
साल 1987, कांग्रेस को हरियाणा के विधानसभा चुनाव में ताऊ देवीलाल की इंडियन नेशनल लोकदल ने करारी शिकस्त दी. कांग्रेस पार्टी को 90 में से सिर्फ 5 सीटें मिल पाई. मां इंदिरा के निधन के बाद कांग्रेस में अपनी धाक जमाने की कोशिश में लगे राजीव के लिए यह हार एक जोरदार झटका थी.
उस वक्त राजीव अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह के लगाए बोफोर्स घोटाले के आरोपों में घिरे थे. एकतरफ हरियाणा तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति चुनाव राजीव के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. ऐसे में राजीव ने उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री से एक दरख्वास्त की थी.
दरख्वास्त ऐसी कि इसे चुनाव आयुक्त ने संविधान के खिलाफ बताकर मानने से इनकार कर दिया. इंडिया टुडे में 15 नवंबर 1989 को छपी पंकज पचौरी की रिपोर्ट के मुताबिक, राजीव से चुनाव आयुक्त का विवाद इतना बढ़ गया था कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था.
इस स्टोरी में वो किस्सा, जब राहुल के पिता राजीव एक दरख्वास्त नहीं मानने पर चुनाव आयोग से भिड़े थे और देश में पहली दफा 3 चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति हुई.
एक दरख्वास्त और पहली बार 3 चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति
इस कहानी की शुरुआत 1984 में होती है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर पर सवार होकर राजीव गांधी 414 सीटों के साथ सत्ता में आए. इस लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 514 में से कांग्रेस को 404 सीटों पर जीत मिली. वहीं, सितंबर और दिसंबर 1985 में पंजाब और असम में हुए चुनाव में कांग्रेस को 10 और सीटें मिलीं.
2 साल बाद 1987 में हरियाणा होने वाले विधानसभा चुनाव और राष्ट्रपति चुनाव में राजीव को अपनी राजनीति हैसियत साबित करनी थी. इससे ठीक एक साल पहले 1986 में उन्हीं के वित्त मंत्री वीपी सिंह ने उनपर बोफोर्स घोटाले का आरोप लगा दिया. वीपी सिंह के निर्देश पर बोफोर्स घोटाले की जांच शुरू हो गई. राजीव इन आरोपों के बीच हरियाणा विधानसभा चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव से पहले कराना चाहते थे.
13 फरवरी 1990 को अरुणाचल टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1987 में राजीव गांधी ने उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री से राष्ट्रपति चुनाव से पहले हरियाणा में चुनाव कराने की दरख्वास्त की, ताकि कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिल सके. आरवीएस पेरी शास्त्री ने न सिर्फ उनके इस मांग को ठुकरा दिया, बल्कि इसे असंवैधानिक भी बता दिया. हालांकि इस बात का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता.
17 जून 1987 को हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए. हरियाणा में कांग्रेस को करारी हार मिली. बंसीलाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही कांग्रेस को 90 में से सिर्फ 5 सीटों पर जीत हासिल हुई.
इस हार से राजीव को गहरा धक्का लगा. यहीं से मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री और प्रधानमंत्री राजीव के बीच टकराव बढ़ने लगा. करीब एक साल बाद जून 1988 को फरीदाबाद में लोकसभा उपचुनाव हुए.

इस उपचुनाव में भारी हिंसा और बूथ कैप्चरिंग की शिकायतें आईं. राजीव गांधी सरकार ने इस लोकसभा में दोबारा चुनाव की मांग की, जिसे चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया. पेरी शास्त्री ने केवल 161 मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराने के आदेश दिए. इतना ही नहीं मुख्य चुनाव आयुक्त ने सरकार पर पक्षपातपूर्ण मांग करने और चुनाव आयोग की स्वायत्तता को प्रभावित करने का आरोप भी लगा दिया.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट मुताबिक, मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री से नाराज राजीव गांधी ने अक्टूबर 1989 में एक ऐतिहासिक फैसला लिया. आजादी के बाद पहली बार राजीव गांधी सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के अलावा दो अतिरिक्त चुनाव आयुक्तों एस.एस. धनोआ और वी.एस. सिगेल की नियुक्ति की. इससे पहले चुनाव आयोग के सिर्फ एक आयुक्त हुआ करते थे, लेकिन अब चुनाव आयोग में अहम फैसला लेने के लिए तीन चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए.
पत्रकार पंकज पचौरी ने इंडिया टुडे की रिपोर्ट में लिखा कि सरकार के इस फैसले के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री ने इस्तीफा देने का फैसला लिया था, लेकिन बाद में लोकसभा चुनाव को नजदीक देखते हुए उन्होंने अपना मन बदल लिया.
राजीव और पेरी शास्त्री के बीच लोकसभा चुनाव से पहले बढ़ गया मतभेद
साल 1989 में लोकसभा चुनाव होना था. राजीव हर हाल में इस चुनाव में जीत हासिल करना चाहते थे. अब तक इस बात को लेकर संशय था कि लोकसभा चुनाव के साथ दर्जनों राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे या उससे पहले या बाद में होंगे. कुछ लोग साथ ही चुनाव कराए जाने की भी अटकलें लगा रहे थे.
इन अटकलों पर जवाब चुनाव आयोग को देना था, लेकिन इससे पहले ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने एक बयान से सबकुछ साफ कर दिया. 31 अक्टूबर 1989 को भास्कर राय की इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि मुंबई में राजीव गांधी ने आम चुनाव के साथ राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने पर कहा, "हम तो वही करेंगे, जो राज्यों के मुख्यमंत्री चाहेंगे." इससे करीब-करीब साफ हो गया था कि राजीव दोनों चुनाव साथ कराएंगे, क्योंकि उनके ज्यादातर मुख्यमंत्री ऐसा ही चाहते थे.
राजीव गांधी ने हडबड़ाहट में सारी सीमाएं लांघ दी थीं. उन्होंने समय से पहले चुनाव कराने का मन बनाया. इस कहानी को अमलीजामा पहनाने की शुरुआत 6 अक्तूबर को हुई.
उस दिन प्रधानमंत्री के आवास 7 रेसकोर्स रोड में सबकुछ आम दिनों की तरह चल रहा था. राजीव गांधी दक्षिण भारत के अपने दौरे से लौटे ही थे. उनका प्लान पूरे दिन आराम करने का था, लेकिन परिवार से भी मिलने से पहले उन्होंने अपने भरोसेमंद कुछ साथियों से मिलना पसंद किया.
इंडिया टुडे रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने अपने विश्वस्त सहयोगी वी. जॉर्ज से बातचीत की. आदेश के मुताबिक जॉर्ज ने सभी 58 केंद्रीय मंत्रियों से संपर्क साधा और उन्हें अगले दिन सुबह ठीक 9 बजे एक बैठक में आने को कहा. किसी भी मंत्री को हवा तक न थी कि क्या होने वाला है.
पौ फटते ही राजीव ने राजनैतिक मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति के पांचों सदस्यों को सुबह 8.30 बजे मुलाकात का बुलावा भेजा. इनमें से तीन- गृहमंत्री बूटा सिह, रक्षामंत्री कृष्णचंद पंत और विदेशमंत्री पी.वी. नरसिहराव ठीक वक्त पर आ गए.

वित्तमंत्री एस.बी.चव्हाण और मानव संसाधन विकासमंत्री पी. शिवशंकर विदेश में थे. राजीव ने इस बैठक में घोषणा की, “मैं चुनावों के लिए तैयार हूं.” किसी ने भी ऐसे समय में चुनाव कराने या उनके फैसले के खिलाफ बोलने की जुर्रत नहीं की. इसके बाद राजीव की अगुआई में तीनों मंत्री अगले हॉल में होने वाली बैठक में पहुंचे, जहां करीब 40 मंत्री मौजूद थे. राजीव ने कहा, “हमने चुनाव कराने का फैसला किया है.” इस बार भी उनके मंत्रियों को अगर कोई आशंका थी, तो उन्होंने जाहिर नहीं की.
17 अक्टूबर की सुबह, सरकार ने 22 नवंबर को आम चुनाव कराने का अपने आप फैसला किया और यहां तक कि अपने फैसले को सार्वजनिक भी कर दिया. जब इसकी जानकारी मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री को हुई तो उन्होंने इसे असंवैधानिक करार दिया. उन्होंने शुरू में इस घोषणा को स्वीकार करने से इनकार किया, लेकिन विपक्षी नेताओं से बातचीत और लोकतंत्र के हित में 22 अक्टूबर 1989 को औपचारिक अधिसूचना जारी कर दी.
लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 197 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. इस बार कांग्रेस को 217 सीटों का नुकसान हुआ था. 145 सीटों के साथ वीपी सिंह की जनता दल दूसरे नंबर पर थी. राष्ट्रपति के आमंत्रण पर भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन हासिल कर जनता दल की सरकार बनी.

वीपी सिंह ने चुनाव आयुक्त को लेकर राजीव के फैसले को पलटा
जनवरी 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने राजीव गांधी सरकार में पहली बार नियुक्त किए गए दो अन्य चुनाव आयुक्तों धनोआ और सिगेल की नियुक्तियों को रद्द कर दिया, जिससे चुनाव आयोग में फिर से सिर्फ एक आयुक्त हो गए. वीपी सिंह सरकार का यह फैसला मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री के पक्ष में माना गया, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सही माना.
1 अक्टूबर 1993 को नरसिम्हा राव सरकार ने दोबारा से दो अतिरिक्त चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की, जिससे चुनाव आयोग स्थायी रूप से तीन-सदस्यीय बन गया. इस निर्णय को औपचारिक रूप से राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने मंजूरी दी. इस समय टी.एन. शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त और दो नए चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल और जी.वी.जी. कृष्णमूर्ति थे.