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ट्रंप की तरह मोदी सरकार भी क्यों नहीं बांग्लादेशियों को वापस निकाल भेजती?

अमेरिका से अवैध भारतीय प्रवासियों को वापस भेजे जाने के बीच भारत में अवैध बांग्लादेशियों की वापसी का मुद्दा फिर गर्म होता दिख रहा है

अमेरिका में अवैध प्रवासियों को हथकड़ियों में उनके देश वापस भेजा जा रहा है
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका से अवैध प्रवासियों को वापस उनके देश भेजे जाने का सिलसिला तेज हो चुका है
अपडेटेड 10 फ़रवरी , 2025

दिल्ली विधानसभा चुनावों में जीत-हार की खबरों के बीच एक और खबर इस समय चर्चा में बनी हुई है. अमेरिका ने जिस तरह वहां बिना दस्तावेज के रह रहे भारतीयों को हथकड़ी लगाकर वापस भारत भेजा, उससे सोशल मीडिया पर माहौल लगातार गर्म है. सरकार के आलोचक तंज कस रहे हैं कि मोदी सरकार गाहे-बगाहे अपनी विदेश नीति के कसीदे पढ़ती रहती है फिर क्यों इस मामले में वह बैकफुट पर है.

इधर, विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कहना है कि अवैध प्रवासियों को हथकड़ी लगाकर भेजना अमेरिका की नीति है और यह सभी देशों पर लागू है. लेकिन सरकार के पास उस सवाल का क्या जवाब है जो सुप्रीम कोर्ट (SC) ने 4 फरवरी को पूछा. असम में सालों से घुसपैठियों को हिरासत में रखे जाने पर SC ने सवाल किया कि इन्हें वापस भेजने के लिए आखिर किस मुहूर्त का इंतजार किया जा रहा है?

4 फरवरी को SC ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इन अवैध प्रवासियों को अंतहीन समय तक तो इस तरह नहीं रखा जा सकता. इसके साथ ही अदालत ने असम सरकार को हिरासत में रखे गए 63 अवैध बांग्लादेशियों को दो हफ्ते के भीतर वापस भेजने का आदेश दिया. जस्टिस अभय एस. ओका और उज्जल भुइयां की बेंच ने कहा कि जब हिरासत में लिए गए लोग विदेशी साबित हो चुके हैं तो उन्हें तत्काल भेज दिया जाए.

बेंच ने कहा, "आप यह कहते हुए उन्हें वापस नहीं भेज रहे हैं कि हमें इन लोगों के पते-ठिकाने मालूम नहीं हैं. यह हमारी चिंता नहीं होनी चाहिए. आप इन्हें उनके देश में छोड़ दें. क्या आप किसी मुहूर्त का इंतजार कर रहे हैं?"

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी अमृतसर में अमेरिकी सैन्य विमान के उतरने से ठीक एक दिन पहले आई. पांच फरवरी को भारत पहुंचे इस विमान में अमेरिका से निकाले गए 104 अवैध भारतीय प्रवासी थे, जिनके हाथ-पैरों में हथकड़ियां पहनाई गई थीं.

भारत पहुंचे इनमें से एक हरविंदर का कहना था, "विमान में अमृतसर तक का 40 घंटे का सफर मुसीबतों भरा था. पूरे समय हम सभी स्टील की हथकड़ियों में कैद थे. हिलना-डुलना भी मुश्किल था. कई बार मिन्नतें करने के बाद वॉशरूम जाने की इजाजत दी गई. इसमें भी दो गार्ड साथ रहते थे. हथकड़ियों के कारण खाना भी ढंग से नहीं खा पाए."

यहां अब एक सवाल मौजूं हो उठता है कि जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पदभार संभालने के दो हफ्ते के भीतर ही अपनी धरती से अवैध प्रवासियों को हटाने के लिए तेजी से कार्रवाई की है और उन प्रवासियों को उनके देश भेजा है, उसी तरह नरेंद्र मोदी सरकार भी आखिर क्यों नहीं देश में रह रहे इन अवैध घुसपैठियों को वापस निकाल भेजती?

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में संवाददाता कौशिक डेका लिखते हैं, "यह विडंबना ही है कि डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से अपनी धरती से अवैध प्रवासियों को हटाने के लिए तेजी से कार्रवाई की है और अवैध प्रवासियों को उनके देश भेजा है, वहीं भारत खुद को एक कूटनीतिक और प्रशासनिक भूलभुलैया में फंसा हुआ पाता है. यही वजह है कि भारत के लिए ऐसी निर्णायक कार्रवाई करना लगभग असंभव हो जाता है."

असम को भारत में अवैध घुसपैठियों का सबसे बड़ा अड्डा माना जाता है. डेका अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि बात चाहे असम की हो या पूरे देश के लिए, समस्या केवल कार्रवाई करने की नहीं है बल्कि यह कानूनी, कूटनीतिक और तार्किक चुनौतियों का एक जटिल जाल है जो दशकों से अनसुलझा ही रहा है.

यही वजह है कि असम के सबसे बड़े डिटेंशन सेंटर मतिया ट्रांजिट कैंप में बरसों ये अवैध घुसपैठिये बंदी के रूप में अपना जीवन काट रहे हैं. राज्य के विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा आधिकारिक तौर पर विदेशी घोषित किए गए ये बंदी कानूनी उलझन में हैं क्योंकि भारत उन्हें उनके मूल देश, बांग्लादेश के सहयोग के बिना निर्वासित नहीं कर सकता.

जहां तक अमेरिका की बात है तो उसके पास अपनी इमिग्रेशन पॉलिसी (आव्रजन नीति) को लागू करने के लिए अहम कूटनीतिक ताकत मौजूद है, जबकि भारत के साथ ऐसा नहीं है. हाल के दिनों में भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों में काफी तनाव देखने को मिला है. वहां शेख हसीना सरकार के पतन के बाद नई दिल्ली और ढाका के बीच पनपे तनाव ने कूटनीतिक खाई को और गहरा कर दिया है, जिससे इन बंदियों को तुरंत भेजने की संभावना दूर की कौड़ी मालूम पड़ती है.

डेका अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "मुख्य परेशानी इन बंदियों की पहचान को लेकर अस्पष्टता से पैदा होती है, जिनमें से अधिकतर पर बांग्लादेश से आने का आरोप है. यह कानूनी प्रक्रिया असम के विदेशी ट्रिब्यूनल से शुरू होती है. ये ट्रिब्यूनल अर्ध-न्यायिक निकाय हैं जिन्हें नागरिकता तय करने का काम सौंपा गया है. हालांकि, ये ट्रिब्यूनल बंदियों को उनके ओरिजिन (जहां से वे आए हैं) का निश्चित पता लगाए बगैर उन्हें विदेशी घोषित कर देते हैं जिससे सत्यापन का भार भारत सरकार पर आ जाता है."

उधर, बांग्लादेश (जिसे अधिकतर बंदियों का मूल देश माना जाता है) ने इन बंदियों को तब तक स्वीकार करने से इनकार कर दिया है जब तक कि उनकी बांग्लादेशी नागरिकता के ठोस सबूत नहीं दिए जाते. यह इनकार ढाका की इस आशंका से उपजा है कि बंदियों के निर्वासन को स्वीकार करने से जनता का गुस्सा भड़क सकता है और इसके नाजुक राजनीतिक माहौल को और अस्थिर कर सकता है, खासकर तब जब वह घरेलू तनाव से जूझ रहा है.

इस बीच, असम सरकार खुद को नीतिगत उलझन में फंसी पाती है. 1985 का असम समझौता कहता है कि अवैध प्रवासियों के रूप में पहचाने जाने वाले लोगों को तुरंत निर्वासित किया जाना चाहिए. फिर भी, प्रक्रियात्मक वास्तविकता कहीं अधिक जटिल है. कई बंदियों के पास यह साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है कि वे बांग्लादेश या उस मामले में किसी भी देश से संबंधित हैं. ऐसे मामलों में भले ही वे बंदी बांग्लादेशी नागरिक होने की बात स्वीकार कर लें, लेकिन वे अक्सर सत्यापन योग्य एड्रेस नहीं दे पाते, जिससे भारतीय अधिकारियों के लिए उनके भेजने पर ढाका के साथ समन्वय करना असंभव हो जाता है.

डेका अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि दस्तावेजों की कमी के कारण इन अवैध प्रवासियों को लंबे समय तक हिरासत में रखा जाता है, कुछ बंदी एक दशक से भी ज्यादा समय तक डिटेंशन शिविरों में सड़ते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल ही के आदेश में संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए इस तरह की अनिश्चितकालीन हिरासत की असंवैधानिकता को रेखांकित किया, जो राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना सभी लोगों को जीवन और सम्मान के अधिकार की गारंटी देता है.

इन अवैध घुसपैठियों को वापस भेजना स्वाभाविक रूप से एक कूटनीतिक प्रयास है, जिसके लिए केंद्र सरकार को विदेश मंत्रालय (MEA) और संबंधित विदेशी सरकार के साथ बातचीत करने की जरूरत होती है. असम सरकार के लिए इसकी भूमिका विदेश मंत्रालय को मामले भेजने तक ही सीमित है. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अक्सर नौकरशाही की लालफीताशाही के कारण वक्त लगता है या फिर वह बेपटरी हो जाती है.

और अब इन चुनौतियों को और भी ज्यादा जटिल बना रहा है भारत-बांग्लादेश संबंधों की नाजुक स्थिति. बांग्लादेश ने यह साफ कर दिया है कि वह उन लोगों को स्वीकार नहीं करेगा जो दशकों से भारत में रह रहे हैं, जिससे उनके बांग्लादेशी मूल को साबित करने की प्रक्रिया और भी जटिल हो गई है.

एक ओर असम सरकार और विदेश मंत्रालय इन सभी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, दूसरी ओर डिटेंशन शिविर खुद विवादास्पद बने हुए हैं. असम की मतिया ट्रांजिट कैंप असम की डिटेंशन पॉलिसी से जुड़े मुद्दों का प्रतीक बन गया है.

यह शिविर शुरू में निर्वासन का इंतजार कर रहे लोगों को रखने के लिए बनाया गया था, लेकिन यहां से प्रशासनिक विफलता और मानवाधिकार उल्लंघन की खबरें लगातार आती रही हैं. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बताती है कि डिटेंशन शिविर की स्थापना के समय से ही खराब स्वच्छता, घटिया भोजन और यहां क्षमता से अधिक लोगों को रखे जाने की खबरें आती रही हैं. यहां बंदी अनिश्चितता में जी रहे हैं.

बहरहाल, अवैध घुसपैठियों का मामला केवल असम तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश भर में यह एक अहम मुद्दा है. 25 साल पहले भारत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 3 लाख से ज्यादा बांग्लादेशी भारत में घुस जाते हैं. ऐसे में जरूरी है कि पूरे देश में आइडेंटिफिकेशन ड्राइव चलाकर इनकी पहचान की जाए. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों और बॉर्डर से सटे राज्यों में विशेष तौर पर अभियान चलाकर इनकी पहचान की जाए.

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