सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में राज्यपाल के अधिकार की हदों को तय करने की कोशिश की है. कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के 10 प्रमुख विधेयकों को मंजूरी न देने के फैसले को 'अवैध' और 'मनमाना' करार दिया है.
8 अप्रैल के इस फैसले ने न केवल तमिलनाडु में लंबे समय से चल रहे संवैधानिक गतिरोध को सुलझाया, बल्कि राज्य संबंधित कानून को अपनी सहमति या असहमति देने के लिए देश भर के राज्यपालों के लिए स्पष्ट समयसीमा और प्रक्रियाएं भी स्थापित की हैं.
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने फैसला सुनाया कि (तमिलनाडु के) राज्यपाल के विधेयक पर मंजूरी न देने के फैसले ने मूल संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया है. विशेष रूप से राज्य विधानमंडल की तरफ से दोबारा पारित किए जाने के बाद विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का उनका निर्णय अवैध है. न्यायालय की भाषा स्पष्ट थी, "राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने की कार्रवाई अवैध और मनमानी है. इसलिए, कार्रवाई को रद्द किया जाता है."
सुप्रीम कोर्ट ने एक असाधारण कदम उठाया और संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए घोषणा की कि सभी 10 विधेयकों को तमिलनाडु विधानसभा की ओर से पारित किए जाने के बाद राज्यपाल के सामने फिर से पेश किए जाने की तारीख से पास माना जाएगा. कोर्ट ने इन विधेयकों पर राष्ट्रपति द्वारा की गई किसी भी बाद की कार्रवाई को भी अमान्य घोषित कर दिया.
संविधान का अनुच्छेद 142, सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने के लिए, अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए, ऐसे आदेश पारित करने की शक्ति प्रदान करता है जो उसके समक्ष लंबित किसी मामले में जरूरी हो.
इस फैसले में जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि राज्यपाल ने "सद्भावना से काम नहीं किया" और इसी तरह के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों के प्रति "बहुत कम सम्मान" दिखाया. कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि राज्यपाल की भूमिका लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बाधा डालना नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ तालमेल बिठाकर उन्हें आगे बढ़ाना है.
शायद इस फ़ैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू राज्य के कानूनों पर राज्यपाल की कार्रवाई के लिए विशिष्ट समयसीमा निर्धारित करना है. कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 में स्पष्ट रूप से समयसीमा नहीं बताई गई है, लेकिन राज्यपालों को विधेयकों पर कार्रवाई में अनिश्चित काल तक देरी करने की इजाजत देना अनिवार्य रूप से "राज्य में कानून बनाने वाली मशीनरी को बाधित करेगा."
अदालत ने तीन स्पष्ट समय सीमाएं तय कीं:
* मंत्रिपरिषद की सलाह से किसी विधेयक को मंजूरी देने से रोकने और राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखने के मामले में राज्यपालों को एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी.
* राज्य सरकार की सलाह के खिलाफ किसी विधेयक को मंजूरी देने से रोकने या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने पर राज्यपालों को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा.
* जब कोई विधेयक राज्य विधानसभा की ओर से पुनर्विचार के बाद पेश किया जाता है, तो राज्यपालों को एक महीने के भीतर उसे स्वीकृति देनी होगी.
महत्वपूर्ण रूप से, सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि राज्यपाल द्वारा इन समयसीमाओं का पालन न करने पर उनकी निष्क्रियता की न्यायिक समीक्षा हो सकती है. फैसले में स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद 200 राज्यपालों को विधेयक प्रस्तुत करने पर तीन विकल्प प्रदान करता है: स्वीकृति प्रदान करना, स्वीकृति रोकना या इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना.
हालांकि, कोर्ट ने 'पूर्ण वीटो' या 'पॉकेट वीटो' की अवधारणाओं को खारिज कर दिया, जहां राज्यपाल बिना किसी कार्रवाई के अनिश्चित काल तक कानून पर बैठे रह सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "एक सामान्य नियम के रूप में जब एक बार कोई विधेयक सदन में वापस आने के बाद दूसरे दौर में राज्यपाल के सामने पेश किया जाता है, तब राज्यपाल के लिए किसी विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना सही नहीं है." एकमात्र अपवाद तब होगा जब फिर से पेश किया गया विधेयक अपने मूल संस्करण से काफी अलग हो.
फैसले में इस बात की भी पुष्टि की गई है कि अनुच्छेद 200 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते समय राज्यपालों को आम तौर पर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना चाहिए. केवल असाधारण परिस्थितियों में, जहां संविधान में स्पष्ट रूप से 'विवेक' की जरूरत होती है, राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत काम कर सकता है.
यह विवाद तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सरकार और राज्यपाल रवि के बीच विवाद 2021 में उनकी नियुक्ति के बाद से ही चल रहा है. जनवरी 2020 से अप्रैल 2023 के बीच राज्य सरकार ने 12 विधेयक पारित किए और उन्हें राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा. इनमें से ज़्यादातर विधेयक उच्च शिक्षा से संबंधित थे.
सबसे ज्यादा जिन विधेयकों पर मंजूरी ना देना विवाद का कारण बना उनमें से एक तमिलनाडु अंडरग्रेजुएट मेडिकल डिग्री कोर्सेज बिल 2021 (NEET छूट विधेयक) था, जिसमें छात्रों को MBBS/BDS पाठ्यक्रमों में NEET (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा)-आधारित प्रवेश से छूट देने और इसके बजाय उन्हें सरकारी कोटे की सीटों पर कक्षा 12 बोर्ड परीक्षा के अंकों के आधार पर प्रवेश देने की मांग की गई थी. इस विधेयक का मसौदा जस्टिस ए.के. राजन समिति की सिफारिशों पर तैयार किया गया था.
लंबे समय तक निष्क्रिय रहने के बाद, नवंबर 2023 में, राज्यपाल रवि ने अचानक बिना किसी पर्याप्त स्पष्टीकरण के 10 विधेयकों पर अपनी सहमति रोक दी और दो अन्य को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख लिया. तमिलनाडु विधानसभा ने तुरंत 10 लौटाए गए विधेयकों को फिर से पारित करने के लिए एक विशेष सत्र बुलाया और उन्हें राज्यपाल के पास वापस भेज दिया. राज्यपाल ने फिर विवादास्पद रूप से सभी 10 को राष्ट्रपति के पास भेज दिया. राष्ट्रपति ने बाद में एक को मंजूरी दी, सात को खारिज कर दिया और दो को लंबित छोड़ दिया.
इसी बात की वजह से तमिलनाडु सरकार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा, जिसमें तर्क दिया गया कि राज्यपाल के कार्यों ने संवैधानिक प्रावधानों और स्थापित प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया है.
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
इस फैसले का केंद्र-राज्य संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, खासकर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों पर. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस फैसले को 'ऐतिहासिक' और "न केवल तमिलनाडु बल्कि सभी भारतीय राज्यों के लिए एक बड़ी जीत" बताया और “राज्य की स्वायत्तता और संघीय राजनीति के लिए संघर्ष जारी रखने और जीतने" की कसम खाई.
केरल, तेलंगाना और पंजाब समेत कई अन्य विपक्ष शासित राज्यों ने राज्यपाल की ओर से बाधा डालने के बारे में इसी तरह की चिंता जताई है. केरल में, कोविड के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दों को संबोधित करने वाले विधेयक कथित तौर पर दो साल से अधिक समय से राज्यपाल के पास लंबित हैं, जबकि तेलंगाना ने आरोप लगाया है कि सितंबर 2022 की शुरुआत में पारित 10 से अधिक विधेयक पर अभी भी हस्ताक्षर नहीं हुए हैं.
यह फ़ैसला बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों और विपक्षी दलों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के बीच बढ़ते तनाव के बीच आया है. आलोचकों ने राज्यपालों पर निष्पक्ष संवैधानिक अधिकारियों के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम करने का आरोप लगाया है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस अवसर का उपयोग भारत के संघीय ढांचे में राज्यपाल की सही भूमिका को बताने के लिए किया. कोर्ट ने कहा, "राज्यपाल को सचेत रहते हुए राज्य विधानमंडल में अवरोध नहीं पैदा करना चाहिए और राजनीतिक लाभ के लिए राज्य की जनता का भरोसा नहीं तोड़ना चाहिए."
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि राज्यपालों को निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त लोकतांत्रिक जनादेश का सम्मान करना चाहिए, जो "राज्य के लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार हैं." अदालत ने आदर्श राज्यपाल की कल्पना "आम सहमति और समाधान के अग्रदूत के रूप में की, जो अपनी सूझबूझ, बुद्धिमत्ता से राज्य मशीनरी के कामकाज को सुचारू बनाए रखे और उसे ठप न होने दे."
बेंच ने यह स्पष्ट चेतावनी देते हुए अपना फैसला सुनाया कि उच्च पदों पर बैठे संवैधानिक अधिकारियों को "संविधान के मूल्यों द्वारा निर्देशित होना चाहिए." जजों ने डॉ. बीआर आंबेडकर की बात का हवाला देते हुए कहा, "कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा."
इस फैसले का तत्काल प्रभाव यह हुआ कि तमिलनाडु में 10 विधेयकों को मंजूरी मिल गई, जिससे राज्य सरकार को इन कानूनों को लागू करने की अनुमति मिल गई. व्यापक रूप से, यह निर्णय एक स्पष्ट प्रक्रियात्मक ढांचा स्थापित करता है जो पूरे भारत में इसी तरह के विवादों को नियंत्रित करेगा.
राज्यपालों के लिए, यह फैसला विधायी प्रक्रियाओं को अनिश्चित काल तक लटका कर रखने की उनकी शक्ति को महत्वपूर्ण रूप से सीमित करता है और उन सीमित परिस्थितियों को स्पष्ट करता है जिनके तहत वे अपने 'विवेक' का इस्तेमाल कर सकते हैं. राज्य सरकारों के लिए, विशेष रूप से उन राज्यों के लिए जो केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के साथ मतभेद रखते हैं, यह निर्णय अनुचित देरी या प्रक्रियागत अतिक्रमण को चुनौती देने के लिए एक शक्तिशाली कानूनी मिसाल मुहैया कराता है.
यह फ़ैसला भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यपालों की भूमिका और नियुक्ति पर पुनर्विचार को भी प्रेरित कर सकता है. आलोचकों ने लंबे समय से तर्क दिया है कि मौजूदा प्रथा, जिसमें राज्यपाल आमतौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा नियुक्त पूर्व राजनेता होते हैं, निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में उनकी संवैधानिक भूमिका को कमज़ोर करती है.
हालांकि यह फैसला तमिलनाडु में तात्कालिक विवाद को सुलझाता है, लेकिन भारत के संघीय ढांचे में केंद्रीय प्राधिकरण और राज्य स्वायत्तता के बीच तनाव बना हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने महत्वपूर्ण सुरक्षा घेरे स्थापित किए हैं, लेकिन इस संवैधानिक संकट को जन्म देने वाली राजनीतिक व्यवस्था अभी-भी देश में जारी है.