जस्टिस ए. एम. खानविलकर देश के नए लोकपाल नियुक्त किए गए हैं . पिछले ही दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, देश के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी की एक उच्च स्तरीय समिति ने उनकी नियुक्ति पर मुहर लगाई थी. खानविलकर के अलावा राष्ट्रपति द्रौपदी मु्र्मू ने लोकपाल के लिए 6 अन्य सदस्यों की भी नियुक्ति की है. 27 फरवरी को इस सिलसिले में राष्ट्रपति भवन से एक बयान जारी हुआ जिसमें इन नियुक्तियों की जानकारी दी गई है.
2014 में लोकपाल कानून लागू होने के बाद 66 साल के अजय माणिकराव खानविलकर देश के महज दूसरे लोकपाल हैं. मार्च 2019 में देश के पहले लोकपाल बने थे- सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष. वे मई 2022 में रिटायर हो गए. इसके बाद लोकपाल अध्यक्ष की कुर्सी बतौर कार्यवाहक झारखंड हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज. प्रदीप कुमार मोहंती संभाल रहे थे.
राष्ट्रपति ने जिन छह लोगों की नियुक्ति की है उनमें तीन न्यायिक सदस्य हैं. ये हैं- जस्टिस लिंगप्पा नारायण स्वामी, जस्टिस संजय यादव और जस्टिस ऋतुराज अवस्थी. जस्टिस अवस्थी विधि आयोग के अध्यक्ष भी हैं. जबकि गैर न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्त हुए बाकी तीन लोग हैं- सुशील चंद्रा, पंकज कुमार और अजय तिर्की. लोकपाल या उसके सदस्यों का कार्यकाल 5 साल या 70 साल की उम्र तक जो पहले हो, उसके हिसाब से होता है. आइए अब खानविलकर के बारे में और विस्तार से जानते हैं.
जस्टिस खानविलकर करीब 19 महीने पहले (जुलाई 2022) न्यायाधीश के तौर पर सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए थे. यहां उनका कार्यकाल 6 सालों का रहा था. पर एक जज के रूप में उनके करियर की शुरुआत मार्च 2000 में हुई, जब वे बॉम्बे हाईकोर्ट के लिए चुने गए. बाद के दिनों में वे हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश भी बने. बतौर सुप्रीम कोर्ट, जज खानविलकर ने 226 फैसले दिए, 817 बेंचों का हिस्सा रहे. लेकिन उनके कई फैसले काफी विवादास्पद रहे. आइए उन पांच बड़े और विवादित फैसलों पर एक सरसरी निगाह डालते हैं.
आधार कानून की संवैधानिक वैधता पर फैसला, 2018
साल 2018 में जस्टिस खानविलकर सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच का हिस्सा रहे जिसने आधार कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए फैसला सुनाया था. याचिकाकर्ताओं ने तब ये दलील थी कि इस कानून से नागरिकों की निजता का हनन होता है. लेकिन कोर्ट ने इसे मानने से इनकार कर दिया था. बल्कि उसने सरकारी सब्सिडी और लाभों के लिए आधार को अनिवार्य करने की बात कही थी. हालांकि तब बेंच का हिस्सा रहे जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने आधार को असंवैधानिक बताते हुए बहुमत की राय से इतर अपनी राय व्यक्त की थी.
यूएपीए के तहत जमानत पर फैसला, 2019
अप्रैल, 2019 में दो जजों की बेंच की अध्यक्षता करते हुए जस्टिस खानविलकर ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (यूएपीए) के तहत जमानत देने पर फैसला सुनाया था. तब उन्होंने कहा था कि यूएपीए के मामलों में जमानत पर फैसला सुनाते समय अदालतें अभियोजन पक्ष के सबूतों की जांच नहीं कर सकतीं. आलोचकों ने इस फैसले पर कहा था कि इससे "एक नया सिद्धांत बना है" जिसने यह सुनिश्चित किया है कि एक आरोपी को पूरे मुकदमे के दौरान हिरासत में रहना चाहिए, भले ही उसके खिलाफ सबूत संदिग्ध हो.
FCRA कानून, 2020 पर फैसला
साल 2022 में जस्टिस खानविलकर ने विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन कानून (FCRA),2020 पर फैसला सुनाया था. उन्होंने तीन जजों की बेंच की अध्यक्षता करते हुए इस कानून में हुए संशोधनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था. इसी संशोधित कानून ने कई गैर-लाभकारी संगठनों यानी एनजीओ की विदेशी फंडिंग जुटाने और उसका उपयोग करने की क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया था.
जाकिया जाफरी की याचिका पर फैसला
जाकिया जाफरी के पति और सांसद एहसान जाफरी 2002 में हुए गुजरात दंगों में मारे गए थे. इस दंगे की जांच कर रही एसआईटी (विशेष जांच दल) ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 64 लोगों को क्लीन चिट दे दी थी. तब जाकिया ने सुप्रीम कोर्ट में एसआईटी के इस फैसले को चुनौती देने के लिए अर्जी डाली. अर्जी की सुनवाई कर रही बेंच ने इसे खारिज कर दिया. उल्टे इस फैसले ने याचिकाकर्ताओं के अदालत जाने के इरादों पर भी सवाल उठाए. इस बेंच का हिस्सा जस्टिस खानविलकर भी रहे थे. सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के आधार पर गुजरात पुलिस ने अगले ही दिन दंगों से जुड़े सबूत गढ़ने के आरोप में कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड और पूर्व आईपीएस अधिकारी आर.बी. श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया था.
पीएमएलए कानून और ईडी पर फैसला
साल 2022 में ही अपने रिटायरमेंट से महज दो दिन पहले जस्टिस खानविलकर ने एक फैसला सुनाया, जिसने धन शोधन निवारण कानून (पीएमएलए) के तहत प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को जबर्दस्त शक्ति प्रदान की. अदालत ने तब अपने फैसले में कहा था कि धारा 19 जो ईडी को किसी को गिरफ्तार करने की शक्ति प्रदान करती है, वो जायज है. और धारा 5 जो मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल लोगों की संपत्ति की कुर्की से संबंधित है, संवैधानिक रूप से वैध है. शीर्ष अदालत ने तब ये भी कहा था कि हरेक मामले में संबंधित व्यक्ति को प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट यानी ईसीआईआर देना जरूरी नहीं है. ईसीआईआर के बारे में इतना समझिए कि ये पुलिस एफआईआर के बराबर होती है.
जस्टिस खानविलकर ने इसके अलावा सबरीमाला मामला (2018), धारा 377 (इस फैसले में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया था), (2018) जैसे फैसले भी सुनाए. हालांकि सबरीमाला फैसले के एक साल बाद उन्होंने अपना मत बदल लिया था और एक बड़ी बेंच से इस पर पुनर्विचार करने की बात कही थी.