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माओवादी सरेंडर को तैयार! अब आगे क्या हो सकता है?

भाकपा-माओवादी की तरफ से जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक यह संगठन आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार है और सरकार से बातचीत करना चाहता है

प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो- AI)
अपडेटेड 19 सितंबर , 2025

देश के अंदर चल रहे सबसे बड़ा 'आंतरिक संघर्ष' अब खात्मे की ओर है. भाकपा-माओवादी का पूरा संगठन सरेंडर करना चाहता है. माओवादियों के प्रवक्ता अभय ने एक प्रेस रिलीज जारी कर भारत सरकार को सूचना दी है कि वे सभी सरेंडर करना चाहते हैं और सरकार के साथ शांति वार्ता को आगे बढ़ाना चाहते हैं. साथ ही अनुरोध किया गया है कि इसके लिए उन्हें एक महीने का वक्त दिया जाए और इस दौरान किसी तरह का कोई ऑपरेशन न चलाया जाए. 

बीते 15 अगस्त की तारीख में जारी की गई यह प्रेस रिलीज दो दिन पहले मीडिया से पास पहुंची है. इसमें प्रवक्ता अभय ने लिखा है कि बदले हुए विश्व एवं देश की परिस्थितियों के अलावा देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री की ओर से हथियार छोडऩे की अपील के मद्देनजर उनके साथियों ने हथियार छोड़ने का फैसला लिया है. माओवादियों की तरफ से वादा किया गया है कि वे भविष्य में जनसमस्याओं के समाधान को लेकर तमाम राजनीतिक दलों और संस्थाओं के साथ मिलकर काम करेंगे. 

अभय भाकमा माओवादी के केंद्रीय कमेटी के प्रवक्ता हैं. फिलहाल वे छत्तीसगढ़ और झारखंड में एक्टिव हैं.

पत्र में लिखा गया है, "हमारी इस पहल पर संगठन के कई साथी सहमत हैं, लेकिन देशभर में रह रहे तमाम साथियों, जिनसे फिलहाल संपर्क नहीं है, उनसे भी मशवरा करना है. इसके लिए एक महीने का समय दिया जाए. संगठन की तरफ से इसके लिए ईमेल आईडी भी जारी की गई है. ताकि संगठन के लोग वहां अपना विचार रख सकें. इससे आधार पर सहमत हुए लोगों का एक दल बनाकर हम सरकार के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हैं.” 

फिलहाल इस पत्र की वैधता जांची जा रही है और सरकार की तरफ से अभी इस पर कोई जवाब नहीं दिया गया है. बावजूद इसके, साल 2025 में माओवादियों की तरफ से ऐसी पहल कई बार की गई हैं. तब भी, जब बीते 21 मई को आंध्र प्रदेश की सीमा से सटे छत्तीसगढ़ के गुंडेकोट इलाके में पार्टी के सुप्रीम लीडर और महासचिव बसवाराजू सहित कुल 28 माओवादियों को पुलिस ने मार गिराया. लेकिन केंद्र सरकार ने अभी तक माओवादियों की इस अपील को गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि माओवादियों के खिलाफ अभियान को और तेज कर दिया. फिलहाल भारत सरकार अपनी शर्तों पर समझौता करने की स्थिति में है. माओवादी किसी भी तरह के मोल-भाव की स्थिति में नहीं हैं. 

इस बीच पार्टी की तेलंगाना राज्य समिति ने भी एक प्रेस रिलीज जारी की है. इसमें अभय के बयान से किनारा किया गया है. इस प्रेस रिलीज के मुताबिक माओवादी नेता जगन ने कहा है कि माओवादी नेता अभय ने जो प्रेस रिलीज दी है, वह माओवादी पार्टी का फैसला नहीं है. उन्होंने आगे यह भी कहा है कि गुप्त संगठन के फैसले इंटरनेट पर नहीं लिए जाते और यह बयान आधिकारिक नहीं है, इससे किसी को भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है.

माओवादियों को आत्मसमर्पण का मौका मिलना चाहिए?

इस पत्र के बाद चर्चा इस बात पर है कि क्या सरकार को इन माओवादियों को यह मौका देना चाहिए. छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी आरके विज कहते हैं, "जो प्रेस रिलीज जारी की गई है, उससे साफ जाहिर होता है कि सीनियर काडर में एकराय नहीं है. बातचीत की पेशकश पूरी पार्टी की नहीं लग रही है. दूसरी बात ये कि उन्होंने अपने तरफ से अस्थाई युद्ध विराम की बात कही है. इसका मतलब पार्टी बनी रहेगी. ऐसा ये नुकसान वाली स्थिति से बचने के लिए करते हैं. अगर सभी सरेंडर कर देंगे तो पार्टी इनकी खत्म हो जाएगी.’’ 

विज का कहना है कि अगर इनको सच में सरेंडर करना है तो सबसे पहले लोगों को मारना बंद करना चाहिए. अपने निचले स्तर के काडर को नियंत्रित करना चाहिए. पूरे मसले पर पार्टी का रुख आना चाहिए, न कि किसी एक व्यक्ति का.

हालांकि बस्तर में लंबे समय से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया का कहना है कि सरकार को बिना समय गंवाए माओवादियों के ऑफर पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. वे कहती हैं, "वे कह रहे हैं कि हम अंडरग्राउंड हैं, एक दूसरे से बात करने के लिए समय दिया जाए. अगर किसी के साथ लंबे समय से लड़ाई चल रही है और वह अपना विचार बदल रहा है, बातचीत के लिए तैयार है, तो इसे एक अवसर की तरह लेना चाहिए. अगर सब एक साथ नहीं भी आ रहे हैं, आधे लोग भी आ रहे हैं, तब भी सरकार को मौका देना चाहिए.” 

भाटिया के मुताबिक इस समय एक राजनीतिक संवाद शुरू करने की जरूरत है क्योंकि इस लड़ाई में आमलोगों का खून बहुत बहा है. ऐसे में तो सरकार भी बिना जवाब दिए बच कर नहीं निकल सकती. वे अपनी बात आगे बढ़ाती हैं, "सरकार को यह आश्वासन देना होगा कि जिन इलाकों में ये लड़ाई है वहां के आदिवासियों के हितों का पूरा ध्यान रखा जाएगा. जमीन, जंगल संबंधित कोई कानून नहीं तोड़ा जाएगा.” 

झारखंड के पूर्व डीजीपी डीके पांडेय माओवादियों के पूरे प्रस्ताव पर ही सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, "सरकार की किसी को मारने में रुचि नहीं होती है. अगर माओवादी संगठन में किसी व्यक्ति या समूह को सरेंडर करना है, तो सीधे आकर सरेंडर कर दें. सरकार ने तो इसके लिए तमाम सुविधाएं तय कर रखी है. इसमें बातचीत करने जैसी क्या बात है. दूसरी बात जो पत्र आया है और जिसने इसे जारी किया है, दोनों की क्रेडिबिलिटी देखनी होगी. वैसा कोई संगठन है भी कि नहीं, सरकार किसी दीवार से तो बात करेगी नहीं.’’ 

कोशिश पहले भी हुई हैं 

माओवादी और सरकार के बीच पहली बार साल 2002 में आंध्र प्रदेश में बातचीत की शुरुआत हुई थी. इसके बाद साल 2004 में 15 से 17 अक्टूबर तक आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में बातचीत की शुरुआत की गई. हालांकि इसके पहले ही 11 अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के प्रकाशम और महबूबनगर ज़िलों में 6 माओवादी मुठभेड़ में मारे गए. जवाब में 16 अक्टूबर को नक्सलियों ने विधायक आदिकेशावुलू नायडू की हत्या कर दी. जाहिर है कि बातचीत आगे नहीं बढ़ पाई

फिर साल 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार में गृहमंत्री रहे पी. चिदंबरम ने शांति वार्ता की पहल की. माओवादियों की तरफ से केंद्रीय समिति के सदस्य और प्रवक्ता चेरिकुरी राजकुमार उर्फ आज़ाद बातचीत के लिए तैयार थे और मध्यस्थ की भूमिका में स्वामी अग्निवेश थे. तैयारी के बीच में 1 जुलाई 2010 को आज़ाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने आंध्र प्रदेश में एक मुठभेड़ में मारने का दावा किया. इसी के साथ बातचीत की प्रक्रिया भी ख़त्म हो गई. साल 2011 में माओवादी नेता किशनजी ने बातचीत की इच्छा जताई, लेकिन 24 नवंबर 2011 को उनके मारे जाने के बाद यह बातचीत भी शुरु नहीं हो पाई. 

पिछले साल जब बस्तर में सुरक्षाबलों के ऑपरेशन तेज़ हुए तो माओवादियों ने फिर बातचीत की पेशकश की. इस साल 28 मार्च 2025 को माओवादियों की केंद्रीय समिति ने बयान जारी किया और कहा कि हम वार्ता के लिए तैयार हैं, बशर्ते 'ऑपरेशन कगार' रोका जाए. सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया. फिर 2 अप्रैल को बयान जारी कर कहा कि वे बातचीत को तैयार हैं, बशर्ते 'ऑपरेशन कगार' रोका जाए. प्रवक्ता अभय ने कहा कि अगर सरकार सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है, तो वे तुरंत संघर्ष विराम घोषित करेंगे. फिर 25 अप्रैल को अभय ने कहा कि, निर्धारित समय सीमा के साथ संघर्षविराम की घोषणा की जाए और बिना शर्त शांति वार्ता शुरू हो.

फिलहाल गेंद केंद्र सरकार के पाले में है. सरकारी दावों के मुताबिक लड़ाई अंतिम चरण में है. अंत हिंसक होगी या फिर इसके लिए संवाद का रास्ता अख्तियार किया जाएगा, जवाब का इंतजार सबको है. 

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