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मंत्री-प्रधानमंत्री को जेल भेजने वाले विधेयक में विपक्ष क्यों देख रहा है सरकार की चालबाजी?

विधेयकों को लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी उसके प्रावधानों से नहीं, बल्कि भारत में जांच-पड़ताल के तौर-तरीकों से उपजी है

Union Home Minister Amit Shah on Friday said that after Article 370's removal, Indian youth's involvement with terrorists in Jammu and Kashmir has largely ended.
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सदन में
अपडेटेड 22 अगस्त , 2025

20 अगस्त को संसद का मानसून सत्र स्थगित होने में बमुश्किल दो दिन बचे थे, जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तीन छोटे-छोटे विधेयक लेकर लोकसभा पहुंचे, लेकिन इसके प्रावधानों ने एक सियासी तूफान खड़ा कर दिया.

संविधान (130वां संशोधन) विधेयक, 2025, केंद्र शासित प्रदेशों की सरकार (संशोधन) विधेयक, 2025, और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025, मिलकर एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं.

इसके प्रावधानों के मुताबिक, किसी भी केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और यहां तक प्रधानमंत्री को भी कम से कम पांच साल की जेल की सजा वाले आरोपों में लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रखे जाने पर पद छोड़ना पड़ सकता है.

इन विधेयकों को लाना दरअसल एक ऐसी व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाने का प्रयास है जो यह सुनिश्चित करे कि लंबे समय से राजनीति के अपराधीकरण की समस्या से ग्रस्त रहे भारत में शीर्ष नेता जेलों की कोठरियों से शासन न कर पाएं. बुनियादी तौर पर यह विधेयक सिविल सेवकों के सेवा नियमों से प्रेरित है, जिन्हें गिरफ्तारी के बाद निलंबित कर दिया जाता है. सरकार का कहना है कि ये व्यवस्था निर्वाचित प्रतिनिधियों तक लागू करना संवैधानिक नैतिकता का मामला है.

केंद्र शासित प्रदेशों और जम्मू-कश्मीर के लिए संबंधित विधेयकों के साथ संविधान (130वां संशोधन) विधेयक कुर्सी खुद-ब-खुद छिनने की व्यवस्था स्थापित करता है. न्यूनतम पांच साल की सजा वाले आरोपों में लगातार 30 दिनों तक गिरफ्तार या हिरासत में रहने वाले किसी भी मंत्री को 31वें दिन पद से हटा दिया जाएगा, चाहे उन्हें दोषी ठहराया गया हो या नहीं अथवा उन पर मुकदमा शुरू भी न हुआ हो.

प्रावधानों के मुताबिक मंत्रियों को हटाने के लिए या तो 31वें दिन तक प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री से सलाह लेना आवश्यक होगा, और यदि ऐसी कोई सलाह नहीं दी जाती तो पद स्वतः खत्म हो जाएगा. प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के मामले में विधेयक 31वें दिन तक इस्तीफा देने या उसके बाद अपने आप पद खत्म होने का प्रस्ताव करता है. हालांकि, हटाए गए नेता-मंत्री सैद्धांतिक तौर पर रिहाई के बाद फिर से अपना पद संभाल सकते हैं लेकिन ये तो तय है कि इससे होने वाली राजनीतिक क्षति की भरपाई संभव नहीं होगी.
 
विधेयक लाने के पीछे कारण

ये विधेयक ऐसे ही नहीं लाए गए हैं. पिछले दो वर्षों के दौरान भारत ने दो ऐसे हाई-प्रोफाइल मामले देखे जिन्होंने ऐसी किसी व्यवस्था की कमी को उजागर किया. दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अरविंद केजरीवाल2024 में राजधानी की शराब नीति से संबंधित आरोपों में पांच महीने से ज्यादा समय तक जेल में रहे. जेल में होने के बावजूद उन्होंने इस्तीफे से इनकार कर दिया, जिससे दिल्ली सरकार को एक अभूतपूर्व व्यवस्था अपनाने को मजबूर होना पड़ा. और, केजरीवाल जेल से शासन चलाते रहे. उन्होंने अंतरिम जमानत मिलने के बाद ही पद से मुख्यमंत्री इस्तीफा दिया, वो भी सुप्रीम कोर्ट की शर्तों की वजह से क्योंकि उनके सचिवालय में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी.

दूसरे मामले में, तमिलनाडु सरकार में मंत्री वी. सेंथिल बालाजी को 2023 में मनी लॉन्डिंग  के एक मामले में गिरफ्तार किया गया. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने उन्हें बिना किसी विभाग के कैबिनेट में बनाए रखा, जिससे राज्यपाल आर.एन. रवि के साथ जबर्दस्त टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो गई. बालाजी को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर बहाल कर दिया गया था लेकिन कुछ महीने बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया जब अदालत ने फटकार लगाते हुए कहा कि उनकी उपस्थिति संवैधानिक मर्यादा के खिलाफ है.

बीजेपी के लिए ये मामले इसके प्रमाण हैं कि स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था के बिना शासन पंगु हो सकता है और जनता का विश्वास कमजोर हो सकता है. बीजेपी की दलील है कि ये विधेयक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भ्रष्टाचार के प्रति “जीरो टॉलरेंस” नीति का ही एक विस्तार हैं. प्रत्येक विधेयक के साथ संलग्न उद्देश्यों और कारणों का विवरण इस बात को जाहिर भी करता है. इसमें कहा गया है कि मंत्री “जनता की उम्मीदों और आकांक्षाओं” के प्रतीक हैं और उनका आचरण “किसी भी संदेह से परे” होना चाहिए. इसमें कहा गया है कि मंत्रियों को हिरासत में लिए जाने से “संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत” तो विफल होते ही हैं, निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति भरोसा घटने का भी जोखिम रहता है.
 
क्या हैं आपत्तियां

भारत के मुखर लोकतंत्र में इन विधेयकों को पेश करने के समय और तरीके ने अविश्वास और गहरा कर दिया है. आलोचकों का कहना है कि ये कार्यपालिका के अधिकारों का एक असाधारण विस्तार हैं, जिससे जांच एजेंसियों को राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ हथियार बनाकर इस्तेमाल करने का खतरा बढ़ सकता है. उनका कहना है कि ये समय चुना जाना भी कोई संयोग मात्र नहीं है.

बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) को लेकर बीजेपी और चुनाव आयोग (ईसी) को पहले ही आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में विपक्ष सरकार पर इस विवाद से ध्यान भटकाने की कोशिश करने का आरोप लगा रहा है. विपक्ष के कई लोगों का कहना है कि बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि बड़े बदलावों वाले इन विधेयकों के लिए संवैधानिक मंजूरी की बाधाएं पार करना आसान नहीं होगा- क्योंकि इनका संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना जरूरी है, और कम से कम आधे राज्यों के अनुमोदन की जरूरत पड़ेगी. उनका कहना है कि यही कारण है कि इन विधेयकों को सत्र के अंत में जल्दबाजी में पेश किया गया, जिससे सार्थक बहस या समीक्षा की कोई गुंजाइश न रहे.

सदन में जैसे ही तीनों विधेयक पेश किए, विपक्ष ने हंगामा शुरू कर दिया. जब अमित शाह ने विधेयक को समीक्षा के लिए एक संयुक्त समिति को भेजने का प्रस्ताव रखा तो कई विपक्षी नेताओं ने उसकी प्रतियां फाड़कर सत्ता पक्ष की ओर उछाल दीं, जिनमें से कुछ टुकड़े सीधे गृह मंत्री के सामने जाकर गिरे.

कांग्रेस सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस कदम को “विपक्षी सरकारों को अस्थिर करने का सबसे अच्छा तरीका” करार दिया. उन्होंने कहा, “सत्तारूढ़ दल के किसी भी मुख्यमंत्री को कभी छुआ तक नहीं जाता. लेकिन पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने वाली एजेंसियों का इस्तेमाल कर विपक्षी मुख्यमंत्री को गिरफ्तार लिया जाएगा और 31वें दिन तक उसे बिना किसी वोट या बिना किसी मुकदमे के अपनी कुर्सी गंवानी पड़ेगी.”

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा महासचिव को एक औपचारिक नोटिस में तर्क दिया कि ये कानून संघवाद, शक्तियों के पृथक्करण और उचित प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन है. ओवैसी ने कहा, “ये संशोधन कार्यकारी एजेंसियों को जज, जूरी और जल्लाद तीनों की भूमिका निभाने की खुली छूट दे देगा.” उन्होंने कहा कि संसदीय लोकतंत्र में किसी मंत्री को केवल विधायी विश्वास गंवाने या सरकार के मुखिया की सिफारिश के आधार पर ही हटाया जा सकता है.

विधेयकों को लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी उसके मूल पाठ से नहीं, बल्कि भारत में जांच-पड़ताल की कड़वी हकीकत से उपजी है. पिछले एक दशक में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) और केंद्र सरकार को रिपोर्ट करने वाली अन्य एजेंसियों पर अदालतों और विपक्षी दलों ने पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने के जमकर आरोप लगाए है. जुलाई में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई ने “सियासी लड़ाई” का हिस्सा बनने के लिए कड़ी फटकार लगाई थी. इसी माह के शुरू में अदालत की एक अन्य पीठ ने एजेंसी से कहा कि वह “सारी हदें पार” कर रही है. साथ ही, उसे ‘गुंडागर्दी’ वाला व्यवहार न करने की हिदायत भी दी थी.

प्रधानमंत्रियों को हटाने का प्रावधान शामिल करना, सरकार के पैरोकारों की नजर में निष्पक्षता का सबूत है. वहीं, आलोचकों को ये तर्क पूरी तरह खोखला लगता है क्योंकि उनका कहना है-केंद्रीय एजेंसियों के लिए किसी मौजूदा प्रधानमंत्री को गिरफ्तार करना असंभव है क्योंकि इनकी कमान उन्हीं के पास होती है.

विधेयकों को पेश करने के तरीके ने विपक्ष का गुस्सा और बढ़ा दिया है. शाह ने लोकसभा महासचिव को विधेयकों को शामिल करने का अनुरोध करते हुए 19 अगस्त की शाम एक पत्र लिखा, जबकि दो दिन बाद 21 अगस्त को सत्र समाप्त होने वाला था. गृह मंत्री ने स्पष्ट तौर पर नियम 19(ए) और 19(बी) में ढील मांगी, जिसके तहत विधेयक पेश करने से पहले सदस्यों को पूर्व सूचना देना और उसे सर्कुलेट करना आवश्यक है.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इस शर्त पर शाह का अनुरोध स्वीकार कर लिया कि विधेयकों को समीक्षा के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जाएगा. आलोचकों का कहना है कि अंतिम समय में इस तरह के कदम से अवसरवादिता की बू आती है, क्योंकि राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील किसी विधेयक को बिना पर्याप्त बहस के पेश करना मानसून सत्र के समाप्त होने से ऐन पहले विपक्ष को रक्षात्मक मुद्रा में लाने का एक तरीका है.
 
कैसे हो सकता है पारित

इन विधेयकों के पारित होने का रास्ता काफी जटिल है. सामान्य विधेयकों के विपरीत संविधान (130वां संशोधन) विधेयक अनुच्छेद 75 और 164 को प्रभावित करके संघीय संतुलन को बदलता है. इसलिए जरूरी है:
1. संसद के दोनों सदन कम से कम दो-तिहाई बहुमत से इसे पारित करें, और इस दौरान कम से कम 50 फीसद सदस्यों की उपस्थिति और मतदान जरूरी होगा.
2. संसद से पारित होने के बाद कम से कम आधे राज्य इसका अनुमोदन करें.
 
इसके विपरीत, केंद्र शासित प्रदेश और जम्मू-कश्मीर संबंधी विधेयक सामान्य संशोधन हैं जिनके लिए केवल साधारण बहुमत की जरूरत होगी. लेकिन राजनीतिक तौर पर इन तीनों को एक ही सुधार पैकेज के तौर पर पेश किया जा रहा है, जिससे इनका प्रतीकात्मक महत्व और संभावित प्रतिरोध दोनों बढ़ रहे हैं.
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास वर्तमान में दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत नहीं है. ऐसे में ये विधेयक तभी पारित हो सकते हैं जब मतदान के समय विपक्ष के एक बड़े हिस्से के सांसद अनुपस्थित हों. विपक्षी दलों के समर्थन के बिना इनके पारित होने की संभावना कम ही है. यहां तक, एनडीए के सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और अन्य छोटे सहयोगी दल भी इन प्रस्तावों के समर्थन में हिचकिचा सकते हैं. जैसी उम्मीद थी, इन विधेयकों को एक संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है.

बहरहाल, अगर किसी तरह इन्हें संसद से पारित करा भी लिया गया तो इन्हें संवैधानिक चुनौती मिलना भी लगभग तय है. वकीलों का तर्क है कि इन विधेयकों की वजह से सुप्रीम कोर्ट की तरफ से स्थापित “बुनियादी संरचना सिद्धांत” के साथ टकराव उत्पन्न हो सकता है, जो संघवाद और संसद की सर्वोच्चता से सुरक्षा देता है.

इस पूरे संवैधानिक नाटक के बीच मुख्य सवाल यही उभरकर आता है कि क्या वाकई ये विधेयक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक जरूरी सुधार है या फिर जैसा कांग्रेस नेता सिंघवी ने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, “चुनावी तौर पर विपक्ष को हराने में नाकाम रहने पर ये मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां” करके “विपक्ष को अस्थिर करने का सबसे अच्छा तरीका” है. इसका उत्तर ही आने वाले वर्षों में भारतीय लोकतंत्र की दिशा तय करेगा.

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