हाल ही में इंडिगो एयरलाइंस का संकट सुर्खियों में रहा. हजारों उड़ानें रद्द, यात्रियों की परेशानी, और डीजीसीए के नए नियमों की वजह से पायलटों की कमी-ये सब तो सामने आया. लेकिन इसकी जड़ में छिपा है भारतीय विमानन क्षेत्र का गहरा ड्यूओपॉली (दो कंपनियों का वर्चस्व) का संकट.
इंडिगो के पास घरेलू बाजार का करीब 65 फीसदी हिस्सा है, जबकि एयर इंडिया के साथ मिलकर ये दो खिलाड़ी आसमान पर राज कर रहे हैं. लेकिन ये समस्या सिर्फ हवाई यात्रा तक ही नहीं है.
मोबाइल रिचार्ज से लेकर ऑनलाइन खरीदारी और फूड डिलीवरी तक, भारत का बाजार धीरे-धीरे ड्यूओपॉली की चपेट में आ रहा है. और यह सिर्फ भारत की कहानी नहीं– दुनिया भर में भी ऐसे उदाहरण बिखरे पड़े हैं, जहां दो दिग्गज कंपनियां उपभोक्ताओं की जेब और सुविधा पर असर डाल रही हैं. यह वो खतरा है जो हमारे ठीक सामने है लेकिन दिखाई नहीं दे रहा. इंडिगो की परेशानी के लिए तो फिर भी सरकारी मंत्रालय और नियम क़ानून हैं, लेकिन जो संकट आपके सामने खड़े हैं खाने-पीने, मोबाइल रिचार्ज और ऑनलाइन खरीदारी को लेकर उनमें किसी का बहुत दखल भी नहीं है. और अगर वहां मामला गड़बड़ाया तो चोट बहुत गहरी लगेगी भी. आइए देखें कि कहां-कहां हम इस संकट के मुहाने पर बैठे हैं.
एविएशन : इंडिगो का राज, लेकिन वैश्विक नजरिए से सबक सीख सकते हैं
भारत में इंडिगो की वर्चस्वशाली स्थिति चिंताजनक है. करीब 60 फीसदी रूट्स पर इसका एकाधिकार है, और 21 फीसदी पर ड्यूओपॉली. इससे टिकटों के दाम बढ़ते हैं सेवा की गुणवत्ता गिरती है और संकट के समय उपभोक्ता सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. लेकिन दुनिया देखिए तो ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में भी एविएशन ड्यूओपॉली है. यहां भी दो एयरलाइंस बाजार पर काबिज रहती हैं. यूरोप में तो कई रूट्स पर मोनोपॉली (एक ही कंपनी के पास बाजार का हिस्सा है) या डुओपॉली के कारण दामों पर नियंत्रण कम होता है जिससे यात्रियों को महंगा किराया चुकाना पड़ता है. अमेरिका में चार बड़ी एयरलाइंस (अमेरिकन, डेल्टा, यूनाइटेड और साउथवेस्ट) मिलकर 80 फीसदी घरेलू बाजार संभालती हैं, जो एक ओलिगोपॉली (कुछ कंपनियों का वर्चस्व) का उदाहरण है. और सबसे बड़ा वैश्विक उदाहरण? विमान निर्माण में बोइंग और एयरबस की डुओपॉली जो 400 अरब डॉलर के बाजार पर कब्जा जमाए हुए है. इससे साफ दिखाई देता है कि मार्केट में जितना कंपटीशन होगा उतना ही ग्राहक के लिए बेहतर होगा.
टेलिकॉम: जियो-एयरटेल का जोड़ा, अमेरिका की Verizon-AT&T से तुलना
भारत में टेलिकॉम बाजार का 75 फीसदी हिस्सा रिलायंस जियो और एयरटेल के पास है. बीएसएनएल और वोडाफोन-आइडिया तो नाममात्र के हैं जो 4G तक भी सही से नहीं पहुंच पाए. नतीजा? रिचार्ज प्लान महंगे हो रहे हैं और आगे और बढ़ोतरी तय है. दो कंपनियां हैं तो दाम तय करना आसान. लेकिन वैश्विक स्तर पर देखें तो अमेरिका में Verizon और AT&T की ड्यूओपॉली कुछ हद तक ऐसी ही है. ये दोनों 5G नेटवर्क और डेटा प्लान्स पर राज करती हैं जिससे ग्रामीण इलाकों में महंगे प्लान आम हैं. चीन में भी तीन सरकारी कंपनियां बाजार पर काबिज हैं, लेकिन वहां नियंत्रण सख्त है. भारत में भी समय रहते रेगुलेटरी दखल जरूरी है, वरना टेलीकॉम भी एक दिन इंडिगो क्राइसिस जैसे हालातों में दिखाई दे सकता है. और आप ये कभी नहीं चाहेंगे कि आपकी डायलटोन पर बार-बार कोई ऑटोमेटेड आवाज़ ये बताए कि अगले बहत्तर घंटों तक आउटगोइंग सेवाएं रद्द हैं. सोचिए इससे कितनी अफरा-तफरी मचेगी.
ई-कॉमर्स: अमेजन-फ्लिपकार्ट की जोड़ी, वैश्विक अमेजन-वालमार्ट जैसी ही है
हर फेस्टिवल सीजन में फ्लिपकार्ट की 'बिग बिलियन सेल' या अमेजन की छूटों का इंतजार तो सबको रहता है लेकिन अभी भी शिकायतें कम नहीं हैं. देरी से डिलीवरी, खराब प्रोडक्ट, और रिफंड की जद्दोजहद. भारत के ई-कॉमर्स बाजार पर ये दोनों 80 फीसदी से ज्यादा कब्जा जमाए बैठे हैं. इससे होता ये है कि डार्क पैटर्न्स (उपभोक्ता को भ्रमित करने वाली ट्रिक्स) से बचना मुश्किल बन गया है. दुनिया में अमेजन का वर्चस्व तो जगजाहिर है लेकिन अमेरिका में वालमार्ट के साथ इसकी ड्यूओपॉली रिटेल को प्रभावित करती है. कीमतें कम रखने के नाम पर छोटे विक्रेताओं का दम घुटता है. चीन में अलीबाबा और जेडी.कॉम का जोड़ भी वैसा ही है. भारत को इनसे सीखकर एंटी-ट्रस्ट कानून सख्त करने चाहिए ताकि छोटे प्लेटफॉर्म्स को मौका मिले.
कैब बुकिंग : ऊबर-ओला का राज, अमेरिका की उबर-लिफ्ट का क्या है मामला
आज की तारीख में आपके पास ‘ठीक-ठाक’ कैब बुकिंग में सिर्फ दो नाम हैं ऊबर या ओला. उसके बावजूद ग्राहकों की तमाम शिकायतें होती हैं. आप याद करें कि ऊबर ओला के बारे में एक जोक ये चलता है कि आसमान में हल्के भी बादल आ जाएं तो किराया दोगुना हो जाता है. और ये होता भी है. हल्की सी बारिश आपको इन दो बड़े प्लेयर्स के बीच फंसा देती है और आप सड़क पर भीगते खड़े रहते हैं. इसकी वजह यही ड्यूओपॉली है. वैश्विक रूप से अमेरिका में उबर और लिफ्ट का ड्यूओपॉली राइड-शेयरिंग को कंट्रोल करता है. वहां भी ड्राइवरों की कमी और ऊंचे किराए की शिकायतें आम हैं. यूरोप में ऊबर का विस्तार छोटे शहरों में छोटी कैब सर्विसेज़ के लिए चुनौतियां पैदा कर रहा है. भारत में बाकी छोटे सर्विस प्रोवाइडर्स (जैसे रैपिडो) को बढ़ावा देकर ही संतुलन लाया जा सकता है.
फूड डिलीवरी: जोमैटो-स्विगी की मंडी, अमेरिका की डोरडैश-उबरईट्स जैसी चुनौतियां
एक क्लिक पर खाना घर. सुविधा तो है लेकिन 100 रुपये का ऑर्डर 200 का पड़ता है. डिलीवरी फीस, पैकेजिंग चार्ज, और तमाम टैक्सेज एक्स्ट्रा. भारत में जोमैटो और स्विगी 95 फीसदी बाजार पर काबिज हैं. क्विक कॉमर्स में ब्लिंकिट-जेप्टो का जोड़ा 50 रुपये का दूध 100+ में बेच रहा है. दुनिया में अमेरिका की डोरडैश, उबरईट्स और ग्रुबहब की ओलिगोपॉली (दो से अधिक कम्पनियों का राज) है. ब्रिटेन में जस्ट ईट और उबरईट्स का इकलौता जोड़ कीमतें ऊंची रखता है. भारत को श्रम कानूनों पर फोकस तो करना ही चाहिए उन छोटे प्रोवाइडर्स को बढ़ावा देना चाहिए जो इन दिग्गजों का विकल्प बनकर उभर सकती हैं.
वैश्विक ड्यूओपॉली के जाल में फंसा बाजार
वाई-फाई में जियोफाइबर-एयरटेल, दूध में अमूल-मदर डेयरी, जॉब साइट्स में नौकरी-लिंक्डइन, और यूपीआई में गूगल पे-फोनपे – हर जगह दो का राज. रेल टिकटिंग में आईआरसीटीसी की मोनोपॉली तो परेशानी का पर्याय बन ही चुकी है. वैश्विक उदाहरण भी यही तस्वीर दिखाते हैं. सॉफ्ट ड्रिंक्स में कोका-कोला और पेप्सी की दशकों पुरानी ड्यूओपॉली, या क्रेडिट कार्ड्स में वीजा-मास्टरकार्ड. ये दिखाते हैं कि ड्यूओपॉली इनोवेशन ला सकती है लेकिन बिना रेगुलेशन के उपभोक्ता का नुकसान ही होता है.
इंडिगो का संकट बाजार पर सरकार की कमजोर पकड़ की झलक है. ड्यूओपॉली से कीमतें बढ़ती हैं, सेवा गिरती है, और ग्राहक विकल्पहीन हो जाता है. दुनिया के उदाहरण साबित करते हैं कि भारत सरकार को छोटे प्लेयर्स को बढ़ावा देना चाहिए – तभी बाजार संतुलित होगा. नहीं तो उपभोक्ता का चिल्लाना और कंपनियों का मुनाफा, यही सिलसिला चलेगा. सवाल ये है कि क्या समय रहते सरकार इस संकट को पहचान कर विकल्प तैयार करने के प्रोसेस को आगे बढ़ाती है या इंडिगो जैसे भयंकर हालात का इंतजार करती है.
नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी (NLIU) का एक रिसर्च पेपर चेतावनी देता है कि भारत में उभरते हुआ ड्यूओपोली पैटर्न अक्सर प्रिडेटरी प्राइसिंग (कंपटीशन खत्म करने के लिए शुरुआत में जरूरत से ज्यादा कीमतें कम करना) और कलेक्टिव डोमिनेंस (सामूहिक प्रभुत्व) जैसे तौर-तरीकों का सहारा लेते हैं, जो “मुक्त प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता की बेहतरी के लिए खतरा पैदा करते हैं.”

