जब वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की कि भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हस्ताक्षर करते समय देश के हितों की "पूरी तरह से रक्षा" की गई है तो किसी ने भी यह उम्मीद नहीं की थी कि सबसे विवादास्पद प्रावधान डिजिटल अध्याय में दफन हो जाएंगे.
पहली बार भारत ने ऐसे प्रावधानों पर दस्तखत किए हैं जो आयातित डिजिटल वस्तुओं और सेवाओं में सोर्स कोड तक पहुंच की मांग करने की उसकी क्षमता सीमित करते हैं और वह सरकार के पास मौजूद डेटा को रणनीतिक राष्ट्रीय संसाधन मानने से एक कदम पीछे हट गया है.
पहली नजर में इस भाषा में कुछ भी गलत नहीं लगता और यह ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) और कई आधुनिक व्यापार समझौतों में व्यक्त प्रतिबद्धताओं की झलक देती है.
लेकिन भारत की व्यापार बातचीतों के अनुभवी विशेषज्ञों की नजर में यह बदलाव ऐतिहासिक है. एक पूर्व वार्ताकार कहते हैं, "विश्व व्यापार संगठन में भारत दशकों तक खरीद और सोर्स कोड को चर्चा से बाहर रखने के लिए लड़ता रहा है. इस समझौते ने रातोरात उस कहानी को बदल दिया है."
भारत-यूके मुक्त व्यापार समझौते के तहत कोई भी पक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून लागू करने के सीमित उद्देश्य को छोड़कर डिजिटल उत्पादों के आयात या बिक्री के लिए स्रोत कोड के हस्तांतरण की जरूरत की शर्त नहीं लगा सकता. यह धारा सीपीटीपीपी के "व्यापक बाजार" के दायरे से भी आगे की है और सभी सॉफ्टवेयर पर लागू होती है- जिनमें वे सॉफ्टवेयर भी शामिल हैं जो महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में इस्तेमाल होते हैं.
आलोचकों की बात करें तो चिंता फौरी जोखिम की उतनी नहीं है जितनी इसके मिसाल बन जाने से है. एक व्यापार वकील आगाह करते हैं, "यह पहली बार है जब भारत स्रोत कोड के मुद्दे पर न चाहते हुए भी मान गया है, जिसका उसने विश्व व्यापार संगठन में मजबूती से बचाव किया है. इस भाषा को स्वीकार करके हम खुद को एक ऐसे ढांचे में फंसाने का जोखिम उठा रहे हैं जिसके लिए भविष्य के हर डिजिटल व्यापार सौदे में दबाव डाला जाएगा."
ऑपरेशन सिंदूर के मद्देनजर चिंता ज्यादा बढ़ गई है और इसकी भी जांच बढ़ गई है कि कैसे विदेशी एल्गोरिदम और डिजिटल बुनियादी ढांचे राष्ट्रीय सुरक्षा में सेंध लगाते हैं. पारंपरिक रूप से सोर्स कोड तक पहुंच न केवल साइबर सुरक्षा ऑडिटिंग का हथियार रही है बल्कि तेजी से विकसित हो रही डिजिटल अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता संरक्षण कानूनों को लागू करने का साधन भी रही है.
मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के समर्थकों का तर्क है कि स्थिति ज्यादा जटिल है. जैसा कि एक नीति सलाहकार कहते हैं: "सोर्स कोड तक पहुंच के असीमित अधिकार डिजिटल सेवा देने वालों के वाणिज्यिक हितों को कमजोर करेंगे. सोर्स कोड ही उत्पादों को परिभाषित करते हैं और विशिष्ट बनाते हैं. राष्ट्रीय स्तर के दिग्गजों के पक्ष में कंपनियों को कमजोर करने के लिए सरकारें इस बेरोकटोक पहुंच का दुरुपयोग कर सकती हैं."
यह तर्क खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय स्टार्ट-अप और आईटी दिग्गज वैल्यू चेन बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. एक वरिष्ठ वार्ताकार पूछते हैं, "क्या ऐसी व्यवस्था जो अन्य सरकारों को अपने स्रोत कोड तक बेरोकटोक पहुंच की इजाजत देती है, भारतीय फर्मों की हितैषी होगी? खासकर तब जब वे अपनी पश्चिमी प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में छोटी और अधिक संवेदनशील हों?" उनका तर्क है कि मुक्त व्यापार समझौता संप्रभु सुरक्षा उपायों और वाणिज्यिक अधिकारों के बीच संतुलन साधता है- यह ऐसा रास्ता है जिस पर भारत को चलना होगा बशर्ते वह सीपीटीपीपी जैसे वैश्विक डिजिटल व्यापार ढांचों का हिस्सा बनना चाहता हो.”
अगर सोर्स कोड की धारा ने बहस छेड़ दी है, तो "खुले सरकारी डेटा" के प्रावधान ने नीतिगत हलकों में चिंताएं बढ़ा दी हैं. पहली बार भारत इस बात पर सहमत हुआ है कि सरकार के पास मौजूद डेटा को "अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक वस्तु" माना जाना चाहिए. डिजिटल युग से पहले "खुले सरकारी डेटा" का अर्थ पारदर्शिता- आंकड़ों और दस्तावेज तक सार्वजनिक पहुंच के लिए होता था. डेटा-संचालित अर्थव्यवस्था में यह एआई, मशीन लर्निंग और एडवांस्ड एनालिटिक्स के लिए कच्चा माल है.
नीति आयोग के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, "डेटा नया तेल है. यह संकेत देकर कि हमारा राष्ट्रीय डेटा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी के लिए मुफ्त है, हम अपनी एक प्रमुख रणनीतिक संपत्ति को नष्ट कर रहे हैं." सरकार का बचाव करने वाले इस चिंता को कम करके आंकते हैं और कहते हैं कि यह धारा गैर-बाध्यकारी है और भारत की घरेलू मुक्त डेटा नीति के अनुरूप है. लेकिन आलोचकों का तर्क है कि मुक्त व्यापार समझौते के संदर्भ में यह बारीक लेकिन महत्त्वपूर्ण बदलाव का संकेत है-ऐसा बदलाव जो डेटा संप्रभुता पर भविष्य की वार्ताओं में भारत की स्थिति को कमजोर कर सकता है.
शायद सबसे हल्की लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रतिबद्धता एक वाक्य में है: अगर भारत भविष्य में किसी अन्य देश के साथ सीमा पार डेटा प्रवाह के प्रावधानों पर सहमत होता है तो उसे इस समझौते के तहत "बराबरी के क्षेत्र" का विस्तार करने के लिए यूके के साथ परामर्श करना होगा. वास्तव में यूके को एक तरह से डेटा प्रवाह और स्थानीयकरण नीति पर शुरुआती सबसे पसंदीदा देश (एमएफएन) का दर्जा मिल गया है.
जिस देश ने मुक्त डेटा प्रवाह की अनुमति देने के लिए अमेरिका, यूरोपीय संघ और विश्व व्यापार संगठन के दबाव का विरोध किया है, उसकी तरफ से यह उल्लेखनीय रियायत है. वाणिज्य मंत्रालय के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, "इससे हमारी स्थिति की भी धीरे-धीरे बढ़ती कमजोरी जाहिर होती है. स्थानीयकरण को औपचारिक रूप से छोड़े बगैर भी हमने संकेत दिया है कि विरोध उतना मजबूत नहीं है."
भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौता अनजाने में इस बात पर जनमत संग्रह बन गया है कि भारत के आर्थिक विकास के अगले चरण में "डिजिटल संप्रभुता" का अर्थ क्या होना चाहिए. एक तरफ वे लोग हैं जो "डिजिटल उपनिवेशवाद" की चेतावनी दे रहे हैं, जहां भारतीय डेटा पर प्रशिक्षित विदेशी एल्गोरिदम बाजारों, समाज और यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा के परिणामों को भी आकार देते हैं. दूसरी तरफ वे लोग हैं जो तर्क देते हैं कि अगर भारत एक डिजिटल निर्यात महाशक्ति बनना चाहता है तो वह खुद को दीवारों में कैद नहीं कर सकता.
एक व्यापार विशेषज्ञ कहते हैं, "डिजिटल संप्रभुता के लिए कोई सशक्त आधार नहीं है. यह ऐसी अवधारणा है जिसे समझना मुश्किल है, स्टील या डेयरी पर टैरिफ जितनी आसान नहीं है. लेकिन अब हम जो विकल्प चुनेंगे, वे अगले दशक के लिए हमारे रेगूलेशन के दायरे को परिभाषित करेंगे."
मुक्त व्यापार समझौते के डिजिटल प्रावधानों का समर्थन करने वाले भी इस बात को स्वीकार करते हैं. एक पूर्व उद्योग अधिकारी कहते हैं, "हमारी डिजिटल आर्थिक रणनीति का निर्देशक तत्व व्यावसायिक अधिकारों और संप्रभु सुरक्षा उपायों के बीच संतुलन होना चाहिए. भारत को डिजिटल रूप से अलग-थलग करने की कोई भी कोशिश नाकाम हो जाएगी और इससे बहुत नुकसान होगा."
इन रियायतों को बदलती वैश्विक स्थितियों की तुलना से भी देखा जाना चाहिए. पिछले साल अमेरिका, जो लंबे समय से मुक्त डेटा प्रवाह और सोर्स कोड प्रतिबंधों का समर्थक रहा है, ने रेगूलेशन की घरेलू जरूरतों का हवाला देते हुए चुपके से विश्व व्यापार संगठन के अपने एजेंडे से इन प्रावधानों को वापस ले लिया. इसलिए ब्रिटेन के साथ भी यही रुख अपनाने की भारत की इच्छा साफ दिखती है. व्यापार वकीलों का मानना है कि रक्षा खरीद ऐसे में उपयोगी पेशकश करती हैं. एक नीति विश्लेषक कहते हैं, "अमेरिका में भी सोर्स कोड को स्वामित्व माना जाता है. रक्षा आपूर्तिकर्ता आमतौर पर इसे साझा करने से इनकार करते हैं. निश्चित ही दसॉ राफेल के सोर्स कोड को साझा करने के लिए सहमत नहीं हुई है. इसलिए असली सुरक्षा विश्वसनीय सप्लाई चेन हैं, न कि कोड की मांग का व्यापक अधिकार."
अब जब संसद में एफटीए पर बहस की तैयारी हो रही है और एमएसएमई संगठन इसके असर का विश्लेषण शुरू कर रहे हैं तो डिजिटल अध्याय पर और अधिक जांच-परख की संभावना है. डिजिटल शासन में लगातार सक्रिय राज्य सरकारें भी इसमें शामिल हो सकती हैं. भारत के वार्ताकारों की चुनौती इस बात पर घरेलू सहमति बनाने की होगी कि डिजिटल व्यापार में किन सीमाओं को पार नहीं किया जा सकता- भले ही वे उन बड़े समूहों में शामिल होने का प्रयास कर रहे हों जहां ऐसे प्रावधान मानक हैं.
फिलहाल, भारत-यूके मुक्त व्यापार समझौता वैश्विक डिजिटल अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लाभ-हानि की एक झलक देता है. इसे एक व्यावहारिक संतुलनकारी कदम के रूप में याद किया जाएगा या फिर यह भारत की डिजिटल संप्रभुता में पहली दरार होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि नीति-निर्माता, उद्योग और नागरिक समाज आने वाले वर्षों में इसके सूक्ष्म पहलुओं को कैसे समझते हैं.