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भारत के समुद्री व्यापार में 169 साल पुरानी अड़चन को कैसे हटाएगा 'बिल ऑफ लेडिंग' विधेयक?

यह नया कानून अंतरराष्ट्रीय कार्गो के साथ वही करता है जो यूपीआई ने पैसों के साथ किया: यह भौतिक उपस्थिति की बाधा को हटाता है और सुरक्षित डिजिटल प्रणालियों के जरिए भरोसे को मजबूत और तेज करता है

The new amendment includes more preference for green energy investments, how industrialists behave, and a need for change in policies to achieve net-zero emissions by 2050
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 23 जुलाई , 2025

संसद में 21 जुलाई को विपक्षी वॉकआउट के शोरगुल के बीच लगभग खाली राज्यसभा ने चुपचाप एक ऐसा विधेयक पारित कर दिया, जो भारत के समुद्री लॉजिस्टिक्स और वैश्विक व्यापार प्रवाह को बदल सकता है. 

बिल्स ऑफ लेडिंग विधेयक-2025 169 साल पुराने भारतीय बिल्स ऑफ लेडिंग अधिनियम, 1856 की जगह लेने वाला है. यह शायद राजनैतिक रूप से नाटकीय न लगे, लेकिन इसके असर इससे कहीं ज्यादा गहरे हो सकते हैं जितना लोग समझ रहे हैं.

यह विधेयक मार्च के बजट सत्र में लोकसभा से पारित हो चुका है और अब राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद कानून बनेगा. इस कानून का मूल उद्देश्य है, भारत में वैश्विक शिपिंग के सबसे मूल दस्तावेज, बिल ऑफ लेडिंग (बीओएल) को आधुनिक बनाना. सदियों से यह आसान-सा कागजी दस्तावेज, अक्सर मोटे बॉन्ड पेपर पर छपा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार की त्रिमूर्ति रहा है: माल की रसीद, माल ढुलाई का अनुबंध, और सबसे अहम, मालिकाना हक का दस्तावेज. अब तक जिसके पास यह फिजिकल डॉक्यूमेंट होता था, कार्गो उसी का होता था.

बिल्स ऑफ लेडिंग विधेयक इलेक्ट्रॉनिक बिल्स ऑफ लेडिंग को कानूनी मान्यता देता है, जिससे शिपिंग लाइन, फ्रेट फारवर्डर, बैंक और आयातक/निर्यातक बीओएल को डिजिटल रूप में जारी, समर्थन और ट्रांसफर कर सकते हैं. असल में, यह अंतरराष्ट्रीय कार्गो के साथ वही करता है जो यूपीआई ने पैसों के लेनदेन के लिए किया- फिजिकल उपस्थिति की जरूरत को खत्म करना और सुरक्षित डिजिटल सिस्टम के जरिए भरोसे को तेज करना.

यह बदलाव माकूल मौके पर आया है. भारत लॉजिस्टिक्स लागत को घटाने पर आक्रामक तरीके से काम कर रहा है, जो फिलहाल जीडीपी का लगभग 13-14 फीसदी है और वैश्विक औसत से कहीं ऊपर है. अगर भारत वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में एक मजबूत कड़ी बनना चाहता है, तो केवल सस्ती मजदूरी और टैक्स छूट से काम नहीं चलेगा. उसे स्पीड, भरोसा और इंटरऑपरेबिलिटी की पेशकश करनी होगी. और यहीं पर बीओएल सुधार अहम बन जाता है.

शिपिंग विशेषज्ञ वर्षों से फिजिकल बीओएल के इस्तेमाल को भारत की निर्यात मूल्य श्रृंखला की एक बड़ी बाधा मानते रहे हैं. जब माल कंटेनर तेज चलता है लेकिन उसके मालिकाना हक का कागज पीछे रह जाता है, तो कार्गो बंदरगाहों पर अटका रह जाता है और खरीदारों को डेमरेज (वह शुल्क जो एक चार्टर्ड जहाज के मालिक को तब चुकाना पड़ता है, जब जहाज को तय समय के भीतर लादा या उतारा नहीं जाता) देना पड़ता है. तब बीमा कंपनियों को कानूनी जिम्मेदारियों को लेकर सिर खपाना पड़ता है. कई मामलों में बीओएल की अनुपस्थिति या देरी के कारण आयातकों को लेटर्स ऑफ इंडेम्निटी (एलओआइ) जारी करने पड़ते हैं, जिससे बैंक और व्यापार कानूनी व वित्तीय जोखिम में पड़ जाते हैं. ये दिक्कतें केवल तकनीकी नहीं, बल्कि आर्थिक ब्रेक हैं.

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ परंपराएं चलती हैं और आखिरकार भार सरकार ने इनमें से एक के साथ व्यापक बदलाव किया है. यह नया कानून यूएनसीआइटीआरएएल मॉडल लॉ ऑन इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफरेबल रिकॉर्ड्स (एमएलईटीआर) के अनुरूप है, जो कि सिंगापुर, ब्रिटेन और बहरीन जैसे देशों की ओर से अपनाया गया एक वैश्विक ढांचा है. इससे डिजिटल दस्तावेजों को वैधता मिलती है. यह भारत के गति शक्ति लॉजिस्टिक्स प्लेटफॉर्म, राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति और यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफॉर्म (यूएलआइपी) जैसे डिजिटल व्यापार पहलों के साथ भी तालमेल में है.

शिपिंग मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “यह विधेयक केवल प्रक्रियात्मक बदलाव नहीं है. यह एक मंशा का ऐलान है. हम दुनिया को यह संकेत दे रहे हैं कि भारत अब 21वीं सदी के व्यापार को 19वीं सदी की प्रक्रियाओं से रुकने नहीं देगा.”

डिजिटल कंटेनर शिपिंग एसोसिएशन (डीसीएसए) के आंकड़ों के मुताबिक, इलेक्ट्रॉनिक बीओएल को वैश्विक रूप से अपनाने से हर साल 4 अरब डॉलर से अधिक की बचत हो सकती है, साथ ही कागज, कूरियर और अनावश्यक हैंडलिंग में भी पर्यावरणीय लाभ मिलेंगे. भारत को इससे और अधिक लाभ मिल सकता है, विशेष रूप से कपड़ा, दवा और खराब होने वाले उत्पादों जैसे समय-संवेदनशील क्षेत्रों में जहां केवल 24 घंटे की देरी से ही माल का बाजार या गुणवत्ता दोनों खो सकता है.

निजी क्षेत्र ने इसे लेकर सतर्क आशावाद दिखाया है. ट्रेडलेंस (अब बंद), कार्गोएक्स और बोलेरो जैसी कंपनियां पहले ही ब्लॉकचेन आधारित बीओएल सॉल्यूशन ला चुकी हैं, लेकिन घरेलू कानूनी ढांचे की कमी के चलते भारत में इनका दायरा सीमित था. अब यह कानून पारित होने के साथ, डिजिटल बीओएल को कानूनी भरोसा और सौदेबाजी की क्षमता मिलेगी. साथ ही भारतीय अदालतों व नियामक संस्थानों के लिए इसे लागू करना आसान होगा. 

हालांकि चुनौतियां अभी बाकी हैं. बीजू जनता दल के सांसद निरंजन बिशी जैसे आलोचकों ने राज्यसभा में चिंता जताई कि अगर मालिकाना हक़ के ट्रांसफर को मजबूत साइबर सुरक्षा के बिना लचीला बनाया गया तो धोखाधड़ी, डेटा लीक या जाली दस्तावेज जैसी समस्याएं हो सकती हैं. इसके अलावा, असली परीक्षा कानून की भाषा में नहीं, बल्कि इसके अमल में होगी. भारत के बंदरगाह प्रणाली अब भी असमान रूप से डिजिटाइज्ड हैं; कई फ्रेट फारवर्डर छोटे और अनौपचारिक ऑपरेटर हैं जिनके पास ईबीओएल अपनाने की तकनीकी क्षमता नहीं है. कस्टम्स, एक्साइज और न्यायिक अधिकारियों को भी विवाद या रेगूलेशन के मामलों में डिजिटल दस्तावेजों को समझने और मान्यता देने के लिए प्रशिक्षण और नई प्रक्रियाओं की जरूरत होगी.

एक अंतरराष्ट्रीय पहलू भी है. डिजिटल बीओएल को वास्तव में फ्रिक्शनलेस बनाने के लिए सीमापार मान्यता आवश्यक है. अगर भारतीय निर्यातक उन देशों को सामान भेज रहे हैं जो अभी तक ईबीओएल को कानूनी रूप से नहीं मानते, या बैंकिंग के लिए भौतिक दस्तावेज मांगते हैं, तो इस कानून के फायदे हकीकत नहीं बन पाएंगे. जैसे यूपीआई का वैश्वीकरण एक लंबी कूटनीतिक यात्रा है, वैसे ही इस कानून के असर को भी अंतरराष्ट्रीय समन्वय की जरूरत होगी.

फिर भी, सरकार की रणनीति स्पष्ट है. विपक्ष के वॉकआउट और बिना किसी प्रचार के इस विधेयक को पारित कराकर, वह भारत को एक डिजिटल रूप से सक्षम, उच्च दक्षता वाले व्यापारिक शक्ति के रूप में उभरने की बुनियाद रख रही है. भारत का 90 फीसदी व्यापार समुद्र के माध्यम से होता है, ऐसे में समुद्री दस्तावेजों का डिजिटलीकरण इस बात में एक मूक क्रांति ला सकता है कि भारत कैसे व्यापार करता है, विवादों को सुलझाता है और वैश्विक मंच पर अपना विस्तार करता है.

कुछ लोग इस विधेयक को एक तकनीकी अपडेट मान सकते हैं. लेकिन वैश्विक व्यापार की जटिल शतरंज में, छोटे-छोटे कदम अगर सही तरीके से उठाए जाएं खेल बदल सकते हैं. बिल्स ऑफ लेडिंग विधेयक, 2025 ऐसा ही एक कदम है. अब यह शिपिंग कंपनियों, निर्यातकों, फिनटेक प्लेटफॉर्म्स और सीमा शुल्क अधिकारियों पर निर्भर है कि वे इसका अधिकतम लाभ कैसे उठाते हैं.

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