भी बनी हुई है.

दोनों नेताओं की यह मुलाकात करीब एक घंटे चली, जिसमें मोदी और शी ने दोहराया कि भारत और चीन "डेवलपमेंट पार्टनर हैं, प्रतिद्वंदी नहीं". दोनों ने सीमा पर शांति और स्थिरता की अहमियत पर जोर दिया. फौजी नजरिए से देखा जाए तो यह बात दिल्ली के उस रुख को दिखाती है कि रिश्तों में आगे बढ़ने की बुनियाद तभी रखी जा सकती है जब सरहद पर हालात स्थिर और शांत हों.

2020 की गर्मियों में चीनी सेना की घुसपैठ और गलवान घाटी की खूनी झड़प के बाद से भारतीय सेना ने अपना रुख काफी सख्त कर लिया है. बॉर्डर इन्फ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड किया गया, तैनाती मजबूत की गई और अब पूरे साल निगरानी जारी रहती है. कुछ जगहों पर डिसएंगेजमेंट समझौते होने के बावजूद भारतीय सेना अब भी हाइ अलर्ट पर है. यह साफ संदेश है कि भरोसा सिर्फ बातों से नहीं, बल्कि असली हालात से बनेगा.

तिआनजिन मीटिंग में पिछले साल हुए डिसएंगेजमेंट और एलएसी पर बनी शांति पर संतोष जताया गया. लेकिन भारतीय रक्षा हलकों में इस "शांति" को बड़ी सफलता नहीं, बल्कि एक नाजुक ठहराव माना जा रहा है. तिब्बत और शिनजियांग में चीन तेजी से इन्फ्रास्ट्रक्चर बना रहा है. नई एयरस्ट्रिप्स, सड़कें और लॉजिस्टिक हब इस बात का सबूत हैं कि बीजिंग की दीर्घकालिक रणनीति भरोसे लायक बिल्कुल नहीं है.

सरकार के सैन्य योजनाकार निजी तौर पर मानते हैं कि "शांति और स्थिरता" को चुन-चुन कर लागू नहीं किया जा सकता. असली स्थिरता तभी आएगी जब 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल हो और पैट्रोलिंग अधिकारों पर पूरी तरह साफ तस्वीर सामने आए. ऊपर से अब तक चीनी सेना की डि-एस्केलेशन और डि-इंडक्शन (आक्रामकता को कम करना और पीछे हटना) को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है.

विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया कि दोनों नेताओं ने रूस के कजान में अक्टूबर 2024 में हुई पिछली मुलाकात (ब्रिक्स समिट के दौरान) के बाद से द्विपक्षीय रिश्तों में बने पॉजिटिव मोमेंटम और स्थिर प्रगति का स्वागत किया. दोनों ने फिर दोहराया कि भारत और चीन विकास के साझेदार हैं, प्रतिद्वंदी नहीं, और दोनों के बीच मतभेदों को विवाद में नहीं बदलना चाहिए.
 
विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया, “भारत और चीन के बीच स्थिर रिश्ते और सहयोग, जो आपसी सम्मान, साझा हित और एक-दूसरे की संवेदनशीलताओं के आधार पर हों, सिर्फ दोनों देशों की तरक्की और विकास के लिए ही नहीं, बल्कि 21वीं सदी के रुझानों के मुताबिक एक बहुध्रुवीय दुनिया और बहुध्रुवीय एशिया के लिए भी जरूरी हैं.”

मोदी ने जोर दिया कि भारत और चीन दोनों ही रणनीतिक स्वायत्तता की नीति अपनाते हैं, और इनके रिश्तों को किसी तीसरे देश की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए. दोनों नेताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि आतंकवाद और मल्टीलेटरल प्लेटफॉर्म्स पर निष्पक्ष और साफ-सुथरे व्यापार जैसे मुद्दों पर साझा आधार बढ़ाना जरूरी है- चाहे वे द्विपक्षीय हों, क्षेत्रीय हों या वैश्विक.

इसी सिलसिले में शी जिनपिंग ने कहा कि “दोनों देशों को मल्टीलेटरलिज्म, बहुध्रुवीय दुनिया और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में ज्यादा लोकतांत्रिक ढांचे को कायम रखने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभानी होगी, और एशिया व पूरी दुनिया में अमन और खुशहाली के लिए साथ काम करना होगा.”

“रणनीतिक स्वायत्तता” की ये बातें ऐसे वक्त पर आई हैं जब अमेरिका-चीन की तनातनी तेज है और भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड ढांचे के तहत अपनी सुरक्षा साझेदारियों को गहरा कर रहा है. मुलाकात में व्यापार और आर्थिक रिश्तों पर भी जोर दिया गया. दोनों नेताओं ने संतुलित विकास और भारत के चीन के साथ व्यापार घाटे को कम करने की जरूरत पर सहमति जताई. लेकिन भारत की सैन्य-रणनीतिक सोच के लिए आर्थिक बातचीत को सुरक्षा से अलग नहीं किया जा सकता. 

अहम सेक्टरों, जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा और यहां तक कि डिफेंस से जुड़े कच्चे माल, में चीन पर निर्भरता भारत की कमजोरी बनी हुई है. भारतीय डिफेंस प्लानर्स अब जोर देकर कह रहे हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा को निर्भरता से अलग रखना होगा. यही सोच मोदी सरकार के डिफेंस प्रोडक्शन में घरेलू उत्पादन और सप्लाइ चेन को डाइवर्सिफाई करने की मुहिम में भी झलकती है.

फौजी नजरिए से भारत यह बात साफ करना चाहता है कि पश्चिमी देशों के साथ उसका सहयोग सीधा-सीधा चीन के खिलाफ नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि एलएसी पर ताकत को कम किया जाएगा. बीजिंग को भेजा गया संदेश बिल्कुल साफ था: भारत बातचीत करेगा, लेकिन अपनी चौकसी ढीली किए बिना और अपनी संप्रभुता से कोई समझौता किए बिना.

पाकिस्तानी आतंकवाद पर रुख पर परखी जाएगी चीन की नीयत 

दिलचस्प बात यह रही कि बातचीत में आतंकवाद और मल्टीलेटरल प्लेटफॉर्म्स पर फेयर ट्रेड का मुद्दा भी उठा. इसका सीधा फौजी महत्व है क्योंकि चीन का रिकॉर्ड रहा है कि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान-आधारित आतंकी संगठनों को बचाता रहा है. भारतीय सुरक्षा हलकों के लिए सीमा-पार आतंकवाद पर बीजिंग का रुख ही भरोसा बनाने की उसकी नीयत की असली कसौटी है.

आ‌खिर में, मोदी की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलितब्यूरो स्थायी समिति के सीनियर मेंबर काई ची के साथ अलग मुलाकात ने यह दिखाया कि भारत टॉप-लेवल लीडरशिप से आगे भी बातचीत का दायरा बढ़ाना चाहता है. डिफेंस ऑब्जर्वर्स मानते हैं कि यह राजनैतिक चैनल तो अहम है लेकिन नाकाफी, जब तक कि इसे असली मिलिट्री-टू-मिलिट्री कॉन्फिडेंस-बिल्डिंग उपायों का सहारा न मिले. अगर बीजिंग वाकई स्थिरता चाहता है तो सैन्यकर्मियों की मीटिंग, हॉटलाइन मैकेनिज्म और जॉइंट कॉन्फिडेंस-बिल्डिंग एक्सरसाइज को फिर से शुरू करना अगला तार्किक कदम होगा.

कुल मिलाकर, तिआनजिन में मोदी और शी की मुलाकात ने सामान्य हालात की ओर धीरे-धीरे बढ़ते माहौल का संकेत तो दिया, लेकिन भारतीय फौजी हलके अब भी सतर्क हैं. भरोसा अभी अभी तक नहीं बना है, चीन की नीयत पर बारीकी से नजर रखी जा रही है और ऑपरेशनल तैयारी पर कोई समझौता नहीं है. दिल्ली के लिए बीजिंग से बातचीत जरूरी है, लेकिन डिटरेंस यानी रोकथाम की ताकत अनिवार्य है. वर्दीधारी हलकों से संदेश साफ है: अमन का स्वागत है, लेकिन हिमालयी सीमा पर अप्रत्याशित हालात से बचाव की गारंटी सिर्फ तैयारी ही है.

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