लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. 4 जून को जब चुनावी नतीजे जारी होने के साथ ही कई मुद्दे एकाएक चर्चा के पटल पर भी आ गए. जैसे लगभग सारे ही एग्जिट पोल्स का गलत साबित होना, यूपी खास तौर पर अयोध्या में भाजपा की हार, महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन की बढ़त, ओडिशा में नवीन पटनायक की विदाई और पश्चिम बंगाल में एक बार फिर से 'ममता दीदी' का मजूबत होकर उभरना.
चुनावी नतीजों से ठीक पहले जारी किए गए एग्जिट पोल्स में पश्चिम बंगाल में भाजपा टीएमसी पर अपनी भारी बढ़त बनाती दिख रही थी. एग्जिट पोल्स के आंकड़े ओडिशा में भी बीजेपी को 50 फीसदी से ज्यादा का स्ट्राइक रेट दे रहे थे. लेकिन 4 जून को जब असल नतीजे जारी हुए तब तस्वीर का एक पहलू काफी चौंकाने वाला था.
भले ही ओडिशा में बीजेपी लोकसभा और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरकर सामने आई हो, पर नतीजों के मुताबिक बंगाल की जनता पर 'भगवा रंग' ना चढ़ सका. जहां 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने बंगाल की 18 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था वहीं 2024 में यह आंकड़ा 6 सीटें घटकर 12 पर आ गया. हालांकि ओडिशा में बीजेपी 21 में से 20 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही. वहीं विधानसभा की 147 सीटों में से 78 सीटों पर भाजपा का कब्जा कायम हुआ. वहीं बीजेडी 51 और कांग्रेस को 14 सीटें हासिल हुईं.
2019 के ओडिशा विधानसभा चुनाव में बीजेडी को 112 सीटें मिली थीं. वहीं भाजपा ने 23 और कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन 2024 में बंगाल और ओडिशा दोनों में ही, लड़ाई सत्ताधारी क्षत्रपों-ममता और नवीन के राजनीतिक उत्तराधिकारियों को स्थापित करने की थी. अगर बंगाल की बात करें ममता अपने प्रयास में सफल रही हैं क्योंकि भतीजे अभिषेक बनर्जी की टीएमसी के चेहरे के रूप में पार्टी की भारी बढ़त ने उनकी स्थिति को मजबूती दी है. लेकिन ओडिशा में 77 वर्षीय नवीन अपनी सत्ता नहीं बचा पाए. ओडिशा में यह धारणा काफी प्रचलित हुई कि नवीन की सरकार तमिल निवासी पूर्व नौकरशाह वीके पांडियन के हाथों में जा रही थी.
बंगाल में टीएमसी द्वारा 42 लोकसभा सीटों में से 29 सीटें जीतने का श्रेय काफी हद तक अभिषेक और उनकी रणनीतियों को दिया जा सकता है. अभिषेक ने खुद भी डायमंड हार्बर सीट से सात लाख से अधिक वोटों के रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की. टीएमसी में टिकट देने में भी उनकी अच्छी खासी दखलअंदाजी देखने को मिली और उनके चुने कई सारे उम्मीदवार जीत कर भी आए. इसके अलावा राष्ट्रवाद, केंद्र सरकार के नरेगा और पीएम आवास योजना के लिए धन जारी ना करना और संदेशखाली जैसे मुद्दों को भी अभिषेक ने काफी अच्छे से संभाला.
दूसरी ओर ओडिशा में पांडियन ने भी बीजेडी के लिए रणनीति बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई, मौजूदा सांसदों और विधायकों को बदलने और विकास समर्थक कहानी स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन कुछ भी उम्मीदों के मुताबिक काम नहीं आया. ओडिशा में तमिलों के वर्चस्व वाली कहानी ने सभी अन्य कारकों को पीछे छोड़ दिया. भाजपा ने राज्य सरकार में पांडियन के वर्चस्व पर सवाल उठाते हुए ओडिया राष्ट्रवाद का सहारा लिया.
बंगाल और ओडिशा पर करीबी नजर रखने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, "यह देखना दिलचस्प है कि कैसे प्रस्तावित उत्तराधिकारियों ने एक राज्य में भाजपा के विजय रथ को रोक दिया, लेकिन दूसरे राज्य में वे उससे पराजित हो गए."
ओडिशा में मिली जीत को भाजपा अपनी उपलब्धि मानती है, जबकि लोकसभा में उसे बहुमत नहीं मिला है. यह बात तब स्पष्ट हो गई जब 4 जून की शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली में भाजपा कार्यकर्ताओं को 'जय जगन्नाथ' कहकर बधाई दी. विडंबना यह है कि भाजपा के नए पुरी सांसद संबित पात्रा ने चुनाव प्रचार के दौरान गलती से भगवान जगन्नाथ को 'मोदी का भक्त' कह दिया था, जिसे बीजेडी ने चुनावी मुद्दा बनाने की असफल कोशिश भी की.
- अर्कमय दत्ता मजूमदार