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देश के लोकतंत्र को गढ़ रही महिलाएं अब भी सत्ता से दूर क्यों हैं? क्या कहती है ADR की रिपोर्ट

2024 के आम चुनाव से साफ-साफ जाहिर हुआ कि महिलाएं न केवल लोकतंत्र में भाग ले रही हैं, बल्कि इसके परिणामों को आकार दे रही हैं

निर्णायक भूमिका में महिला मतदाता, लेकिन सत्ता में भागीदारी बेहद कम
निर्णायक भूमिका में महिला मतदाता, लेकिन अब भी सत्ता में भागीदारी काफी कम है.
अपडेटेड 5 मई , 2025

भारत में चुनावी और राजनीतिक सुधारों पर काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में बताया कि एक बार फिर से महिलाएं देश में निर्णायक वोटर समूह के रूप में उभरी हैं.

हालांकि, ये भी सच है कि दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र में सत्ता में भागीदारी के मामले में महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है. रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले लोकसभा चुनाव में 66 करोड़ से ज्यादा महिला वोटरों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया.

कुल मतदाताओं में महिलाओं की संख्या आधे से ज्यादा है. साफ है कि चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अब सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि असरदार ताकत बन गई है. अब महिलाएं चुनावी नतीजों को आकार देने में सक्षम हैं.

सच्चाई तो ये भी है कि भले ही मतपेटी में महिलाओं की संख्यात्मक ताकत किसी दल के जीतने या हारने में अहम भूमिका निभाती हो, लेकिन अभी भी संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी के मामले में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है.

2024 के आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक थे. इस चुनाव में महिलाओं का औसत मतदान फीसद 65.78 रहा, जो पुरुषों के 65.55 फीसद मतदान से थोड़ा ज्यादा था.

19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया. लक्षद्वीप में सबसे ज्यादा 85.46 फीसद महिला मतदाताओं ने वोट किया. वहीं, असम में 81.71 फीसद और त्रिपुरा में 80.57 फीसद महिलाओं ने मतदान किया.

निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर देखें तो असम के धुबरी में 92.17 फीसद महिलाओं ने मतदान किया. वहीं, इसके ठीक उलट श्रीनगर में सिर्फ 33.31 फीसद महिलाओं ने मतदान किया.

दरअसल, चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने की इस यात्रा को यहां तक पहुंचने में दशकों लग गए. 1962 में पंजीकृत महिला मतदाताओं में से केवल 46.6 फीसद महिलाओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. हालांकि फिर यह आंकड़ा लगातार बढ़ता रहा.

यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के विस्तार को दर्शाता है, बल्कि राजनीतिक चेतना में बदलाव को भी दर्शाता है. इसी तरह चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या 1957 में केवल 45 उम्मीदवारों से बढ़कर 2024 में 800 हो गई है. भले ही महिला मतदाताओं और उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी, लेकिन सत्ता साझेदारी के मामले में इनकी संख्या बिल्कुल नहीं बढ़ रही है.  

भारत की आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 49 फीसद है, फिर भी मौजूदा लोकसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 13.6 फीसद हैं. पिछली लोकसभा में यह 14.4 फीसद थी.

2024 में चुनाव लड़ने वाली 800 महिलाओं में से सिर्फ 74 ही चुनी गईं. उनकी सफलता दर 9.3 फीसद है, जो पुरुष उम्मीदवारों के सफलता दर 6.2 फीसद से कहीं ज्यादा है. हालांकि, संसद में महिलाओं की कुल हिस्सेदारी उम्मीद से काफी कम है.  

पश्चिम बंगाल से सबसे ज्यादा 11 जबकि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से 7- 7 महिला सांसद चुनी गईं. इसके अलावा मध्य प्रदेश से भी 6 महिलाएं सांसद बनीं.

अगर पार्टियों के आधार पर देखें तो बीजेपी की ओर से सबसे ज्यादा 31 महिलाएं सांसद बनीं. उसके बाद कांग्रेस से 13 और तृणमूल कांग्रेस से 11 महिलाओं जीत मिलीं.

त्रिपुरा की बीजेपी उम्मीदवार कृति देवी देवबर्मन ने 68.54 फीसद यानी महिला उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा वोट शेयर हासिल किए. इन सबके बावजूद सत्ता में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर अब भी विसंगतियां बनी हुई हैं. हैरानी की बात ये है कि साक्षरता और राजनीतिक भागीदारी के लिए प्रसिद्ध राज्य केरल से एक भी महिला सांसद नहीं चुनी गईं.  

भारत की कानूनी और संवैधानिक संरचना जेंडर इक्वलिटी यानी लैंगिक समानता का समर्थन करती है. संविधान के अनुच्छेद 325 और 326 लिंग आधारित भेदभाव के बिना मतदान के अधिकार सुनिश्चित करते हैं. वहीं, अनुच्छेद 84 और 173 किसी भी वयस्क नागरिक को चुनाव लड़ने की अनुमति देते हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या लिंग से ताल्लुक रखता हो.

इतना ही नहीं 1992 में ऐतिहासिक 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण अनिवार्य कर दिया. इससे जमीनी स्तर पर काफी अच्छे परिणाम भी सामने आए हैं. अब स्थानीय निकायों में निर्वाचित कुल प्रतिनिधियों में महिलाओं की संख्या करीब 44 फीसद है.

भारत 1995 के बीजिंग घोषणापत्र का पालन करता है, जो सार्वजनिक जीवन में लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्ध है. इसके बावजूद ये कानूनी आश्वासन राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में पर्याप्त रूप से नहीं पहुंच पाए हैं.

स्वतंत्रता के बाद के भारत में सबसे अधिक विवादित और देरी से हुए विधायी सुधारों में एक महिला आरक्षण विधेयक है. इसे पहली बार 2008 में संसद में पेश किया गया और फिर कई बार टाला गया.

आखिरकार सितंबर 2023 में 128वें संविधान संशोधन के रूप में इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों से पास किया गया. संसद से पास होने वाले इस विधेयक का नाम ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ रखा गया. संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित यह विधेयक लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण का वादा करता है.

हालांकि, यह वादा अभी भी दूर की कौड़ी लगती है. ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का दो बड़ी कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही लागू हो पाना संभव है. ये दो कानूनी प्रक्रिया हैं- अगली जनगणना और उसके बाद होने वाला परिसीमन.

इन दोनों ही प्रक्रियाओं में हो रही देरी की वजह से फिलहाल ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का महत्व बिल्कुल ना के बराबर रह गया है. इससे जाहिर होता है कि हमारे देश में पुरुष प्रधान सत्ता संरचनाओं को खत्म करने के लिए वास्तविक राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है.

कानूनी पहलुओं के अलावा, व्यवस्थागत और सामाजिक बाधाएं भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बाधित करती हैं. राजनीतिक दलों के भीतर पितृसत्तात्मक मानदंड उम्मीदवारों के चयन के दौरान महिलाओं को नियमित रूप से दरकिनार कर देते हैं.

इतना ही नहीं किसी भी दल में नेतृत्व की भूमिकाएं अक्सर वंशवादी उत्तराधिकारियों तक ही सीमित होती हैं, जिसमें ज्यादातर पुरुष होते हैं.
चुनाव लड़ना आज के समय में सीमित वित्तीय साधनों वाली महिलाओं के खिलाफ है. इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि 2024 में 1 करोड़ रुपए से कम संपत्ति वाली महिला उम्मीदवारों की सफलता दर मात्र 1.49 फीसद थी.

2024 के आम चुनावों में 279 स्वतंत्र महिला उम्मीदवारों में से कोई भी जीतने में कामयाब नहीं हुई. इससे एक बात तो साफ हो गया कि महिलाओं को जीतने के लिए किसी न किसी पार्टी के समर्थन की जरूरत होती है.

इसकी वजह यह है कि पार्टी के समर्थन मिलने से उनके साथ वित्तीय ताकत, संगठनात्मक समर्थन हासिल होता है. एक खास बात यह भी है कि चुनावी राजनीति में आने वाली इन महिलाओं को ऑनलाइन दुर्व्यवहार, राजनीतिक हिंसा और चरित्र हनन का सामना करना पड़ता है.

एक और चिंताजनक घटना प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व का है. इसका मतलब यह है कि निर्वाचित महिलाएं नाममात्र की मुखिया के रूप में काम करती हैं, जबकि वास्तविक निर्णय लेने का नियंत्रण परिवार के पुरुष सदस्यों के पास होता है.

यह सबकुछ तब हो रहा है, जब भारत में इंदिरा गांधी से लेकर ममता बनर्जी, जे. जयललिता और मायावती जैसी शक्तिशाली महिला नेता रही हैं. सच्चा राजनीतिक सशक्तिकरण प्रतीकात्मक जीत से कहीं ज्यादा जरूरी है. इसमें पार्टियों के भीतर संस्थागत सुधार के साथ ही साथ संसाधनों तक समान पहुंच और सांस्कृतिक बदलाव शामिल हैं. इन सबसे राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी आसान हो जाता है. तभी महिलाएं सिर्फ वोटर नहीं बल्कि नीति और शासन में भी आगे बढ़कर आर्किटेक्ट बन सकती हैं.

2024 के चुनाव परिणाम से जाहिर होता है कि महिलाएं न केवल लोकतंत्र में भाग ले रही हैं, बल्कि इसके परिणामों को आकार दे रही हैं. लेकिन, जब तक राजनीतिक संस्थाएं इस परिवर्तन के अनुरूप विकसित नहीं होतीं हैं, तब तक भारत का लोकतांत्रिक ढांचा स्वाभाविक रूप से दोषपूर्ण बना रहेगा.

इस कड़ी में ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का पारित होना एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. हालांकि,  समय पर क्रियान्वयन और राजनीतिक दलों द्वारा सक्रिय उम्मीदवार चयन के बिना, इसका वादा खोखला ही रहेगा. 

अकर्मय दत्ता मजूमदार की स्टोरी.

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