प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 13 से 15 सितंबर के बीच भारत के बेचैन पूरब की तीन दिवसीय यात्रा ने BJP की चुनावी रणनीति का अनोखे ढंग से दोटूक खुलासा किया. मणिपुर के जातीय नरसंहारों के मैदानों से लेकर असम की बेदखली की गवाह जगहों तक और फिर चुनाव की ओर बढ़ रहे पश्चिम बंगाल और बिहार तक मोदी ने लगातार एक ही थीम पर जबानी हथौड़ा चलाया .
यह थीम थी कि अवैध आप्रवासी भारत के जनसांख्यिकीय संतुलन के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं और केवल उनकी पार्टी इसे रोक सकती है. जाहिरा तौर पर तो यह यात्रा हजारों करोड़ रुपए की विकास परियोजनाओं का उद्घाटन करने के लिए थी, लेकिन इसमें वह अभियान भी लॉन्च कर दिया गया जिसके आने वाले विधानसभा चुनावों में BJP का केंद्रीय संदेश होने की संभावना है.
बिहार में इसी साल चुनाव होने हैं, उसके बाद 2026 में असम और बंगाल के चुनाव होंगे. इन राज्यों की बांग्लादेश के साथ सटी सीमाएं सूराखदार हैं और दशकों की जनसांख्यिकीय हलचल की गवाह रही हैं. मोदी की यात्रा के कार्यक्रम का हरेक पड़ाव भारत में प्रवासियों के आने से जुड़ी चिंताओं के अलहदा पहलू की नुमाइंदगी करता था, और इसकी बदौलत वे अपने संदेश को स्थानीय तकलीफों और शिकायतों के हिसाब से नाप-तौलकर गढ़ पाए और साथ ही जनसांख्यिकीय खतरे के बारे में राष्ट्रीय नैरेटिव भी खड़ा कर पाए.
मणिपुर : म्यांमार की छाया
मोदी की 13 सितंबर को मणिपुर की यात्रा का असाधारण प्रतीकात्मक महत्व था. यह मैतेई और कूकी-ज़ो के बीच जातीय हिंसा फूट पड़ने के बाद राज्य में उनकी पहली हाजिरी थी. मई और अगस्त 2023 के बीच इस हिंसा में करीब 200 लोग मारे गए और 60,000 विस्थापित हुए. इस रक्तपात की जड़ें आप्रवासियों के ठीक उसी डर में थीं जिसे अब मोदी राजनैतिक सान पर चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. मोदी ने इंफाल में ऐलान किया कि केंद्र सरकार जनसांख्यिकीय मिशन लेकर आ रही है और पूरे देश को घुसपैठियों से मुक्त करके ही मानेगी.
मणिपुर में टकराव की शुरुआत तब हुई जब एन. बीरेन सिंह की सरकार ने उन लोगों के खिलाफ आक्रामक अभियान छेड़ दिया जिन्हें वे म्यांमार के गैरदस्तावेजी प्रवासी कहती थी. मैतेई धड़े लंबे वक्त से कहते आ रहे हैं कि म्यांमार के चिन शरणार्थियों ने, जो जातीय तौर पर कुकी-ज़ो समुदायों से जुड़े हैं, राज्य का जनसांख्यिकीय संतुलन बिगाड़ दिया है. इसके जवाब में कुकी-ज़ो का कहना है कि वे इसी जमीन के मूल निवासी हैं और प्रवासियों के विरोध में चल रहा अभियान और कुछ नहीं बल्कि इसकी आड़ में उनके पुरखों की जमीनों पर कब्जा करने की कोशिश भर है.
चूराचांदपुर और इंफाल की यात्राओं में, जहां उन्होंने 8,500 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन किया, मोदी इन निश्चित तनावों का साफ-साफ जिक्र करने से सावधानीपूर्वक बचते रहे. फिर भी सरहदी इलाकों में जनसांख्यिकीय साजिशों के बारे में उनकी चेतावनियों ने उस राज्य में लोगों के मन को जोरदार ढंग से छुआ जहां घुसपैठ की वजह से सांप्रदायिक हिंसा भड़कती रही है. उनकी सरकार उन लोगों की दलील को मानती है, हिंसक तौर-तरीकों का भले न करे, जो सीमा-पार आवाजाही को वजूद के खतरे की तौर पर देखते हैं.
असम : बेदखली से चुनाव तक
अगर मणिपुर में हिंसा की पृष्ठभूमि थी, तो असम ने मोदी को चुनावी तमाशे का भरपूर मंच प्रदान किया. 14 सितंबर को दरांग जिले के मंगलदोई में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने अवैध प्रवासियों और उनके कथित राजनैतिक सरपरस्तों के खिलाफ सबसे सीधा हमला बोला. इसके लिए चुनी गई जगह अहम थी. दरांग में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा के प्रशासन के मातहत बेदखली का सबसे विवादास्पद अभियान चलाया गया, जहां प्रवासी मूल के बंगालीभाषी मुसलमानों को उस जगह से हटा दिया गया जिसे सरकार अतिक्रमित जमीन कहती है.
गौर करने वाली बात यह कि दरांग में मोदी की भाषा मणिपुर में एहतियात से चुने गए उनके शब्दों के मुकाबले कहीं ज्यादा तीखी थी. उन्होंने ऐलान किया कि कांग्रेस “राष्ट्र विरोधियों और घुसपैठियों की बड़ी रक्षक” बन गई है और आरोप लगाया कि विपक्ष “इन घुसपैठियों को हमेशा भारत में बनाए रखना” चाहता है. उन्होंने “लाखों बीघा जमीन” अवैध कब्जेदारों से छुड़ाने के लिए राज्य सरकार की तारीफ की और इन बेदखलियों को साफ तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा. सबसे उकसाऊ तरीके से उन्होंने दावा किया कि “ये घुसपैठिये हमारी मांओं, बहनों और बेटियों के खिलाफ अत्याचार करते हैं”. यह वह भाषा थी जिसने देशज असमिया समुदाय के दिलों को छू लिया.
प्रधानमंत्री ने अपने विरोधियों के खिलाफ चुनावी नैरेटिव तैयार किया : “लिखवाकर ले लीजिए, मैं देखूंगा कि घुसपैठियों को बचाने के लिए आप कितनी ताकत लगाते हैं, और हम दिखाएंगे कि घुसपैठियों को निकालने के लिए हम किस तरह अपना जीवन समर्पित करते हैं.” यह बात इस तरह कही गई कि यह दस्तावेजों, नागरिकता और संबद्धता के पेचीदा मुद्दे को सीधे-सादे दोफाड़ में तब्दील कर देती है- वे जो BJP का समर्थन करते हैं राष्ट्र की रक्षा करते हैं, जबकि वे जो विरोध करते हैं, घुसपैठियों की रक्षा करते हैं.
तो भी संदेह तो बरकरार ही हैं. कइयों को याद है कि फरवरी 2014 में पूर्वोत्तर में अपने चुनाव अभियान के बिल्कुल पहले भाषण में मोदी ने कसम खाई थी कि उनकी सरकार के सत्ता संभालते ही अवैध घुसपैठियों को उनका बोरिया-बिस्तर समेटकर वापस भेज दिया जाएगा. 11 साल बाद भी यह जुमला कायम है, लेकिन वादा पूरा नहीं हुआ. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) की वह कवायद भी जमीन पर नहीं उतरी जिससे असम के 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया.
उसी दिन गोलाघाट जिले के नुमालीगढ़ में मोदी ने धुन थोड़ी बदलते हुए इस पर बात जोर दिया कि कांग्रेस ने किस तरह असमिया संस्कृति के प्रतीक और प्रसिद्ध गायक भूपेन हजारिका सरीखी शख्सियतों का “अपमान” किया. यहां भी इशारा जनसांख्यिकीय चिंता ही था. उन्होंने कांग्रेस की कथित सांस्कृतिक असंवेदनशीलता को घुसपैठ के प्रति उसकी कथित नरमी से जोड़ा, और ऐसा नैरेटिव गढ़ा जिसमें असमिया पहचान की रक्षा करने के लिए नागरिकता के सत्यापन के बारे में BJP के कट्टरपंथी रुख का समर्थन करना जरूरी है.
बंगाल, असम : अलग राज्य, वही पटकथा
मोदी 15 सितंबर को कोलकाता के दौरे पर थे. यह जनसभाओं के बजाय संयुक्त कमांडर सम्मेलन पर केंद्रित थी, वहीं पश्चिम बंगाल शायद घुसपैठ की बहस के लिए सबसे सरगर्म रणभूमि है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुद को कामयाबी के साथ बंगाली भाषी मुसलमानों की रक्षक की स्थिति में आसीन कर लिया है, और उनका कहना है कि इन लोगों को गलत ढंग से बांग्लादेशी घुसपैठिया करार दिया जा रहा है. राज्य ने बंगाली मुसलमानों को BJP शासित राज्यों में संदिग्ध विदेशी बताकर हिरासत में लिए जाने और भारतीय नागरिकता साबित होने के बाद छोड़े जाने की घटनाएं बार-बार होती देखी हैं.
बंगाल में BJP की चुनौती खास तौर पर पेचीदा है क्योंकि यहां उसे बंगाली हिंदुओं (जिन्हें वह बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों से रिझाती है) और बंगाली मुसलमानों (जिन्हें वह जनसांख्यिकीय खतरे के तौर पर पेश करती है) के बीच फर्क करना ही होगा. नागरिकता की इस भाषाई व्याख्या ने ममता को जोरदार गोला-बारूद मुहैया कर दिया है जिससे वे BJP को बंगाली विरोधी करार दे सकती हैं. यह आरोप उस राज्य में लोगों के दिलों को छूता भी है जहां भाषाई पहचान अक्सर धार्मिक विभाजनों पर भारी पड़ती है.
बिहार, जहां मोदी ने पूर्णिया हवाई अड्डे के उद्घाटन के साथ अपनी यात्रा का समापन किया, इस थीम का एक और भिन्न रूप प्रस्तुत करता है. राज्य में फिलहाल विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की कवायद चल रही है, जिसके लिए 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं को अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करनी पड़ रही है. बंगाल और नेपाल की सीमा से सटे बिहार के सीमांचल इलाके पर BJP का खास तौर पर ध्यान है. यहां कुछ जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक 68 फीसद से ऊपर हो गए हैं, जिससे घुसपैठ के जरिए जनसांख्यिकीय बदलाव के BJP के दावों को बल मिलता है.
अब जब चुनाव आयोग ने तस्दीक कर दी है कि SIR चुनाव की ओर बढ़ रहे पश्चिम बंगाल और असम सहित देश भर में शुरू किया जाएगा, अवैध घुसपैठ के नैरेटिव का और तीखी धार अख्तियार करना तय है. केंद्र सरकार ने इस विमर्श को विधायी आधार पर ही दे दिया है. अप्रैल में संसद ने औपनिवेशिक काल के चार कानूनों को मिलाकर 'आव्रजन और विदेशी अधिनियम 2025’ बनाया. यह कानून राजनैतिक नारेबाजी को प्रशासनिक तंत्र में बदलता है, और आव्रजन ब्यूरो को संदिग्ध अवैध आप्रवासियों की पहचान करने, उन्हें हिरासत में लेने और निर्वासित करने के व्यापक अधिकार देता है. इसी सितंबर में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को अवैध प्रवेश करने वालों के रूप में वर्गीकृत लोगों को रखने के लिए डिटेंशन सेंटर या हिरासत केंद्र स्थापित करने का निर्देश दिया.
भारत के पूरब में चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे हैं, मतदाताओं को प्रतिस्पर्धी चिंताओं के बीच चुनाव करना पड़ रहा है- जनसांख्यिकीय बदलाव का डर बनाम मताधिकार छिन जाने का डर, सुरक्षा चिंताएं बनाम लोकतांत्रिक मानदंड. मोदी के दौरे ने साफ कर दिया कि BJP किन डरों को हवा देगी. यह रणनीति चुनावी फायदे देती है या तीव्र प्रतिक्रिया पैदा करती है, इसी से न केवल राज्य की राजनीति गढ़ी जाएगी बल्कि भारत की यह विकसित होती परिभाषा भी तय होगी कि उसकी सीमाओं के भीतर कौन है.