कांग्रेस ने अपना मुख्यालय नई दिल्ली की अकबर रोड से कोटला रोड पर शिफ्ट कर लिया है. पार्टी के 139 सालों के इतिहास में से 47 सालों तक मुख्यालय का पता 24, अकबर रोड ही रहा है.
कांग्रेस के इतिहास से जुड़ी ज्यादातर बातें तो लोगों को पता हैं, हालांकि बहुत कम यह जानते होंगे महाराष्ट्र में अंग्रेजों के खिलाफ वासुदेव बलवंत फडके के विद्रोह की वजह से कांग्रेस की नींव पड़ी थी. 28 दिसंबर, 1885 को बॉम्बे में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से ही आज की कांग्रेस पार्टी उपजी है.
साल 1879 में क्रांतिकारी फडके ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू किया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और देश से बाहर यमन के शहर अदन की एक जेल में डाल दिया गया, जहां उनकी मौत हो गई. फडके के विद्रोह ने ही ब्रिटिश सिविल सर्वेंट एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ. ह्यूम) की ओर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
1870 के दशक में, महाराष्ट्र धीरे-धीरे उबलने लगा था क्योंकि अंग्रेजों ने बड़ौदा रियासत के महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ से (1875 में) उनकी गद्दी छीन ली थी. इसके साथ ही जहां 1875 में पूना, अहमदनगर, सतारा और सोलापुर जैसे दक्कन के जिलों में किसानों ने विद्रोह किया, तो वहीं 1876-77 में अकाल पड़ा और प्लेग और हैजा जैसी महामारियां फैल गईं. भारत के वायसराय लॉर्ड लिटन की दमनकारी नीतियों ने भी असंतोष को बराबर हवा दी दिया.
मौजूदा रायगढ़ जिले के शिरढोन में जन्मे फडके सैन्य वित्त विभाग में क्लर्क थे. वे दबंग स्वभाव के थे और उनका रुझान युद्ध कलाएं सीखने की तरफ था. उन्होंने पुणे में 'क्रांतिवीर' लाहूजी वस्ताद साल्वे से कुश्ती और अन्य युद्ध कलाएं सीखी थीं. फडके पुणे के वकील और डॉक्टर 'ब्रह्मर्षि' अन्नासाहेब पटवर्धन से भी जुड़े थे, जिन्हें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक अपना 'मोक्ष गुरु' मानते थे. फडके ने सैन्य वित्त कार्यालय में काम करते समय ही अपने लोगों का दल बनाना शुरू कर दिया था. वे छत्रपति शिवाजी महाराज की आदिलशाही और मुगलों के खिलाफ लड़ाई की तर्ज पर लोगों में फिर वही जज़्बा भरना चाहते थे.
फरवरी 1879 में फडके और उनके 300 लोगों के समूह, जिसमें ब्राह्मण, रामोशी, कोली, मुस्लिम और दलित शामिल थे, ने अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया. उन्होंने पुणे के आसपास के ग्रामीण इलाकों में साहूकारों और अमीरों के घरों पर हमला किया.
इतिहासकार वाईडी फडके लिखते हैं कि मई 1879 में वासुदेव बलवंत फडके ने एक घोषणापत्र निकाला जिसमें कहा गया था कि यह ब्रिटिश ताज के खिलाफ लड़ाई थी. उन्होंने जनता को लूटने, अकाल और सूखे के दौरान लोगों की तकलीफों, करों के बढ़ते बोझ और यूरोपीय अधिकारियों के मोटे वेतन और भत्तों के लिए इसकी आलोचना की. उन्होंने 1857 की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह शुरू करने की धमकी भी अपने घोषणापत्र में दी.
जब घबराए अधिकारियों ने उन्हें पकड़ने में मदद करने वालों के लिए 4,000 रुपये का ईनाम घोषित किया, तो फडके ने बदले में उन लोगों के लिए 5,000 रुपये की पेशकश की, जो उन्हें बॉम्बे के गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल का कटा हुआ सिर पेश करते. उन्होंने खुद को पुणे के अपदस्थ पेशवा का प्रधानमंत्री भी घोषित कर दिया. हालांकि टेम्पल ने जुलाई 1879 में वायसराय लॉर्ड लिटन को लिखे एक पत्र में फडके को एक तुच्छ ब्राह्मण "डाकू नेता" के रूप में खारिज कर दिया. फडके के सहयोगी समाज के अलग-अलग वर्गों से थे और साथ ही उन्हें आम किसानों की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त था. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने साहूकारों और सामंतों से लोहा लिया था जो उन्हें परेशान करते थे. फडके के पुणे में भी समर्थक थे और उनमें से कई ने उनके दस्ते की लूट को छिपाने में मदद की थी.
13 मई, 1879 को पुणे में पेशवा-युग के बुधवारवाड़ा 'बॉम्बे गजट' उन प्रकाशनों में से था, जिसमें पुणे में मार्शल लॉ लगाने और शहर के ब्राह्मणों को सबक सिखाने की मांग की गई थी. पुणे में रात में कर्फ्यू लगा दिया गया था.
इतिहासकार सदानंद मोरे लिखते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों को यह भी संदेह था कि महात्मा जोतिबा फुले और उनके युवा सहयोगी कृष्णराव भालेकर फडके के विद्रोह में शामिल थे. पुलिस ने भालेकर के घर की तलाशी ली. संदेह समाज सुधारक न्यायमूर्ति एमजी रानाडे पर भी गया, जिनका धुले ट्रांसफर कर दिया गया था, और उनकी गतिविधियों और पत्राचार पर कड़ी नज़र रखी गई थी.
हालांकि, बाद में इस षड्यंत्र को सही साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं मिले. एक क्लर्क कृष्णजी नारायण रानाडे, उनके बेटे केशव और सहयोगी श्यामराव कस्तूरे ने पैसों की हेराफेरी को छिपाने के लिए इन दफ्तरों में आग लगा दी थी.सरकार ने फडके के खिलाफ मेजर हेनरी विलियम डैनियल को तैनात किया. फडके के प्रमुख सहयोगियों में से एक दौलतराव नाइक पुणे जिले के तालेगांव के पास एक पहाड़ी पर डैनियल की सेना के साथ झड़प में शहीद हो गए. यह फडके के लिए बहुत बड़ा झटका था.
फडके की भगवान में गहरी आस्था थी और वे भगवान दत्तात्रेय के भक्त थे. कहा जाता है कि उन्होंने अपना विद्रोह शुरू करने से पहले अक्कलकोट के संत स्वामी समर्थ से भी सलाह ली थी. हालांकि, संत ने फडके को संकेत दिया था कि समय सही नहीं था. इन नुकसानों से दुखी होकर फडके श्रीशैलम में श्री मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर गए, जो उस समय हैदराबाद के निज़ाम के शासन में था. उन्होंने सर्वशक्तिमान को प्रसन्न करने के लिए एक सप्ताह तक धार्मिक अनुष्ठान भी किए और ऐसा करने में विफल रहने पर, अपना सिर काटकर भगवान को चढ़ाने का भी असफल प्रयास किया.
17 जून 1879 को वे कर्नाटक के मंदिरों के शहर गंगापुर आए, जो भगवान दत्तात्रेय के मंदिर के लिए जाना जाता है. फडके 1,000 सशस्त्र पुरुषों की एक बटालियन खड़ी करना चाहते थे. हालांकि, मेजर डैनियल को उनके ठिकाने के बारे में पता चल गया. हैदराबाद के एक पुलिस अधिकारी अब्दुल हक ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के मामा रंगोपंत मोरेश्वर महाजन को उठा लिया, जो फड़के से जुड़े थे. महाजन को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और फडके का ठिकाना बताने के लिए मजबूर किया गया.
हालांकि, वे गंगापुर से भाग निकले लेकिन 20 जुलाई को मेजर डैनियल और उनकी सेना ने देवरानवदगी में उन्हें घेर लिया. अस्वस्थ फडके सो रहे थे जब उन्हें घेर लिया गया और संक्षिप्त झड़प के बाद पकड़ लिया गया. पुणे के उस समय के प्रमुख वकील गणेश वासुदेव जोशी उर्फ सार्वजनिक काका और महादेव चिमनाजी आप्टे द्वारा अदालत में उनका बचाव करने के बावजूद, 7 नवंबर 1879 को फडके को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और अदन भेज दिया गया, जहां 17 फरवरी 1883 को उनकी मौत हो गई.
जैसा कि वाईडी फडके ने अपने 'विश्व शतकतिल महाराष्ट्र खंड-I' (20वीं सदी में महाराष्ट्र- खंड I) में लिखा है कि वासुदेव बलवंत फडके के सशस्त्र विद्रोह ने चापेकर बंधुओं और वीडी सावरकर जैसे क्रांतिकारियों की पीढ़ियों को प्रेरित किया. वे बंकिम चंद्र चटर्जी के 'आनंदमठ' (1882) के लिए भी प्रेरणा थे. सबसे जरूरी बात यह हुई कि भले ही ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह पहले भी क्यों न हुए हों, फडके के सशस्त्र संघर्ष से अंग्रेज हिल गए थे.
इस विद्रोह ने सिविल सर्वेंट और वनस्पतिशास्त्री एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को भारतीयों के लिए एक तरह के सुरक्षा वॉल्व के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया. संगठन का उद्देश्य उपनिवेशवादियों और उपनिवेशित लोगों के बीच एक कड़ी के रूप में काम करना भी था. जब वे उत्तर प्रदेश में तैनात थे, तो ह्यूम ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को अपनी आंखों से देखा था.
जैसा कि ह्यूम के जीवनी लेखक सर विलियम वेडरबर्न ने 'एलन ऑक्टेवियन ह्यूम, सीबी: फादर ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस 1829 टू 1912' में फडके के बारे में लिखा है, "अधिक शिक्षित वर्ग का एक नेता मिला, जिसने खुद को शिवाजी द्वितीय कहा, जिसने सरकार की चुनौतियों का सामना किया, महामहिम सर रिचर्ड टेम्पल (तत्कालीन बॉम्बे के गवर्नर) के सिर के लिए 5000 रुपये का इनाम रखा, और मराठा सत्ता की मूल स्थापना के आधार पर राष्ट्रीय विद्रोह का नेतृत्व करने का दावा किया."
कहा जाता है कि संयोग से कांग्रेस की पहली बैठक 25 से 30 दिसंबर, 1885 तक पुणे या पूना में आयोजित की जानी थी. पूना पेशवाओं की गद्दी थी और मराठा संघ की वास्तविक राजधानी थी, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े भूभाग को काबू में किया था. इस बैठक में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधियों के लिए पूना सार्वजनिक सभा ने शहर के मुख्य क्षेत्र में वर्तमान बाजीराव रोड से दूर हीराबाग के तत्कालीन पेशवा के महल का उपयोग करने की अनुमति दे दी.
लेकिन जैसा कि वेडरबर्न लिखते हैं, "दुर्भाग्य से, सभा के लिए निर्धारित समय से कुछ दिन पहले, पूना में हैजा के कई मामले सामने आए; और बैठक को बॉम्बे में स्थानांतरित करना समझदारी भरा कदम माना गया. बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन के प्रयासों और गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज और बोर्डिंग हाउस के मैनेजर्स की उदारता (जिन्होंने एसोसिएशन के लिए गोवालिया टैंक के ऊपर भव्य इमारतें उपलब्ध कराईं) के कारण, 27 दिसंबर 1885 की सुबह तक सब कुछ तैयार हो गया, जिस दिन प्रतिनिधियों का आना शुरू हुआ. इस प्रकार, यह हुआ कि बॉम्बे को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले सत्र को आयोजित करने का सम्मान मिला..."
दक्षिण मुंबई में मुख्य मेट्रो सिनेमा चौक का नाम फडके के नाम पर रखा गया है. इस व्यस्त मार्ग पर उनकी प्रतिमा भी लगी हुई है. हालांकि, भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के जन्म को गति देने में फडके की भूमिका के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं.